राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है,
हम कौन थे, क्या हो गये
हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह
समस्याएं सभी.
इस संसार का सृजन कितना
अद्भुत है, जहाँ हम सब एक साथ एक समय पर इस विशाल विश्व के एक भाग
में मिले हैं. यह विश्व कितना विशाल है, इसकी सीमायें क्या हैं, यह विश्व कब, कैसे
और क्यों बना? इस विश्व में चेतन और अचेतन
के मध्य भेद कैसे पैदा हुआ? अचेतन पदार्थ से चेतन जीव का निर्माण कैसे हुआ? चेतन
और अचेतन में से प्रथम क्या है? किसी चेतन ने विशाल विश्व के अचेतन भाग का निर्माण
किया अथवा अचेतन पदार्थों के मध्य किसी क्रिया-प्रतिक्रिया या सहक्रिया से चेतना का
विकास हुआ? इन आदि प्रश्नों ने मनुष्य में खोजी प्रवृत्ति का विकास किया और मनुष्य
आज भी इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए न
जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है? इन प्रश्नों ने मनुष्य के ज्ञान का न केवल विस्तार
किया बल्कि उसे जीवन जीने की अलग शैली प्रदान की जिसे अलग-अलग सभ्यताओं में अलग-अलग
दर्शन के नाम से जाना जाता है. इन प्रश्नों ने हम सबको जीवन का एक ढांचा प्रदान
किया. इन प्रश्नों को बहुत देर तक अनुत्तरित रखना धैर्य की सीमा को तोड़ देता इसलिए
मनुष्य ने कल्पनाओं-परिकल्पनाओं के माध्यम से इन प्रश्नों के उत्तर गढ़े, और उन
उत्तरों के समानांतर अपने जीवन को चलाना आरम्भ किया. किन्तु कल्पना और परिकल्पना
का निर्माण तो प्रश्नों के उत्तर पाने का त्वरित और क्षणिक प्रयास था. इसलिए यह
उपाय स्थायी नहीं था. आने वाले दिनों में अलग-अलग मस्तिष्कों में इन कल्पनाओं-परिकल्पनाओं
के प्रति विद्रोह-विरोध पैदा हुआ. और इस संसार को समझने का एक अलग प्रयास प्रारंभ
हुआ जिसे आधुनिक भाषा-परिभाषा में विज्ञान कहा गया. इसने कोरी कल्पनाओं को मानने
से इंकार किया. इसने प्रयोगों, प्रेक्षणों और परीक्षणों से सिद्ध ज्ञान को ही
प्रमाणित माना और इसने भी मानव सभ्यता को एक अलग दिशा दी. जीवन का एक नया ढांचा
प्रदान किया. विश्व को एक नई दृष्टि मिली. इसने ज्ञान का एक और नया द्वार खोला.
किन्तु यह नहीं है कि अब दुनिया चुनौतियों से रहित हो गयी है और अब कोई चुनौती
नहीं है. ज्ञान का जितना अधिक विस्फोट होता जा रहा है चुनौतियों के नए-नए क्षेत्र
भी अपना द्वार खोलते जा रहे हैं. ऐसे में इस विशाल विश्व में हमारी भूमिका क्या
हो, हम क्या और कितनी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं इस बात का विचार करना
अवश्यम्भावी हो जाता है. हम विश्व के भाग के रूप में स्वयं को देखें तो हमारी गणना
नगण्य है किन्तु यदि मनुष्य के मानसिक क्षमता को देखें तो केवल एक मस्तिष्क किसी
एक ग्रह के सृजन या विनाश के लिए पर्याप्त है- आज तक के ज्ञान से इतना तो सिद्ध हो
ही गया है. इसलिए यह तय करना बहुत आवश्यक हो गया है कि मानव समुदाय में हमारी
भूमिका पहले से मौजूद चुनौतियों को बढाने में होगी या उन चुनौतियों को कम करने में
होगी. राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इसी बात का आह्वान करते हुए उक्त पंक्तियाँ कही
हैं जिसे आज सभी विज्ञ दोहराते हैं.
साहित्य न केवल व्यवस्थित विचार
का एक माध्यम है बल्कि जनमानस के अंतस्थल में प्रवेश कर सुप्त भावों को जगाने का
भी एक साधन है. इसकी चाहे जितनी विधाएं विकसित हो जाएँ किन्तु उन सभी विधाओं में
एक बात सदा सामान्य रहेगी और वह यह है कि रचनाकार पाठक/दर्शक या श्रोता के
अन्तःस्थल को स्पर्श करेगा और रचना की मांग के अनुसार उसके हृदय अथवा मन को बदल
देगा. साहित्य की यह शक्ति ही उसे सदा-सदा के लिए प्रासंगिक बनाये हुए है. संयुक्त
राष्ट्र ने भी इस बात को स्वीकारा है कि युद्ध का जन्म मस्तिष्क में होता है और
यदि विश्व में स्थायी शांति चाहिए तो मानव के मस्तिष्क पर काम करना होगा. साहित्य
यही काम करता है.
इन्टरनेट की दुनिया ने कई
चीजों को बदला है. साहित्य का क्षेत्र भी उससे अछूता नहीं है. इन्टरनेट की दुनिया
ने मुद्रित साहित्य को हाशिये में धकेलने की
कोशिश की है तो कभी साहित्य का हिस्सा न बन पाने वाले व्यक्तियों को भी
साहित्य सृजन का अवसर प्रदान किया है. इसी अवसर का लाभ उठाने का यह प्रयास था कि ‘आपस
की बात सुनें’ ब्लॉग का आरम्भ हुआ.
