मनोज कुमार चंद्रवंशी की रचनाएं


1)    मत काट मुझे

हे!   मनुज    मत    काट     मुझे,
मुझे   भी     कसक    होता    है।
इस   निर्ममता   की   वेदना   से,
मेरा     हृदय    भी      रोता   है॥
मत काट मुझे।

मैं   वारिद   को    आकृष्ट    कर,
वसुधा   में    पावस    लाता   हूँ।
धरा    का    तपन      हर    कर,
चराचर को आह्लादित  करता हूँ॥
मत काट मुझे।

मैं चारू सुमन  सरस  फल  देकर,
मैं  किसी  से कुछ  नहीं  लेता  हूँ।
महि   के     प्राणी    जीवन   को,
निज  गोद   में  आश्रय  देता  हूँ॥
मत काट मुझे।

मैं   इस   धरती    का   श्रृंगार  हूँ,
सब  जीव  धारियों का आधार हूँ।
मैं      मधुप     का     रसपान  हूँ,
विहग     के    कलरव     तान हूँ॥
मत काट मुझे।

सकल जग को प्रमुदित  करता हूँ,
धरा   में      हरीतिमा     लाता हूँ।
अवनी      से        अंबर     तक,
मंद,  सुगंध  प्राणवायु  बहाता हूँ॥
मत काट मुझे।

प्रदूषण   को    अवशोषित   कर,
पर्यावरण को संतुलित बनाता हूँ।
मृदा    अपरदन    को   रोककर,
मैं  जग  में  पादप  कहलाता  हूँ॥
मत काट मुझे।
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2)    "प्रकृति की एक झलक"

प्रकृतिक  के    सकल  जड़,  चेतन,
अनुपम,  मनोहरी,  सुहृद   दृश्य   हैं।
मानव  के  कुकृत्य,  विश्वासघात  से
सकल  चराचर   हो  रहे   अदृश्य  हैं ॥

मृदा,   इला,   जल,   शुचि     समीर,
हर   प्राणी   को   करते   आकृष्ट  हैं।
मानव  कानन  को  निर्वनीकरण कर,
महिमामंडित धरा को कर रहा नष्ट है॥

धरती  माँ  की  हृदय  चलनी हो गई,
मानव  जनित निर्मम गतिविधियों से।
मृदा   अपरदन    चरम   सीमा   पर,
कृषि    नवाचार    के    विधियों  से॥

जैव   प्रजातियां  विस्थापित  हो  गए,
सदाबहार  वन  हो  गए अति  कंटीले।
जैव  पारिस्थितिक   तंत्र    संकटमय,
मनोरम  हरित   पादप  हो   गए पीले॥

विरासत   पशु    विलुप्त  हो   रहें   हैं,
सजीवों    का     जीवन    संकटग्रस्त।
निर्जीवों  का  जीवन  चरम  सीमा पर,
मानव प्रहार से  प्रकृतिक अति त्रस्त॥

सरिता, सरोवर   शुचि  जल   शून्यमय,
जलीय जीवों  का   जीवन  अति  कष्ट।
थलचर  जीव   कालकवलित   हो  रहे ,
अनवरत  सकल  जीव  हो रहे   विनष्ट॥

प्राकृतिक   संपदा  के  अति   दोहन से,
सतत   बढ़     रहा     है    ऊष्मीकरण।
पतित पावन सी धरा  बंजर  हो  रही  है,
विनष्ट   हो   रहा   मृदा   का उर्वीकरण॥

शुचि   समीर  हो   गई   अति   जहरीली,
मानव  निज  कर्मों    का  विषपान  करो।
हे!  मानव  धरा  में  जीवित  रहना  है तो,
तरु रोपित कर प्रकृति का गुणगान करो॥

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3)    "आओ वृक्ष लगाएँ"

हम  सब  का  पुनीत  कर्तव्य है,
आओ सब मिलकर वृक्ष लगाएँ ।
हरा  भरा  सब  जग   को   करें,
धरती  माँ   को खुशहाल बनाएँ॥

प्राकृतिक  संपदा  संरक्षित  करें,
हर मानव जाति का स्वधर्म यही।
तन   समर्पित    मन     समर्पित,
वन्यजीवों पर  दया  सुकर्म यही॥

