सिंबल ऑफ़ नोलेज के
रूप में जाने जाने वाले महामानव बाबा साहब
भारतरत्न डॉक्टर भीमराव रामजी अम्बेडकर जी का आज जन्मदिन है। भारत और सम्पूर्ण विश्व उनका जन्मदिन मनाने में गर्व महसूस करता है। बाबा साहब का कृतित्व ही
नहीं उनका सम्पूर्ण जीवन वृत्त ही इतना महान और अनुकरणीय है जिसे कुछ शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। आज का
दिन इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि हम यह जानें कि उनका हमारे लिए कितना योगदान रहा
है बल्कि इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हम उन्हें अब तक कितना जान पाए।
बाबा साहब का जीवन विद्यार्थियों के
लिए सदा ही अनुकरणीय
रहेगा। बाबा साहब ने जिस मूल्य की प्रतिष्ठा की वह है “ज्ञान!” उनका सम्पूर्ण
अध्ययन उनके 'ज्ञान' से प्राप्त उपलब्धि पर निर्भर था। उन्हें उस समय के गायकवाड राज्य
से जो छात्रवृत्तियां मिलीं, सम्पूर्ण अध्ययन उन्होंने उसी आर्थिक सहायता के आधार पर
पूरा किया। बाबा साहब ने 22 वर्ष की अवस्था में संयुक्त राज्य अमेरिका में
पढ़ाई की। यही नहीं बाबा साहब जिस शोध पाठ्यक्रम के लिए तीन साल की छात्रवृत्ति लेकर अमेरिका
गये थे उसे उन्होंने 2 वर्ष में ही पूरा कर लिया और शेष बचे एक साल की छात्रवृत्ति
का उपयोग उन्होंने एक नये पाठ्यक्रम में इंग्लैंड जाकर किया। उनका अध्ययन सही
मायने में दुनिया को जानने और दुनिया की मुश्किलों को हल करने के लिए था। वास्तव
में किसी भी विद्यार्थी का अध्ययन इसी दृष्टिकोण से होना चाहिए। वे राजनीतिशास्त्र, समाजशस्त्र ,
अर्थशास्त्र, विधि आदि सभी के प्रकांड
विद्वान् थे। और इन क्षेत्रों में न केवल उन्होंने डिग्रियां हासिल की थीं, बल्कि
कई विषयों में उन्होंने शोध कार्य भी किया जिसके लिए उन्हें पी.एच.डी और डी.एस-सी
की उपाधियाँ प्राप्त हुयीं। उनके इसी अध्ययन-तप से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत
को एक मजबूत संविधान की प्राप्ति हुयी।
बाबा साहब ने अपना सम्पूर्ण जीवन लोगों को जगाने में लगाया। दिन रात एक करके सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, इस उम्मीद से कि जो बात वह लोगों से नहीं कह पाए वे पुस्तकों के रूप में पढने से लोगों को प्राप्त हो जाएँगी। वह स्वयं भी अध्ययन करते रहते थे। महाराष्ट्र में उन्होंने अपना जो मकान बनवाया था उसमें 50 हजार से अधिक पुस्तकें उस समय मौजूद थीं। उस समय का वह विश्व का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था। किन्तु दुर्भाग्य से आज पढने का चलन खत्म हो रहा है। जिनके लिए उनकी चिंता थी, वे शिक्षा से बहुत दूर हैं, उस शिक्षा से जिसकी वे वकालत करते थे। स्वाध्याय की प्रवृति का ह्रास हो रहा है। फिर कैसे हम उनके विचारों को समझ पाएंगे? कैसे हम उनके चिन्तन स्तर को छू सकेंगे।
जो अश्पृश्यता और छुआछूत को मिटाने की बात करते हैं, जो दलितों के उद्धारक हैं, उन्हें उनकी 'शिक्षा' के लिए काम करना चाहिए। उनकी पुस्तकों को उन तक पहुंचाने का काम करना चाहिए। उनके चिन्तन स्तर को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए। बाबा साहब और जिनकी वे चिंता करते थे, दोनों ही शिक्षा के अभाव के कारण नुकसान में रहे। क्या यह कम बड़ी बात है कि जिस महामानव ने भारत का संविधान रचा, वह भारत में हुए लोकसभा चुनाव में दो बार हार गया। बाबा साहब ने जिनके लिए सम्पूर्ण जीवन खपा दिया, उन्हें ही बाबा साहब का योगदान मालूम नहीं हो सका। बाबा साहब के कार्यों को उन तक पहुंचाना तब भी चुनौतीपूर्ण कार्य था, और आज भी है।
