गुरुवार, सितंबर 05, 2019

ताबीज

वर्षों पहले ताबीज वाले बाबा से मुलाकात हुई थी। उसने बिना पूछे मेरे बारे में कई घोषणाएं की थी। उसके बाद कई वर्षों तक जब भी मेरे साथ कुछ होता तो ऐसा लगता जैसे उसकी ही भविष्यवाणी सही हो रही है। फिर बाजार में एक रोबोटिक मशीन का आगमन हुआ। उसका मालिक कुछ पैसे लेता था, बदले में उस रोबोटिक मशीन का स्पीकर हमारे दोनों कानों में लगा देता था। वह रोबोटिक मशीन मेरा भविष्य बता रहा था। जबसे उस रोबोटिक मशीन ने मेरा भविष्य बताया उसके बाद मेरे साथ घटित होने वाली घटनाएं उस रोबोटिक मशीन की भविष्यवाणी लग रही थीं। इस रोबाटिक मशीन के बारे में मेरी बढ़ी जिज्ञासा ने रोबोटिक मशीन के बारे में मेरे मन में फैली भ्रान्ति को दूर कर दिया। मेंरे मन में यह सवाल उठा कि क्यों न एक बार और उसी रोबोटिक मशीन से अपनी भविष्यवाणी सुनी जाए। ठीक तरह स्मरण है कि वह रोबोटिक मशीन महीनों तक बाजार में दिखी थी। मैंने एक बार और उस रोबोटिक मशीन से भविष्यवाणी सुनने का निश्चय किया। मैंने ध्यान से सुना। इस बार वही रोबोटिक मशीन मेरे बारे में दूसरी भविष्यवाणी कर रही थी। मेरे मन में शंका पैदा हुई कि रोबोटिक मशीन या तो पहले झूठी भविष्यवाणी कर रही थी या अब झूठी भविष्यवाणी कर रही है। लेकिन इस शंका को दूर करने का मेरे पास कोई साधन नहीं था। 

कुछ बड़ा होने पर जब एक टेपरिकॉर्डर खरीदा और स्वयं की आवाज को रिकॉर्ड कर सुना तब मुझे उस रोबोटिक मशीन की भविष्यवाणी का सच पता लगा। उस राबोटिक मशीन में एक निर्धारित समय के लिए भविष्यवाणी जैसी बातों को रिकॉर्ड कर सुनाया जाता था। इसके बाद थोड़े अन्तराल का विराम होता था अर्थात् साईलेंस होता था। उसके कुछ सेकण्ड बाद दूसरी भविष्यवाणी रिकॉर्ड की हुई सुनाई जाती थी। जब यह सुनाया जाता तब सामने स्क्रीनप्ले भी होता था जिससे रोबोटिक मशीन के मालिक को पता लग जाता था कि इस व्यक्ति को जितना सुनाया जाना था, पूरा हुआ है वह झट से कान से स्पीकर उतार लेता था और मशीन बन्द कर देता था। अब जब दूसरा व्यक्ति सुनता उसे कुछ और ही भविष्यवाणी सुनाई देती। अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग भविष्यवाणी का सुनाई देना ही उस मशीन की सत्यता का मानक था और एक बार सुनने के बाद कोई दूसरा भविष्यवाणी सुनने का दुस्साहस न  करता।
भविष्यवाणी सुनने वालों में ज्यादातर कम उम्र के छात्र हुआ करते या ग्रामीण। वह भविष्यवाणी सुनते, पैसे देते और चल देते। फिर क्या हुआ, भविष्यवाणी सत्य हुई या नहीं, इसके लिए कोई झगड़ा करने नहीं आता। अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि उसके बाद उनके साथ जो कुछ होता उसे वह उस रोबोटिक मशीन से जरूर जोड़ते रहें होंगे और ऐसा मानते रहे होंगे कि ऐसा होना तो रोबोटिक मशीन ने पहले ही बताया था। आप इन घटनाओं से मेरी बेवकूफी पर जरूर हंस रहे होंगे और अपने शिक्षित होने का प्रमाण दे रहे होंगे। 

