रविवार, अगस्त 25, 2019

शिक्षा के साथ ये क्या हो गया

आप यह लेख पढ़ रहे हैं। इसके लिए आप अपने उस पिता का शुक्रिया अदा कीजिए, जिसने आपको तीसरी आंख दी। हो सकता है, वह आपकी माँ रही हो, या आपका बड़ा भाई या आपकी बड़ी बहन जिसने आपके हाथ में पहली बार कलम रखा फिर आपकी मुट्ठी पर अपने हाथ की पकड़ रखते हुए बेतुका-सा कोई आकर बनवाया। निश्चित तौर पर कह सकता हूँ यह काम आपके किसी सगे-संबंधी ने कराया होगा। कितना अच्छा होता न! यदि वह पल किसी फोटोग्राफ्स के रूप में सुरक्षित होता, जब पहली बार आपने कुछ बेतुका सा आकार बनाया था। यदि आपने यह अपने स्कूल शिक्षक से सीखा हो तो आप उस शिक्षक को ढूंढ़े, और यदि वह इस दुनिया में हों तो जाकर उन्हें शुक्रिया कहिए। उनसे कहिए कि आप ही वह हैं जिसने मुझे संसार के भूत, भविष्य और वर्तमान को देखने में सक्षम नेत्र दिए। 

एक संस्कृति-सी थी कि जब पिता खेत से थका हारा लौटकर शाम को घर आता तो वह अपने बेटों के पास बैठता। उनको वर्णमाला के अक्षर सिखाता। उनसे वर्णमाला के अक्षरों की पहचान कराता। वह सीधी गिनती पूछता तो उल्टी गिनती भी सिखाता। पहाड़े सीधे-सीधे रटवाता तो पौना और अढ़ैया के पहाड़े भी रटवाता। पिता भोर में अपने निजी कामकाज के लिए जागता तो अपने बेटों को भी पढ़ने के लिए जगा देता। आप कह सकते हैं कि यदि इतना सब कुछ था तो फिर पहले साक्षरता दर इतनी कम क्यों थी? उसके कारण अन्य हैं। बेटियों को पढ़ाया नहीं जाता था। स्कूल इतने निकट नहीं होते थे। सड़कों की हालत खराब हुआ करती थी। उच्च शिक्षा इतनी आम नहीं थी। और जिस संस्कृति की बात हो रही है सब उसके अंग नहीं थे। परंतु जिसने उस संस्कृति का निर्वाह किया, उनका परिवार आज शिक्षा के ही माध्यम से अच्छे पायदान पर है।