पुनः संसार में चाहे जो
चुनौतियाँ या समस्याएं हों उसे परिभाषित करने, ठीक तरह से व्यक्त करने और उसका सटीक
समाधान प्राप्त करने के लिए विचार करने में भाषा का अपना योगदान होता है. भाषा का
जितना और जैसा प्रयोग करेंगे वैसी भाषा हमारे जीवन का हिस्सा बनेगी. हमारी भाषा
जितनी सशक्त होगी हम अपनी समस्या या समाधान को उतना ही युक्तिसंगत रूप में लोगों
तक पहुंचा पाने में सक्षम होंगे. और यह भाषा ही हमें विकास के उन्नत पथ तक ले
जाने का माध्यम बनेगी. अतः साहित्य हमारी
भाषा को समृद्ध करने का एक माध्यम है.
समाज हो या संसार हो, व्याप्त
समस्याओं पर अपनी समझ को प्रस्तुत करना, विचार करना और उसका सुझाव प्रस्तुत करना
हर व्यक्ति का नैतिक कर्तव्य है. कोई भी साहित्यिक मंच इस काम के लिए सबसे आसान
माध्यम है जहां आप विभिन्न विधाओं में से किसी विधा में लोगों का ध्यान आकृष्ट करते हैं. और ऐसा भी नहीं है कि इसकी कोई ताकत नहीं है. इसकी ताकत का अंदाजा इसी
बात से लगाया जा सकता है कि औपनिवेशिक काल में भारत में ही कई-कई साहित्यिकारों के
साहित्य को औपनिवेशिक शासकों ने प्रतिबंधित किया है. और कई सम्राटों ने अपने
गुण-गाथा को जनता तक पहुंचाने के लिए साहित्य सृजन कराया है और यह अतिश्योक्ति
नहीं है कि आज भी ऐसा हो रहा है. इसलिए साहित्य की इस ताकत को देखते हुए सामाजिक
या सांसारिक समस्या के निदान में सहभागी होने के लिए साहित्य रचना का माध्यम चुनना
एक नैतिक कर्तव्य भी है.
जब किसी बात का सामान्यीकरण
होता है तब कुछ समस्याएं उसके साथ आती हैं. साहित्य के साथ भी ऐसा हुआ है. आज
मनोरंजन के इतने साधन उपलब्ध हो गये हैं कि अच्छे स्तरीय साहित्यकार भी यह शिकायत
करते देखे जा सकते हैं कि आजकल साहित्यकारों को पाठक नहीं मिल पा रहे हैं. फिर यह
मंच तो बिल्कुल नया-नवेला था जिसमें सभी पाठक ही हैं और साहित्यकार कोई नहीं. इस
आशंका को मिटाने के लिए कि साहित्यकारों को पाठक नहीं मिलते, ऐसा मंच बनाने का
विचार कौंधा जिसमें समस्त पाठक ही रचनाकार हों और कम से कम एक-दूसरे की रचना को पढ़
सकने का साहस जुटा सकें- इसी से इस ब्लॉग का नाम सूझा-“आपस की बात सुनें”.
ब्लॉग के आरम्भ होने के बाद
जिस प्रकार से आप सभी सुधी पाठकों/साहित्यकारों का साहित्यिक योगदान प्राप्त हुआ,
वह इस ब्लॉग की अपेक्षा से कई गुना अधिक था. बहुत से पाठक स्थायी पाठक बनने लगे थे
और संभवतः उन्हें अगले प्रकाशन की प्रतीक्षा भी रहने लगी थी. आपकी साहित्यिक
रचनाएं इतनी मात्रा में मिलने लगीं थीं कि उन्हें पढना और समय पर प्रकाशित न कर
पाने की कई बार विवशता भी हो जाती थी. आप सबका इस ब्लॉग को भरपूर प्यार, स्नेह और
शुभकामनाएं मिलीं.
इन सब अच्छी बातों के साथ
कुछ चुनौतियाँ भी आयीं जो मानसिक स्तर पर द्वन्द पैदा करती थीं. यह ब्लॉग पूरी तरह
वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ाने और हर तरह के अतिवाद से बचते-बचाते हुए प्रकाशित
करने के लिए संकल्पित है. कुछ रचनाएँ ऐसी भी प्राप्त होती थीं जिन्हें प्रकाशित
करना इस ब्लॉग के उद्देश्यों के अनुरूप नहीं था. ऐसे में स्पष्टता के साथ विरोध
करने से व्यक्तिगत व्यवहार पर आंच आने का खतरा था तो लंबित रखने से अपने कर्तव्य
के प्रति बेपरवाह होने का.
इस बीच महामारी ने अपनी
दस्तक दी. हालांकि महामारी के प्रथम वर्ष में इसका प्रकाशन सुचारू रूप से संचालित
रहा. बल्कि सभी साहित्यकारों और सुधी पाठकों ने इस साहित्यिक योगदान के माध्यम से
बहुत कुछ बीमारी के भय को दूर करने, जनजागरूकता फैलाने में सफलता भी पायी है. इसी
मध्य कुछ सक्रिय और सुविज्ञ मार्गदर्शकों ने इस मंच पर अपना योगदान ‘काव्यमय
पर्यावरण महोत्सव’ भी साझा किया. यह ब्लॉग उन सभी मार्गदर्शकों एवं सहभागियों के
प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता है. महामारी के दूसरे चक्र ने अथवा मेरे आलस्य ने
अवश्य इस ब्लॉग को क्षति पहुचाई जिसका हृदय की अनंत-अनंत गहराई से खेद है.
आप सभी ने इस ब्लॉग की
आवश्यकता को महसूस कराया है. और इसी से इसके पुनः प्रकाशन का साहस हो पाया है, यह ब्लॉग आपसे और अधिक आशा, विश्वास, उत्साह, स्नेह और शुभकामनाओं का आग्रही होकर पुनः आपके समक्ष प्रस्तुत है.
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