एक बार की और बात बताते चलते हैं। एक बार अपने एक मित्र के प्रभाव में आकर मैं एक सत्संग में गया हुआ था। सत्संग के बाद नारियल तोड़ा जाता था। मैं सत्संग में चौथी या पाँचवीं पंक्ति में बैठा रहा होऊंगा। नारियल तोड़ने के बाद जब उसके छोटे टुकड़े किए जा रहे थे तब एक टुकड़ा उनके हाथ से छूटकर सीधे मेरे पालथी में गिरा। उस संयोग को मैंने दिव्य अनुभूति की तरह लिया  और ऐसा एहसास किया कि इन संत की मुझपर विशेष कृपा है जिसके कारण उन्होंने सभी से अलग मुझे अपार स्नेह दिया है-यह प्रसाद देकर। यद्यपि लज्जा के भय से मैने यह बात किसी को नहीं कही। फिर मैं कई दिनों तक सत्संग जाता रहा और अपेक्षा करता रहा कि ऐसी ही दिव्य अनुभूति फिर से हो। कोई ऐसी घटना फिर से हो जिससे मुझे पता लगे कि इन सन्त की या प्रभु की मुझ पर विशेष कृपा है किन्तु वैसा फिर कभी घटित नहीं हुआ। फिर वैसा घटित न होने से जो मुझे अनुभूति मिली मैं उस पर शंका करने लगा कि ऐसी अनुभूति मुझे केवल एक बार ही क्यों हुई? तब उसे मैं एक संयोग की तरह मानने लगा। उस सन्त ने फिर कभी अपना विशेष स्नेही भक्त न बना सका। (बस इतना सोचिए कि मेरे साथ वही संयोग फिर घटित हुआ होता तो क्या होता?)

एक बार मोहल्ले में साढ़े पाँच पाँव वाला एक बैल आया था। उसे उसके मालिकों ने तौलिए से पकड़ा हुआ था। बैल हाँ और न में जवाब देता था। जब प्रश्न लोगों की ओर से होता या फिर उसका मालिक प्रश्न पूछता, बैल का गमछा पकड़ा व्यक्ति गमछा पकडे रहता और बैल उस प्रश्न के उत्तर के संदर्भ में अपना सिर हाँ या न में हिला देता। इस घटना के समय मैं मौजूद नहीं था। परन्तु मेरे बारे में मेरी माँ की ओर से किए गए प्रश्न का जो उत्तर था वह मुझे बता दिया गया। फिर जब भी कुछ घटित होता उसे बैल के उत्तर का संदर्भ दिए बिना वह पूरा नहीं होता था।

आप जीवन के चारों ओर देखिए। जब मेरे साथ ऐसी घटनाएं घटित हुईं तब मेरा बाल्यकाल था। उन पर विश्वास करना मेरी अज्ञानता और अशिक्षा थी। किन्तु आज जब पढ़े-लिखे लोगों को ठीक ऐसी ही बातों पर विश्वास करते देखता हूं तो लगता है ऐसे अंधविश्वासों को बढ़ावा देने से शिक्षा भी रोक नहीं सकी। बल्कि शिक्षा ने ऐसे अंधविश्वासों को नए कलेवर में प्रस्तुत किया है। आप हतप्रभ रह जाएंगे कि अन्धविश्वासों का विज्ञापन होता है, अन्धविश्वास सुनने की बुकिंग होती है और पैसा देकर लोग अन्ध विश्वास सुनने जाते हैं। हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51क में वर्णित एक कर्तव्य है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह-‘‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे‘‘। लेकिन इस मामले में सरकारी उपाय उसी तरह निहत्थे साबित होते हैं जैसे पान-मसालों पर लिखी वैधानिक चेतावनी। 
आप अपने चारों ओर देखेंगे तो पाएंगे कि ऐसी घटनाएं छोटे और बड़े दोनों स्तरों पर व्यापक मात्रा में फैली हैं। मैंने जिस ताबीज की बात की वह सड़क छाप ताबीज थी। दो रुपए से पाँच रुपए में भी वह मुझे ताबीज दे देता। हो सकता है हममें से कोई इतनी सस्ती ताबीज नहीं पहनता हो। हममें से कोई लाखों का ताबीज पहनता हो। शिक्षा से इतनी ही दृष्टि मिली है कि वस्तु मंहगी है तो उसका फायदा भी ज्यादा होगा। हमारे इस दृष्टिकोण को बाजार ने पकड़ लिया है ठीक वैसे जैसे घर-गाँव में भविष्यवाणी करते हमारे पुरोहितों की नकल में रोबोटिक मशीन का इस्तेमाल कर लिया गया जो सिवाय एक टेपरिकॉर्डर से अधिक कुछ नहीं है। अब टी.वी. पर आकर्षक विज्ञापनों के माध्यम से अंधविश्वास का बाजार पनप रहा है। हम और आप स्थानीय लोगों के अन्धविश्वासों को गलत कहते रहे और उधर कोई बड़ा व्यापारी अंधविश्वासों की फैक्ट्ररी चलाने लगा। ताबीज बन रहे हैं, लाल-पीली, हरी-नीली किताबें बिक रही हैं। आप जन्म बताओ, जन्मस्थान बताओ और आपकी सटीक भविष्यवाणी आपके सामने। लोग जिस पर भरोसा करते हैं लोगों ने अन्धविश्वास पर विश्वास करने के लिए उसे ही उसका माध्यम बना लिया। आप आजकल कम्प्यूटर पर भरोसा करते हैं, आपकी भविष्यवाणी, आपका भाग्य अब कम्प्यूटर बताता है। आप आसानी से मान जाएंगे क्योंकि कम्प्यूटर की गणनशक्ति सामान्य मानव से कहीं अधिक है और वह किसी के साथ पक्षपात भी नहीं करता। आदमी इतनी अक्ल लगाने की जहमत तो करेगा नहीं कि कम्प्यूटर वही उगलता है जो निगलता है। आदमी ने जो प्रोग्रामिंग की है उसी का तो उत्तर रोबोटिक मशीन देगा न?