बाबा साहब ने अपना सम्पूर्ण जीवन लोगों को जगाने में लगाया। दिन रात एक करके सैकड़ों पुस्तकें लिखीं, इस उम्मीद से कि जो बात वह लोगों से नहीं कह पाए वे पुस्तकों के रूप में पढने से लोगों को प्राप्त हो जाएँगी। वह स्वयं भी अध्ययन करते रहते थे। महाराष्ट्र में उन्होंने अपना जो मकान बनवाया था उसमें 50 हजार से अधिक पुस्तकें उस समय मौजूद थीं। उस समय का वह विश्व का सबसे बड़ा निजी पुस्तकालय था। किन्तु दुर्भाग्य से आज पढने का चलन खत्म हो रहा है। जिनके लिए उनकी चिंता थी, वे शिक्षा से बहुत दूर हैं, उस शिक्षा से जिसकी वे वकालत करते थे। स्वाध्याय की प्रवृति का ह्रास हो रहा है। फिर कैसे हम उनके विचारों को समझ पाएंगे? कैसे हम उनके चिन्तन स्तर को छू सकेंगे।
जो अश्पृश्यता और छुआछूत को मिटाने की बात करते हैं, जो दलितों के उद्धारक हैं, उन्हें उनकी 'शिक्षा' के लिए काम करना चाहिए। उनकी पुस्तकों को उन तक पहुंचाने का काम करना चाहिए। उनके चिन्तन स्तर को उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए। बाबा साहब और जिनकी वे चिंता करते थे, दोनों ही शिक्षा के अभाव के कारण नुकसान में रहे। क्या यह कम बड़ी बात है कि जिस महामानव ने भारत का संविधान रचा, वह भारत में हुए लोकसभा चुनाव में दो बार हार गया। बाबा साहब ने जिनके लिए सम्पूर्ण जीवन खपा दिया, उन्हें ही बाबा साहब का योगदान मालूम नहीं हो सका। बाबा साहब के कार्यों को उन तक पहुंचाना तब भी चुनौतीपूर्ण कार्य था, और आज भी है।
आज राजनीति से
प्रेरित दलितों के स्वयंसेवकों ने और उनके विरोधियों ने ऐसा वातावरण बना दिया है
जिससे आए दिन दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं। कुछ लोग नीम-हकीम की तरह समाज का उपचार
कर रहे हैं। लोगों को सजग करने के बजाय उन्हें उकसा रहे हैं। जिससे उनके लोगों की
क्षति हो रही है। बाबा साहब ने दलितों को किसी समाज के खिलाफ उक्साने के बजाय आत्मोत्थान पर बल
दिया। उन्होंने नारा दिया-शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।
आज सरकारों से शिक्षा
की मांग गायब क्यों है? वह वर्ग जो दलितों और कमजोर वर्ग के बच्चों के साथ बैठकर अपने बच्चों को पढ़ाना पसंद नहीं करता था, शिक्षा में निजीकरण उनके लिए वरदान साबित हुआ है। उनसे आप उम्मीद
करते हैं कि वह दलितों के बच्चों की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों के सुदृधीकरण की
मांग करेगा? मध्यम वर्ग उच्च वर्ग का पिछलग्गू होता है। वह उसे ही ठीक समझता है जिसे
उच्च वर्ग अपना लेता है। ऐसे में बाबा साहब का पहला नारा ‘ शिक्षित बनो’ ही खटाई
में पड़ता दिखाई देता है। इसके बिना संगठित होना किसी भीड़ तंत्र का हिस्सा होने से ज्यादा कुछ नहीं है जिसका उपयोग कोई कभी भी कर सकता है। आजादी के इतने दिनों बाद भी
समाज के एक बड़े वर्ग की दशा में सुधार न होना इसी का परिचायक है।
कुछ लोगों को बहुत अधिक दंभ था कि
वोट बैंक की धमकियों के सहारे दलितों का उद्धार हो जायेगा। किन्तु अब तक यह तस्वीर
भी साफ़ हो चुकी है कि वोट बैंक का उपयोग दलितों का उद्धार करने में सक्षम नहीं है।
आज सही मायने में मैकियावेली की राजनीति चरितार्थ हो रही है जिसमें राजा
एन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाने की कोशिश करता है। ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल वोट बैंक
के लिए किसी भी समूह का इस्तेमाल करने के लिए उस समूह की कोई एक बात मान लेगा लेकिन चोरी-छिपे 99 ऐसे काम कर जाएगा जो उस समूह के हितों के विरुद्ध होगा। ऐसे में
मात्र वोट बैंक की धमकियों से दलितों का उद्धार होने वाला नहीं है।
शिक्षा और सजकता की
एक सशक्त क्रांति चलानी होगी। बिना किसी वर्ग से टकराए, बिना खुद को खुद के
उद्देश्यों से भटके। सवाल यह है कि इसके लिए आगे कौन आएगा? जिसे समानता, मानवता,
बंधुत्व और प्रेम से लगाव होगा, वही लोग इसके लिए आगे आयेंगे और यह कहने में भी
