बुधवार, मई 06, 2020

विद्यालय के मुख से:रजनीश (काव्य प्रतिष्ठा)


विद्यालय के मुख से
मैं विद्यालय हूँ
मुझमें बैठकर सब पढ़ते हैं और लिखते हैं
और खेलते भी हैं।
यहीं पढ़कर कोई मास्टर बनता है तो कोई डॉक्टर तो कोई सैनिक
हाँ, हाँ मैं बच्चों के संग
दिन भर रहता हूँ
मैं ही बच्चों का मित्र हूँ।
बच्चे मुझे देख नहीं पाते
मैं उनके साथ ही रहता हूँ
यहाँ छोटे बच्चे से लेकर बड़े बच्चे तक
सीढ़ी चढ़ते मुझ तक पहुँचते हैं
मेरे घर में आकर
सभी बच्चे पंक्तिबद्ध खड़े होकर
सुप्रभातम् की शीतल राग पिरोते हैं
फिर कामयाबी होने का व्रत धारण कर
संविधान को आत्मार्पित करने के भाव में डूब जाते हैं।
यहाँ ही षिक्षक अपने हाथों में
रजिस्टर और मार्कर लिए
कक्षाओं में प्रवेश  करते हैं।
फिर ज्ञान की कुछ बातें बाँटकर
बच्चों को मनोरंजन की दुनिया में सैर कराते हैं।
यहाँ यही क्रम चलता रहता है
विषय कालखण्डों की धारों से बढ़ती जाती है
सभी अपने विषय के शिक्षकों से ज्ञानार्जन करते रहते हैं।
अब मध्यावकाष की घड़ी नजदीक आ जाती है
बच्चे पहले ही माँ के हाथों बनाई
रोटी और चावल को याद करते
और खाने के लिए उत्सुक रहते।
कोई किसी को रोटी दे रहा है
तो कोई किसी से चावल ले रहा है
सब एक-दूसरे से प्रेम बाँटने में व्यस्त हैं
कोई मकई की रोटी लाया है
तो कोई मैदे से बनी रोटी भी
कोई सेवईं लाया है तो कोई सेम की स्वादिष्ट सब्जी
सच यह दृश्य  देखकर मैं स्वयं सा पवित्र हो गया।
मध्यावकाश  के बाद पुनः
पढ़ने के लिए घण्टी बजती है
और घण्टी बजते ही सभी फूल अपने कक्षाकक्ष में प्रवेशित होते हैं
मानों ऐसा लग रहा हो जैसे कोई पुनः
शक्ति उन्हें जगाकर काम के लिए तैयार कर रही हो।
सब अपने अध्ययन में मग्न होकर मस्त हो जाते हैं
पढ़ाई के अंतिम पीरियड से ही
मैं उदास-सा हो जाता हूँ
कि सभी बच्चे चले जायेंगे
मैं किनके साथ रहूँगा, खेलूँगा
यह सोच मुझे बार-बार रूलाती है।
तब तक में सभी बच्चे चले जाते हैं
छोटे से बड़े सभी
एकदम कमरा खाली सा लगता है
केवल  टाटपट्टियों और श्वेतपट्ट ही संग रहते हैं
मैं फूलों-सा बच्चों को पकड़ना चाहता हूँ
पर वे सब अपने पैरों के सहारे उड़ जाते हैं
मैं उन्हें नहीं पकड़ पाता हूँ
शायद मेरे भी पैर होते तो मैं
इनके साथ इनको घर तक छोड़ जरूर आता
पर ऐसा नहीं हो सकता।
जैसे ही चार बजते हैं
सभी अपने-अपने बैग लिए
मुझे टाटा-बाय कर
अपने घर की ओर रवाना होते हैं
और मैं अकेले पूरी रात इन बच्चों के बारे में सोचता रहता हूँ।
पुनः सुन्दर प्रभात बेला में
बच्चे उठकर 10 बजे तक मेरे घर पहुँचते हैं
और अपनी सुन्दर गति पढ़ाई, भोजन, मनोरंजन की
धार बहाते हैं
हर रोज की तरह यह शीतल क्रियाएँ चलती रहती है
और मैं आनंदित
फिर रोता रहता हूँ।
रजनीश (काव्य प्रतिष्ठा)

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1 टिप्पणी:

Saumya ने कहा…

बहुत अच्छी कविता

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