हमारी सोच बहुत आधुनिक हो गयी है क्योंकि हम शिक्षित हो गये हैं। हम कम्प्यूटर युग में जी रहे हैं। हम अपना काम कम्प्यूटर के माध्यम से करते हैं। फिर भी जिस दिन कम्प्यूटर खरीदने जाएंगे, उसके पहले मुहूर्त अवश्य देखेंगे। बालक ने एममससी साइन्स में टॉप किया था, जिसकी बदौलत उसे नौकरी मिली, अब वह बताएगा कि दिन और रात कैसे होता है, वह पढ़ाएगा कि सूर्यग्रहण और चन्दग्रहण कैसे होता है ओर उसके विज्ञान शिक्षक होने की  इसी खुशी में वह  गांव के एक कोने में रखी प्रतिमा के सामने सात दिवस का सत्संग कार्यक्रम रख अन्तिम दिवस पर भोज भी कराएगा। हम यह सब करते रहते हैं। इन्हें करने से हम पर कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ता। परन्तु हमारा यही करना हमें कोई हजारों-लाखों किलोमीटर दूर टीवी पर बैठा दिखता हुआ व्यक्ति लाखों का ताबीज बेंचकर चला जाता है। बात केवल ताबीज की नहीं है। हमारे समाज में यह सामाजिक असमानता को भी  पैदा करता है। हम जब भाग्यवादी होते हैं तो हम आलसी होते हैं। हम उस बीमार पड़े व्यक्ति का इलाज रोककर झाड़-फूंक कराकर उसे मरने के लिए छोड़ देते हैं जिसका जीवन बचाया जा सकता है। हम उस व्यक्ति को संघर्ष करने से रोक देते हैं जो अपना हक अपने संघर्ष से पा सकता था।