वृक्ष  आवरण  सर्वत्र  वसुधा  में,
जल,नीर,जंगल धरा के  उपहार।
संवृत्य  वातावरण भव्यमय  हो,
वृक्ष  रोपण   जीवन  का   सार॥

प्राकृतिक  हृदय  जीव   आवास,
प्राकृतिक सौंदर्य अजब, निराली।
निज  स्वार्थ  को  परित्याग  कर,
वृक्ष  रोपित  कर लायें खुशहाली॥

अब प्राकृतिक कंपित हो उठी है,
धरती   के   निर्मम   हत्यारों  से।
प्राकृतिक  में   संदूषण बढ़ गया,
निर्वनीकरण  के  अत्याचारों से॥

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4)    प्रकृति के गोद में

अनेक मानव सभ्यताएं विकसित हुईं,
प्राकृति  की   इस   अनुपम  गोद  से।
निर्जन   वन   में    ज्ञानार्जन     हुआ,
प्राकृति  के  भव्य  मनोहरी प्रमोद से॥

प्राकृतिक अति  रमणीय, म नमोहक,
जहां ज्ञान, विज्ञान का अभ्युदय हुआ।
प्राकृतिक  के    मिट्टी   कण-कण  में,
दुर्लभ मानव  तन का भाग्योदय हुआ॥

प्राकृति  के   स्वच्छंद   वातावरण   में,
मानव  अतीव  अपार  खुशियां पाया।
मानव  निज  भौतिकवादी अरमान में,
प्राकृति के फेफड़ा को विकृत बनाया॥

प्राकृति की ममतामयी गोद में संतों  ने,
निज  जीवन   का   तपस्थली  बनाया।
विमूढ़  मानव  प्रकृति  को  विनष्ट  कर,
उर्वर  भूमि    को    मरुभूमि   बनाया॥

प्राकृतिक   को   हरित  करने  के लिए,
हर   मानव  के  हृदय   में  संकल्प  हो।
इस धरा में  हरीतिमा विकीर्ण  के लिए,
एक-एक  वृक्ष  रोपित  का विकल्प हो॥
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5)
प्राकृतिक  धरोहर को संरक्षित करें,
आओ वन्यजीवों को आरक्षित करें
आओ वैज्ञानिक दृष्टिकोणअपनाएँ।
आओ खेत के मेड़ों में  वृक्ष लगाएँ॥

हर वस्तुएं प्राकृति का उत्तम कृति,
यह दृश्य मानव हाथों का  विकृति।
प्रकृति   का संरक्षण  करना होगा,
प्राकृतिवादी   हमें   बनना   होगा॥

सब   वन्यजीव  कर   रहे  पुकार,
हम पर अनावश्यक न करो प्रहार।
स्वच्छंद  हमें में विचरण करने दो,
हमें प्राकृतिक में   खुशी भरने दो॥

नदी,   सरोवर,  झील,और झरना,
हमें    इनका  है   संरक्षण करना।
आओ  धरती   को   स्वर्ग  बनाएँ,
यथार्थवादी  दृष्टिकोण  अपनाएँ॥

त्याग करें  भौतिकवादी  अरमान,
हम सब करें  प्रकृति  का सम्मान।
एक    वृक्ष     सौ    पुत्र    समान,
सबको होना चाहिए इसका ज्ञान॥

एक    कदम   सब     गए  हैं,
आमजन में जागरूकता फैलाएँ।
मिलकर  एक - एक  वृक्ष लगाएँ,
पर्यावरण  को   संतुलित  बनाएँ॥
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6)
धरती  माँ   कर  रही  पुकार,
अब   मुझे  ना   करो   प्रहार।
तरु से   मुझको   करो बहार,
सब  जीवों  को दूंगी सत्कार॥
एक  कदम  तुम  आगे आओ,
एक -  एक सब  वृक्ष लगाओ।
मेरे गोद में हरियाली फैलाओ,
रक्षित  उपायों  को अपनाओ॥
ध्यान  से  मेरी  बातों  को सुन,
वृक्षों   को   मत   काटो   तुम।
वृक्षों  को  भी कसक होता  है,
दर्द से  उनके भी दिल रोता है॥
अब   तुम  मेरा  मानो  कहना,
सभी   वृक्ष    है   मेरे   गहना।
बंजर   मत     बनाओ    मुझे,
हमेशा   आश्रय  देती हूँ  तुझे॥