शिक्षा के महत्व को लोगों ने नकारा नहीं है। इसे स्वीकार किया है। शिक्षा तक उनके बच्चों की पहुँच बन सके, इसके लिए लोग अपनी आय का अधिकांश हिस्सा खर्च भी कर रहे हैं। परंतु ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। और ऐसे लोग भी शिक्षा को खरीदना चाहते हैं, बच्चों को सिखाने में दिलचस्पी कम ही है। बच्चा आवश्यकता से अधिक तनाव और दबाव में है और पिता इतने से इतिश्री मान लेता है कि उसने अपने मेहनत से कमाए हुए पैसों से बच्चों के लिए ट्यूशन किया है, अच्छे स्कूल की व्यवस्था की है। ...खुद से बच्चों को देखने की फुर्सत नहीं है। तर्क यह कि यदि वह यही करने लगे तो फिर कमाए कौन? यह भी कि  जिन स्कूलों में दाखिला दिलाया गया है उनके पाठ्यक्रम का सिखाना उनके बस का नहीं है।  खैर...
वे लोग जो निजी स्कूल की अनुपलब्धता या अन्य कारणों से अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ा रहे हैं (हालात यही हैं कि लोग मजबूरी में ही सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, क्यों? सोचिए।) वे भी अपने बच्चों को बहुत अच्छा बना सकते हैं। प्राथमिक शिक्षा देने में आय आड़े नहीं है, यदि कोई चीज आड़े आती है तो वह है समय प्रबन्धन। यह माना जाना चाहिए कि आज जिनके बच्चे प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने योग्य हैं उनकी इतनी शिक्षा तो हुई है कि वह वर्णमाला के अक्षर पहचान सकते हैं। वे, सुबह-शाम अपने बच्चों के पास स्वयं बैठना पसंद नहीं करते। यह नहीं कि खेत-खलिहान या बिज़नेस व्यापार के कारण समय नहीं है बल्कि वह अपने समय को फिक्स करके रखना नहीं चाहते। उन्हें आजादी पसंद है। वह एक निश्चित समय पर अपने बच्चों के साथ बैठने में गुलामी महसूस करते हैं। उनका गाँव के यार-मित्रों के साथ, या शहर में गुमटियों के संगी-साथियों के साथ बात-व्यवहार छूट जाता है। वह बच्चों को पढ़ाने के लिए भी वैसा ही एक मजदूर ढूंढना पसन्द करते हैं, जैसा कि वह अन्य कार्यों के लिए मजदूर लगा लेते हैं। या फिर वे स्कूल शिक्षक से अपेक्षा करते हैं कि यह सब उनका स्कूल शिक्षक सिखाएगा। इस बात को सोचने में कोई गलती नहीं कि यह सब स्कूल शिक्षक को सिखाया जाना चाहिए किन्तु क्या आप ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना हर जगह करते हैं? और क्या सच में ऐसा होता है? आप खुद के बारे में सोचिए। आपने कैसे पढ़ना सीखा था? तंत्र का विस्तार हुआ है, बदलाव नहीं। सच को स्वीकार कीजिए। 
प्रारंभ की कक्षाओं का महत्व जीवन की शेष किसी भी कक्षा से अतुलनीय रूप से अधिक है। प्रारंभ की कक्षाओं में विद्यार्थी वर्णमाला का ज्ञान सीखते हुए वह भाषायी क्षमता प्राप्त करता है जिससे वह जीवन का शेष ज्ञान पुस्तक पढ़कर सीख सकता है। हास्यास्पद है कि हम जिन विद्यालयों को आदर्श मानकर अपने बच्चों को प्रवेश दिलाते हैं उन विद्यालयों में भी चौथी और पांचवीं पढ़ने वाले दर्जनों विद्यार्थी ऐसे मिल जाएंगे जो ठीक तरह उनकी कक्षा की पुस्तक का धारा प्रवाह वाचन नहीं कर पाते। इसके पीछे दोष किसका है, इसे आप ढूंढते रहिए, किन्तु जरा सोचिए ऐसे बच्चों को क्या केवल शिक्षकों के भरोसे छोड़ा जाना चाहिए? इस बात की सच्चाई को स्वीकार कीजिए कि पढ़ाई में पीछे रहने वाले और बीच में पढ़ाई छोड़ देने के पीछे की असली वजह यही है। सीधा सा तात्पर्य है कि प्रारंभिक कक्षाओं में जब आपका बच्चा होता है तब आपके जीवन की सबसे कठिन चुनौती है। वे साल आपके जीवन की तपस्या के साल हैं, जब आपका बच्चा स्कूल में प्रवेश लेता है। यह नहीं है कि बाद के वर्षों में आपको इस तपस्या से मुक्ति मिल जाएगी। परन्तु बाद के वर्षों में आपकी इस तपस्या में और सहयोगी मिल जाएंगे। यदि आपके बच्चे की प्राथमिक शिक्षा बेहतर है तो कोई संदेह नहीं कि वह बच्चा शिक्षक को प्रिय हो जाएगा। जिसका लाभ शिक्षक के सान्निध्य के रूप में उसे प्राप्त होगा। प्राथमिक शिक्षा के लिए बहुत प्रेम, लगन और धैर्य की आवश्यकता होती है। कागज के  चन्द टुकड़ों की खातिर किसी शिक्षक में ऐसे गुण पैदा नहीं होते। ऐसे शिक्षक भी हैं; परंतु बहुत विरले। शुरुआती दिनों में बच्चों  को बैठाना, बातों-बात में उसे कुछ सिखा देना, गलतियों की अनुमति देना, बच्चों की गलतियों पर मुस्कुरा देना और  बच्चों को बिना डांटे-डपटे उसे सिखाते रहना यह किसी पिता या पिता सा भाव लिए शिक्षक में ही संभव है। 