हम अर्धसत्य अवस्था में जी रहे हैं। जो सत्य है, उस छोड़कर असत्य को सत्य मान लेते हैं। जब कोई हमारा शोषण करता है तब हम यह कहकर स्वयं को सांत्वना देते हैं कि इसका बदला भगवान लेगा। यदि सच में इस सच पर इतना भरोसा होता तो लोग चैकीदार नहीं रख रहे होते। जब तक आप सबल हैं तब तक आप भगवान को बदला लेने देने का अवसर नहीं देते। कुत्ता बच्चे के हाथ से रोटी छीनकर भागता है तब हम उसके पीछे दौड़ते हैं, भगवान का इन्तजार नहीं करते कि वह आएगा और कुत्ते से रोटी छीनकर हमें देगा। लेकिन जिन कार्यों में हम सक्षम नहीं होते, उस पर भरोसा कर लेते हैं कि भगवान इसे हमारे लिए कर देगा। दोनों ही स्थितियों में कोई एक स्थिति ही सत्य है। दोनों ही नहीं। यदि भगवान पर इतना भरोसा है तो फिर संभाव्य कार्यों को भी उसे करने देना चाहिए और जब भरोसा नहीं है तब इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि जिसने हमारी सम्पत्ति छीन ली है वह अपनी ताकत की वजह से छीन सका है और वह सम्पत्ति हमारी तब तक नहीं हो सकती जब तक कि हम भी उसे ताकत से छीनने में  सामर्थ्यवान न हो जाएं। ऐसी सोच समाज में क्रान्ति लाती है क्योंकि यही सत्य है। जो प्रत्यक्ष है, उस पर भरोसा नहीं है, लेकिन जिसकी आज स्थिति नहीं है उसका भरोसा हमें जबरन दिलाया जाता है। हमारा कोई आदमी मेले में खो जाए तो हम उसकी पहचान करते हैं उसके कपड़ों से, उसके चेहरे से, उसके चलने-फिरने से उसकी आवाज से, उसे और अन्य कई तरह से पहचानने की कोशिश करते हैं। परन्तु किसी को भूत आता है, और नहीं तो भगवान ही आ जाता है और इसे हम मान लेते हैं, केवल उसके कहने से। जिसे हमने कभी देखा नहीं, जो नाम हमारी भाषा की शब्दावली में नहीं है, उन नामों के भी भूत हैं। हम मानते हैं ऐसा। वह कहाँ रहते हैं, कैसे आते हैं। किसी को पता नहीं। लेकिन अब इन भूतों के नाम पर भी खूब बाजार चल रहा है। इसे सत्य सिद्ध करने के लिए उन तकनीकों का सहारा लिया जाता है जिन तकनीकों पर आपको भरोसा है। अब इसे वैज्ञानिक प्रयोगों से मनवाने की कोशिश हो रही है। यह सब दूरदर्शन और समाचार मीडिया चलाने वाले कराते हैं। इससे उनकी टीआरपी बढ़ती है। वह अपने पत्रकारों को इंसानों की समस्या छोड़कर भूतों को खोज परख करने भेज देते हैं। बकायदा पत्रकारों को ऐसी मशीन देते हुए दिखाया जाता है जिसमें भूतों की उपस्थिति को मापा जा सकता है। कहा जाता है भूतों की उपस्थिति से एक विशेष प्रकार की ऊर्जा विकिरित होती है जिसे मशीन रिकॉर्ड कर सकता है। ऐसा सब आपके मस्तिष्क को भ्रमित करने के लिए ही किया जाता है। आपके मस्तिष्क को विश्वास में लेने के लिए किया जाता है। आप शिक्षित हो गये हैं, मगर इन विश्वासों से कैसे बचेंगे जिसे सार्वजनिक तौर पर अन्धविश्वास कहने पर आपको असभ्य करार दिया जा सकता हो।
आपको न्यूजचैनलों पर जो अविश्वस्नीय और अकल्पनीय दिखाया जाता है वह दृश्य आपको विश्वास में लेने के लिए पूरी तरह कल्पनाओं से भरा होता है। मसलन आपको भूतों की तथाकथित  किसी नगरी का सच दिखाये जाने का दावा किया जाएगा और जब उसका सच दिखाया जाएगा उसके पहले ही आपको भूतही फिल्मों से लिए गए भयावह दृश्य पहले ही दिखा दिये जाएंगे। जब आपका मस्तिष्क उन भूतों के भय से भर जाएगा तब वह थोड़ा-बहुत वास्तविक दृश्य दिखाया जाएगा जिसमें भी कुछ ऐसा शामिल होगा जिसका निर्णय आप पर छोड़ देगा। आप उस कार्यक्रम के बाद यही विश्वास करेंगे कि भूत तो था मगर ऐंकर ने अपनी जिम्मेदारी का पालन करते हुए उस सच को सीधे-सीधे नहीं कहा और इसलिए ऐसे कार्यक्रम का नाम भी बड़ी चतुराई से अर्धसत्य रख दिया जाता है। 