कोई गुरेज नहीं कि इसके लिए उनके वर्गों में से उन्हें आगे आना होगा जो सक्षम हैं। उन्हें आगे आना होगा क्योंकि उन्होंने बाबा साहब के प्रावधानों की बदौलत एक अच्छी स्थिति प्राप्त की है और उनका यह कर्तव्य बनता है कि वे बाबा साहब के सच्चे अनुयायी की तरह उनकी विचारधारा को आगे बढ़ाएं।
बाबा साहब को समाज
का एक बड़ा वर्ग याद करता है- उनको दिलाये गये आरक्षण के प्रावधानों के लिए। इसी के
लिए समाज का दूसरा वर्ग उनका विरोधी भी है। सोचने की बात यह है कि क्या आरक्षण के प्रावधानों का इन वर्गों के उत्थान
में प्रभावी योगदान रहा है? क्या सरकारों ने आरक्षण के प्रावधानों का तोड़
नहीं निकाल लिया है? क्या इसका इस्तेमाल सिर्फ वोट बैंक के लिए नहीं किया जा रहा
है? क्या हम केवल आरक्षण की बैसाखी के सहारे इस वर्ग का उत्थान कर सकेंगे? जिस
सम्पूर्ण ऊर्जा को हम सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन के लिए लगाते, क्या हमारी वह
सम्पूर्ण ऊर्जा का केवल आरक्षण बचाने में नहीं लगने जा रही है? आदि गंभीर बातें
याद रखनी होंगी। अच्छा हो कि हम इस वर्ग को उस सक्षमता की ओर भी ले जाएँ, जहां
अधिकांश लोग बिना आरक्षण के भी अपनी जगह बना सकें। मगर ऐसा प्रयास करेगा कौन? वह
जो आरक्षण का लाभ लेकर मलाई काट रहा है या वह जो आरक्षण के सहारे ही आगे बढ़ने का सपने देख रहा है वह या फिर वह जो आरक्षण को ही सारी समस्याओं की जड के रूप में देख
रहा है?
बाबा साहब ने जब हिन्दू धर्म छोड़ने और बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा की थी। उस समय महात्मा गाँधी ने कहा था- हिन्दू समाज को थोडा वक़्त देना चाहिए शायद वह धीरे-धीरे अपनी त्रुटियों को ठीक कर लेगा। यही बात उन्होंने पूना पैक्ट के समय भी कही थी। हालाँकि तब से अब तक एक जमाना गुजर गया और बहुत सारे संविधानिक प्रावधान भी हुए किन्तु सामाजिक सोच में अभी तक उतना बड़ा परिवर्तन नहीं आया। शिक्षा की स्थिति में भी बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि परिवर्तन अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सचेत प्रयास करना होगा। कुछ लोग जो स्वयं को अम्बेडकरवादी मानते हैं, वह एक तरह से बौद्ध प्रचारकों की तरह काम करने में लगे हैं। स्वयम बाबा साहब ने सभी धर्मों का अध्ययन करने के बाद जीवन के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण की किन्तु कुछ लोग मानते हैं कि व्यक्ति के धर्म परिवर्तन से ही शिक्षा और समृद्धि आ जायेगी। यह सच नहीं है।
सच यह है कि बाबा साहब ने अध्ययन के बल पर भारत और दुनिया को जाना। अध्ययन के बल पर ही उन्होंने विभिन्न धर्मों का ज्ञान प्राप्त किया। अध्ययन के बल पर ही बाबा साहब ने विभिन्न देशों की राजनीतिक व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त किया। अध्ययन के बल पर ही वे महिलाओं, समाज के कमजोर वर्गों, वंचितों, दलितों के हितों की बात वह संविधान सभा में रख पाए और उनके हितों के सम्बन्ध में संवैधानिक प्रावधान कराने में सफलता प्राप्त की। अध्ययन के बल पर ही वे अंग्रेजों के समक्ष स्वयं को दलितों और वंचितों का एकमात्र प्रतिनिधि साबित कर पाए और अपने ज्ञान बल के आधार पर ही वे अंग्रेजों के समक्ष दलितों और वंचितों के हितों की बात रख सके।
यदि हम बाबा
साहब को सच्ची सृद्धान्जली देना चाहते हैं तो हमें ‘अप्प दीपो भव’ की तरफ बढना
होगा। अपना प्रकाश स्वयं बनना होगा। स्वयं अध्ययवासी बनाना होगा। अपनों की मदद के लिए आगे आना होगा। स्वयम को जानें। स्वयम जानें।
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आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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