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7)

धरती माँ की आंचल,अजब अकथ  निराली है।
अवनी से  अंबर तक, अपने  आँचल  डाली है॥

धरती माँ  के आंचल में, सुमन  खिले  बहुरंगी।
धरती माँ  के उपवन में, कुसुम  दिखे  सतरंगी॥

धरती मां हरा आँचल ओढ़े,  दिखती है  सुंदर।
धरती मां के पग धुले, अगम,  अथाह  समंदर॥

धरती माँ  की  भाल  सोहे,   हिम  श्रृंगार  करे।
जगत के कानन, विटप,  सुंदर  शंखनाद  करें॥

वक्ष स्थल पर  कल-कल, करती हैं  निर्झरिणी।
अति मनभावन धरा की,करते  महिमा  वर्णित॥

मलय गिरि धरती माँ  की, कानन कुंडल सोहे।
धरा के उत्तर दिशि में, तुंग श्रृंग अति मन मोहे॥

धरती माँ पीली चीर पहने, तुषार हैं सुंदर गहने।
उत्तर दिशा सप्तगिरि श्रृंखला, सहोदर हैं बहने॥

झुरमुट तरू, लता, बेल, धरती माँ  की सखियाँ।
धरा की अद्भुत सौंदर्य से, तृप्त नहीं हैं अखियाँ॥

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इस भीषण तपन से खग, मृग को जल की प्यास है।
धरा के  सभी प्राणियों को जीवंत की  आस  है॥

हम सब निशदिन पर्यावरण पर आश्रित  रहतें हैं।
पशु, पक्षी, कीट, पतंगे निशदिन  पर आश्रित रहतें हैं॥

भोजन देना, पानी देना हम सबका स्वाभाव है।
गर्मी की इस तपन से अन्न, जल का   अभाव   है॥

पशु पक्षी और चौपाया भोजन पानी से खुश  होंगे।
यदि ऐसा नहीं हुई व्यवस्था तो वो अपनी जीवन दे देंगे॥

जीव जंतु, पादप जगत के लिए   जल    करें  प्रयास।
धरती मां की और पशु, पक्षियों जल से दूर होगा प्यास॥

मेरा सब से अपील है।
मनोज कुमार चंद्रवंशी🙏

8)*
शुभ संध्या की बेला में *

कानन तरु मदमस्त खड़े हैं,
अटल, स्थिर, जोर   जड़े  हैं।
दृष्टिपात   प्रमुदित  स्व चित् ,
रमणीय दृश्य   कानन नित॥

तरु  हमसे  कुछ कह रहे हैं,
मिश्रित   वायु   बह  रहे  हैं।
नदियां कल - कल करती हैं
पल - पल दुख को हरती हैं॥

शुभ   संध्या  की   मुस्कान,
अब   चाहे  चले    तूफान।
सब प्राणी   करें    आराम,
कानन  का  करें   बखान॥

पर्यावरण  के  प्रति   निष्ठा,
प्रकृति   का  बढ़े   प्रतिष्ठा।
वृक्षों  को  हम  रोपित करें,
शिशु  समान  पोषित  करें॥

वृक्ष प्रकृति प्रदत्त उपहार हैं,
तरु   ही जीवन   के  सार हैं।
नैन जल    से   सिंचित  करें,
विटप    को   पुष्पित    करें॥

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9)
जल है तो कल है, जीवन सफल है,
जल के बिना,  जीवन   निष्फल  है।
आओ  हम  जल  से  कुछ   सीखें,
जल  के  संबंध    में   कुछ   लिखें॥

जल   कल - कल कर बहती  है,
हमसे  सचमुच  कुछ   कहती है।
जल  में जीवन  गान की  स्वर   है,
जल इस धरा की साक्षात ईश्वर  है॥

जल   की निज  तीव्र   प्रवाह   है,
जल  शाश्वत, अगम, अथाह   है।
यदि हमें  इस  धरा  में   रहना  है,
जल की सुजल धारा में बहना है॥