तमाम कलुषित परम्पराओं को ध्वस्त करने की मानसिकता वाली युवा पीढ़ी जब तैयार होने लगी तो उन कलुषित परम्पराओं के समर्थन में वैज्ञानिक तर्क दिए जाने लगे। बड़े-बड़े मठाधीशों द्वारा व्याख्यानमालाएं आयोजित की जाने लगी। सबसे बुरा हाल तो तब हुआ जब ऐसे लोग राजनीति के कंधों पर सवार होकर हमारी पाठयपुस्तकों में इन्हें शामिल करने का षड़यंत्र भी रचने लगे। आप समाचार देखते होंगे तो आप अवगत होंगे कि आए दिन हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि इस तरह का बयान देते हैं जिसे मीडिया और मिर्च-मसाला लगाकर हमारे सामने प्रस्तुत करता है। जब हमारा चुना हुआ जनप्रतिनिधि ही इन पाखण्डों के समर्थन में खड़ा दिखाई देता है तब हम उन पाखण्डों पर भी भरोसा करने लग जाते हैं जिन्हें एक अदना-सा आदमी जानता है कि वह निरा पाखण्ड है।
सत्य और असत्य के फेर में, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष के फेर में हमारे मस्तिष्क को उलझाया गया है। एक बाबा सत्संग करते हुए हमें समझा जाता है कि चिन्ता मत करो, सब कुछ उसके हाथ में छोड़ दो, वह देख लेगा। और हम अपनी संघर्ष यात्रा पर विराम लगाकर, शोषण के समक्ष नतमस्तक होकर इस प्रतीक्षा में बैठ जाते हैं कि वह जो अप्रत्यक्ष है वही सत्य है वह एक दिन हमारे साथ न्याय करेगा। एक पीढ़ी की पीढ़ी खुद का सरेंडर करके बैठ जाती है। आप गौर कीजिए जो सच था उसे ढांककर हमें उस सच को मानने की सीख दी गई जो सच नहीं है। यहां पर अप्रत्यक्ष पर भरोसा करना सिखाया गया। दूसरी ओर दूसरा बाबा आता है वह अपने हाथों को हवा में लहराता है उसके हाथों में कोई भभूती या ताबीज आ जाता है और हम उस पर भरोसा कर लेते हैं। उसने अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कर हमें चमत्कार दिखाया। उसने हमें सिखाया कि उसके पास ऐसी शक्ति है जो अप्रत्यक्ष है उसे वह प्रत्यक्ष कर सकता है। अर्थात् यदि वह बाबा केवल कहता तो हम विश्वास नहीं करते परन्तु उसने करके दिखाया और तब हमने इसे सच मान लिया। हमने इस बार प्रत्यक्ष को सच माना। हम कभी प्रत्यक्ष पर भरोसा करते हैं, कभी अप्रत्यक्ष पर भरोसा करते हैं। दरअसल हमने अपने मस्तिष्क का नियंत्रण उनके हाथों में दे रखा है वह जैसा चाहें वैसा हमें विश्वास करने के लिए बाध्य कर सकते हैं।
पाखण्ड केवल ताबीज खरीदने का नहीं है। पाखण्ड यह भी है कि हम जिन योग्यताओं को धारण करते हैं उन योग्यताओं को हासिल करने और उसे बनाए रखने का हम प्रयत्न ही नहीं करते। हम पाखण्डों को पाखण्ड कहने का सच नहीं जुटा पाते। कहने का छोड़िए, हम पाखण्ड को पाखण्ड मानना ही नहीं चाहते। हम उधर अपने मस्तिष्क की ऊर्जा खपाना ही नहीं चाहते। इसमें विरोध है। इसमें द्वंद है। हम द्वंद पालना नहीं चाहते। हमें लुट जाना मंजूर है परन्तु कोई लूट रहा है या सच में कुछ दे रहा है इसकी पड़ताल में खुद को खपाना नहीं चाहते। ऐसा करने से हम उलझ जाएंगे। हम उलझना नहीं चाहते। हमारा देश, हमारा संविधान हमें आजादी देता है, हम आजादी का उपभोग करना चाहते हैं। यदि हम इस प्रकार के विचारमंथन में पडेंगे, हमारी मानसिक शांति भंग होगी और हम तो नशा करके मानसिक शांति प्राप्त करने वाले लोग हैं। हम मानसिक शांति खोना नहीं चाहते। बस, बांसुरी बजती रहे, हम सोते रहें।
