(एक)
किसी जरूरतमंद के काम आ
सकूं,
मेरी जरूरतों को तू विराम
दे।
मेरे हक में हैं हजारों
खुशियाँ,
कुछ कम कर उन्हें भी
आराम दे।
मुझे धूप की खबर नहीं,
जमीं पर चलने का पता नहीं।
जिसके पाँव में मुकद्दर ने
दिए छाले,
उसके ठहरने को एक शाम दे।
मकान है भरा-भरा,
बहुत साजो सामान है।
काम से वक़्त मिलता नहीं,
खाली हाथों को भी काम दे।
ठहाकों से महल गूंजते हैं,
जाम में सुबह-शाम झूमते हैं।
उनके होठों पे हंसी थिरके,
मुस्कुराहट का एक जाम दे।
खुली आँखों से देखते हैं सपने,
तारे-आसमां से तोड़ लाने का।
रोटियां ही मिल जाएँ उनको,
उनकी जिन्दगी को भी मुकाम
दे।
चुभते जख्मों से खेलते हैं,
हम हर रोज नया-नया।
जख्म जिनके कभी भर पाए नहीं,
उनके जख्मों को मेरा नाम दे।
(दो)
विपदा खड़ी है जो पहाड़ सी,
तिल-तिल से बनाई तुमने है।
कुछ तो उपजी हैं वक़्त के साथ,
बहुत सी उकसाई तुमने है।
अविश्वास के बादल घने,
समेटे हैं तुम्हारे ताप ने।
ये बेवशी और लाचारियाँ,
लगी हैं अब तुम्हें नापने।
सीढियां आसमां की बनाई,
बीज नफरतों की फैलाई है।
विषवमन किये धरा के अमृतकुंड में ,
सोने की लंका को आग लगाई है।
विधि प्रधान व्यवस्था के
हार की तार चटकाई तुमने है।
छद्म छवि गढ़-गढ़,
मदांध हो सच को मिटाई
तुमने है।
तंत्र, कर्तव्ययुत हो सजग,
निभा रहा प्राण संकट में
डाल।
निज विनयशीलता का दे परिचय
दया, करुणा को बना ढाल।
एक, दो, तीन, चार, पांच, छः,
अनेक हैं कलंक कलुषित घटनाएं।
हैं दरिद्र, दीन दिमाग से
वे,
प्रहार उन पर जो प्राण उनके
बचाएं!
कुछ तो सीख रहे धर्मभीरू
हो,
कुछ तो दूरियां उनसे बनाई तुमने हैं।
प्रजा-प्रजा में भेद कैसा,
कुछ खुद सीखे, कुछ सिखाई
तुमने हैं।
वैसे तो चिरनिद्रा में लीन,
वक़्त कट जाता है सत्ता की
मलाई में।
कुर्सी हो न खतरे में, तो
है
दिखती कहाँ भलाई, जनता की
भलाई में।
शैल, शूल हैं जो सत्ता की
पगबाधा बने,
खरपतवार ये न एक दिन में
उगे हैं।
फल मात्र है उन खगवृन्दों
का,
भ्रष्टाचार के दाने जो हर
वक़्त चुगे हैं।
कुछ तो खोज लिए खुद के
रास्ते,
कुछ भ्रष्टपथ बनाये तुमने
हैं।
कुछ थे जन्मना देश के
दुश्मन,
कुछ को अपनाए तुमने हैं।
ठीक कर स्व दृष्टि दोष,
यदि प्रजा पालक तुम बनो।
हर अंधत्व को निवार दो
शिक्षा,
सर्वोपयोगी वृष्टि बारिद तुम बनो।
संशय त्याग इस देशगेह को
गढ़ें,
देशप्रेम के भाव से नेह को
नेह से पढ़ें।
त्याग कलुषित मन विचार
अपनों के विरुद्ध,
भागी कठोर दंड के, देश के
विरुद्ध जो खड़े।
वक़्त के साथ ढीली हो न पकड़,
संविधान की जिसे
अपनाई तुमने है।
देश की जरूरत है सभी
देशवासियों को,
इसे अकेले न बनाई मैंने, न
बनाई तुमने है।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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