जल   है   इस   जीवन  की आस,
जल    संरक्षण   का  करें  प्रयास।
हमें इस पर्यावरण को जल रक्षित कर सजाना है,
जल,जंगल जमीन  का संरक्षण अपनाना  है॥
आओ हम प्रकृति वादी दृष्टिकोण अपनाएँ,
पर्यावरण संरक्षण में जीवन को तपाएँ।
प्रकृति प्रदत्त हर तत्व  हमारे भगवान हैं,
इस धरा के सकल प्राणी का  समाया जान है॥


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10)     प्रकृति की हरियाली

धरा सर्वत्र हरित दृष्टिगोचर हो रहा है।
तरु झूम  रहे हैं  मदमस्त  हवाओं  में॥
मानो विटप  खुशियों  से  नाच रहे हैं।
हर्ष  से  जग के  चारों  दिशाओं   में॥

सरसराती  पादप  पत्तों  की  आवाज।
मानो  तरु  सुख  का गीत  गा  रहे  हैं॥
लता, बेल तरु के टहनियों में लिपटे हैं।
मानो  परस्पर सभी गला  लगा  रहे हैं॥

मारुत मंद,  सुगंध  सर्वत्र  बह रहे है।
खुशियों की कलियां कुछ कह रहे हैं॥
पौधों में  खिलते  सुमन की मुस्कान।
गोधूलि बेरा में ललिमा है आसमान॥

नीलांबर  परिधान  ओढ़ी  है धरती।
मानो हृदय से पुलक प्रकट करती है॥
भौंरे गुंजन कर रहे हैं पुष्प सतह पर।
मानो खग गाते है ॠतु के खुशी पर॥

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11)
हरियाली  लाएं इस  धरती में,
विविध मनमोहक वृक्ष लगाएं।
दृष्टिगोचर कर सुंदर पौधों को,
सबका  चित्  तत्र  रम  जाए।।

वृक्ष  हैं  निज  सखा  हमारे,
अपनी गोद में आश्रय देते हैं।
चारु सुमन सरस फल देकर,
हमसे कुछ भी  नहीं लेते हैं।।

शुचि   समीर  हमको  देकर,
कार्बन  ग्रहण   कर  लेते  हैं।
मंद सुगंध धरा में बहकर कर,
निज स्वास कसक हर लेते हैं।।

पुलकित होती है धरती माता,
मेरे  आंचल  में  हरियाली है।
मनभावन तरु,द्रुम के कारण,
सकल जगत में खुशहाली है।।

आओ  एक- एक  वृक्ष लगाएं,
इस धरती को स्वर्ग बनाना है।
सब  हंसते, गाते, धूम मचाते,
इस उत्सव को सफल बनाना है।।

मनोज कुमार चंद्रवंशी
पुष्प राजगढ़ (अनूपपुर)
प्राकृतिक  धरोहर को संरक्षित करें,
आओ वन्यजीवों को आरक्षित करें।
आओ वैज्ञानिक दृष्टिकोणअपनाएँ,
आओ खेत के मेड़ों में  वृक्ष लगाएँ॥

हर वस्तुएं  प्रकृति  की उत्तम कृति,
यह दृश्य मानव हाथों  का विकृति।
आओ   प्रकृति  का  संरक्षण  करें,
प्रकृतिवादी  को   अनुसरण   करें॥

सब   वन्यजीव  कर   रहे   पुकार,
हम पर अनावश्यक न करो प्रहार।
स्वच्छंद  हमें में विचरण  करने दो,
हमें  प्रकृतिक  में   खुशी भरने दो॥

नदी,  सरोवर,  झील, और  झरना,
हमें    इनका  है   संरक्षण  करना।
आओ  धरती     को  स्वर्ग  बनाएँ,
यथार्थवादी   दृष्टिकोण   अपनाएँ॥

त्याग  करें  भौतिकवादी  अरमान,
हम  सब करें  प्रकृति  का सम्मान।
एक    वृक्ष     सौ    पुत्र    समान,
सबको होना चाहिए इसका ज्ञान॥

एक    कदम    सब   आगे   आएं
आमजन में  जागरूकता  फैलाएँ।
मिलकर  एक - एक   वृक्ष  लगाएँ,
पर्यावरण  को    संतुलित   बनाएँ॥

 विश्व पर्यावरण दिवस पर समर्पित

    रचना
 मनोज कुमार चंद्रवंशी
विकासखंड पुष्पराजगढ़
    जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश
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