हम जापान का विकास देखकर दांतों तले उंगली दबा लेंगे। हम चीन की आर्थिक शक्ति का लोहा मान लेंगे। वह कैसे इस स्थिति में पहुंचा, उसको जानने का प्रयत्न नहीं करेंगे। अमेरिका के परमाणु बम हमले से तबाह हुआ देश आज वहां के लोगों की दृ़ढ़ मानसिक शक्ति के बल पर वह सिर उठाए खड़ा है। वह तकनीक पर भरोसा करता है तो वह मानवीय मूल्यों पर भी भरोसा करता है। लोगों की ईमानदारी, लोगों के सच पर लोग भरोसा करते हैं। परिश्रम पर भरोसा करते हैं। एक दूसरे को प्रोत्साहन देने पर भरोसा करते हैं। हम सवा सौ करोड़ की आबादी वाले लोग, विश्वगुरु का तमगा लटकाए लोग बुलेट ट्रेन के लिए उसका मुंह ताकते हैं। हम तकनीक के दम पर विकसित बुलेट ट्रेन का उद्घाटन जब भी करेगे, विधिवत मुहूर्त देखकर करेंगे! जपान के पास जो परिश्रम की ताबीज है उसे हम नापसन्द करेंगे।
ताबीज केवल बाबा लोग ही नहीं बेचते। राजनीतिक मंचों से भी ताबीज बेची जाती है। जितना बड़ा लुटेरा होता है वह अपने ताबीज को उतना अधिक प्रभावी बताता है। ताबीज की फैक्ट्ररी आपके चारों ओर है। कोई आपको नौकरी दिलाने का ताबीज दे रहा है। कोई आरक्षण देने का ताबीज दे रहा है। कोई आरक्षण खत्म करने का ताबीज दे रहा है। कोई विदेशों से कालाधन वापस लाने का ताबीज दे रहा है। इन ताबीजवाजों ने आपके मस्तिष्क को अपनी गिरफ्त में लेने का ताबीज आपको पहना रखा है।   
आपको स्वयं ही अपने मस्तिष्क को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने का यत्न करना होगा। विज्ञापन और विज्ञापन का सच जानने की कोशिश करनी होगी। पाखण्डियों के पाखण्ड पर प्रश्न खड़ा करना होगा। यदि आप यह सबसे नहीं कह सकते तो कम से कम अपने आप से कहें। आपका अपने आपको कहना एक दिन सभी से कहने का साहस देगा। बांसुरी की धुन में मोहित हो जाना  सबको भाता है, आपको उससे स्वयं ही निकलना होगा। जिन्हें राष्ट्र से प्रेम होगा, वह निश्यच ही परिश्रमी होगा। अपने परिश्रम के बल पर, नई चीजों का ईजाद कर वह अपने लोगों की जिन्दगी सरल करने की कोशिश करेगा। ऐसे लोग जो आलसी हैं, जिन्हें अपने काम से प्रेम नहीं है। जो बिना काम किए खाना पसन्द करते हैं, जो खटमल और पिस्सुओं की तरह परजीवी रहकर दूसरों के परिश्रम पर जीना पसन्द करते हैं, वह राष्ट्रप्रेमी हो ही नहीं सकते। हमें ऐसे लोगों की पहचान करना होगा। ऐसे लोगों को अपना रक्त देना बंद करना होगा। आपका विश्वास, आपको ही नहीं आपकी पीढ़ियों को भी गलत राह पर खड़ा करेगा, अन्धविश्वासों के पुराने और नये दोनों कलेवरों से बचकर रहने की जरूरत है। आप जब भी ताबीज खरीदते हैं, खुद के साथ अपनी पीढ़ी का भी रिमोट कंट्रोल ताबीजबाजों को दे देते हैं। ताबीज कोई भी हो!
रचना एवं प्रस्तुति: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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6 टिप्‍पणियां:

Er. Pradeip ने कहा…

Behad umda,
Excellent Article

Er. Pradeip ने कहा…

ऐसे लोगों को अपना रक्त देना बंद करना होगा। आपका विश्वास, आपको ही नहीं आपकी पीढ़ियों को भी गलत राह पर खड़ा करेगा, अन्धविश्वासों के पुराने और नये दोनों कलेवरों से बचकर रहने की जरूरत है। आप जब भी ताबीज खरीदते हैं, खुद के साथ अपनी पीढ़ी का भी रिमोट कंट्रोल ताबीजबाजों को दे देते हैं। ताबीज कोई भी हो!

Really Great

सुरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

प्रदीप जी, इस उत्साहवर्धन के लिए आपका सदा ऋणी रहूँगा।

Unknown ने कहा…

Shandar

आपस की बात सुनें ने कहा…

बहुत-बहुत धन्यवाद!

अखिलेश कुमार पटेल ने कहा…

बहुत ही अच्छा लेखन

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