यह घाव बहुत गहरा है कि छठवीं कक्षा में पढने वाला विद्यार्थी पुस्तक वाचन नहीं कर पाता। साधारण शब्दों को लिख नहीं पाता। हम चाहे किसी शताब्दी में जीने का दम्भ भरते रहें, परंतु समाज में ऐसे बच्चों की स्थिति हमारा मुंह चिढ़ाती रहेगी। यदि आप जागरूक होते, आपके आसपास स्थित किसी विद्यालय में जाते। वहाँ पढ़ रहे बच्चों की इस भाषायी क्षमता का आकलन करते। आप शिक्षकों से इस बात के लिए जिद करते और कहते कि बच्चों की इस कमजोर स्थिति के लिए आप ही नहीं वरन हमारा समाज भी जिम्मेदार है। हमें बताइए हम आपकी मदद कैसे कर सकते हैं। शिक्षा सामुदायिक हो गयी। शिक्षा का लोकव्यापीकरण हो गया। वह सिर्फ इस मायने में कि आपके घर के निकट विद्यालय भवन खड़ा कर दिया गया। यह बात ही मस्तिष्क को आघात पहुंचाने के लिए काफी है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी विद्यालय खोलने की ही जद्दोजहद है। उसके भीतर क्या होना चाहिए, इसकी चिंता करने वाला समाज अभी भारत में नहीं है। ऊपर से बच्चों के नींव को भरने की जिम्मेदारी हम उस शिक्षक पर छोड़ रहे हैं जिसको मध्यान्ह भोजन से लेकर चुनाव कराने तक सारी जिम्मेदारी सरकार ने भी दे रखी है। माना कि आपका बच्चा निजी विद्यालय में अध्ययन कर रहा है, फिर भी शिक्षा सिर्फ शिक्षक के बूते की बात नहीं है। शिक्षक, अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। परंतु क्या आपको शिक्षक के साथ यह संवाद करने की फुर्सत है कि आपके बच्चे को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है? क्या आप शिक्षक से पूछते हैं कि वह कठिनाई कैसे दूर हो। शिक्षकों ने जो कमी की है, उसकी सजा वह पा रहे हैं। आगे बहुत सख्त सजा भुगतेंगे परंतु उनकी गैरजिम्मेदारी की आड़ में हम अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते। जब आप अपने बच्चों का प्रवेश किसी स्कूल में दिला दें तो लगातार देखें कि आपका बच्चा क्या सीख रहा है। क्योंकि इस समय उसे जो सीखना चाहिए उसमें भाषायी ज्ञान प्राप्त करना सबसे महत्वपूर्ण है। उन्हें एक या दो साल में ही ऐसी भाषायी क्षमता प्राप्त करनी है जिसके आधार पर वह आगे की शिक्षा प्राप्त करेंगे। इसमें शिक्षकों के साथ-साथ उनके माता-पिता और अभिभावकों को बहुत सजग और सावधान रहते हुए परिश्रम की आवश्यलता होती है परंतु बहुत से लोग इतना परिश्रम नहीं कर पाते जिसके कारण बच्चों की शिक्षा अधूरी रह जाती है जो पूरे समाज के लिए नई समस्याएं खड़ी करता है। इसीलिए हमने कहा-शिक्षा के साथ ये क्या हो गया! 
(इस विषय में लेखक का पूर्व प्रकशित आलेख प्राथमिक शिक्षा को रामभरोसे न छोड़ें पढ़ने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें )

प्रस्तुति- सुरेन्द्र कुमार पटेल
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4 टिप्‍पणियां:

वीरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

शिक्षा कि दृष्टिकोण से संविधान के प्रस्तावना जितना महत्वपूर्ण यह लेख !बहुत ही सारगर्भित व सटीक भाषा शैली !किसी भी अभिभावक के कर्तव्यबोध के लिए बहुत अच्छा लेख !सभी पिता व अभिभावकों को पढ़ने का अवसर मिलना चाहिए !

सुरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

धन्यवाद वीरेंद्र, संविधान अपने आप में अतुलनीय है। फिर भी आलेख की सार्थकता के समर्थन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

Unknown ने कहा…

आपका प्रयास वो शिक्षा के क्षेत्र में ना केवल अच्छा बल्कि अपने अदभुत इसलिए क्योंकि आप अपनी भूमिका निभाते उसे जीते है । ऐसा करने के लिये आपको धन्यवाद ।लिखे ताकि कोई बदले या ना बदले हम नही बदले यह दुख तो हमे नही होगा ।

सुरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार।

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