बुधवार, जून 10, 2020

घृणा रस: रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)


 घृणा रस    
 -रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)
                                           
ये उन दिनों की जुगुप्साएँ हैं
   जब सड़े दाँतों से पित्त और नाकफाड़ दुर्गंध आ रही थी
जब गोबर के चोंथ को सारे बदन में घिसे जा रहे थे
   शरीर को धारदार दराती से
और गरम सबरी से छेदा जा रहा था
   मृत जानवरों के हाड़ और माँस किसी नुकीली औजारों से
अलग की जा रही थी
   और चर-चर की मधुर धुन बजाई जा रही थी।
आँखों के कीचरों और कान के खूँटियों को
   नमकीन सम खाये जा रहे थे
पोट्टी पर थूथन लगाकर हलवा के सम
   चाव से भरे जा रहे थे
गोबर और पानी को मथकर
   पूरे शरीर को नहलाकर पवित्र की जा रही थी
और भरपेट पिया जा रहा था।
   बड़े-बड़े कारखानों से भड़-भड़, खड़-खड़ की मधुर आवाजें
मन को और ही आनंद देती
   तो कभी झण्डू बामों से सिर को जलाया जाता था
कभी कटे और जले पर नमक
   तो कभी सूखी हड्डी में करण्ट
कभी मुँह की सड़न तो
   कभी नक्की का ना खत्म होने वाला बेमिसाल स्वाद
लाजवाब पाया जाता था
   मल-मूतर को चीनी और पानी का घोल चढ़ाकर
शरबत सम पिये जा रहे थे
   तो कभी ‘‘फुस्किन्ना’’ दुर्गंधों से पूरे प्लॉट को महकाया जा रहा था
सभी इसी चाव में मस्त और व्यस्त
   गोबर की रोटियाँ और सड़े कद्दुओं की सब्जी खाने में जुड़े रहते तो
कभी विस्तरों से आने वाली दुर्गंध और खून चूसने वाले खटमलों के संग
   जीना लाजवाब ही था
टूटे हाथ को और तोड़ देना
   सूजे हुये पैरों को जंग जगी सुई से छेदकर
टिटनेस को आमंत्रित करना
   आनंद बन चुकी थी।
अजीर्ण भोजनों में अधपके दानों के चेहरे और
   उन उल्टियों में कुछ जल का छिछला हिस्सा
रसगुल्ले की सीरे की तरह मन को ललचा देता
   तो कभी खट्टी डकार को न्येता देता।
कभी पोट्टी पर मक्खियों की भनभनाहट
   तो कभी पेचिश की पतली धार
कभी बरसात में पानी भरा गोबरों का फैलाव
   मन को रस देता।
ईख और शक्करों से सने मिठाईयों की चिपचिपाहट
   हाथों की शोभा बढ़ाते तो कहीं सूखे गले को तेज करते।
मरे साँपों की माला
   और केंचुओं से बनी सेवईयाँ
तो कहीं जहरीले काले बिच्छुओं को
   शरीर में दौड़ाने से अथाह आनंद ही मिल जाता था।
कटे हाथों से आरती दिखाकर स्वागत
   और बिना जल के भरपूर उत्पादन तो देखते ही नहीं बनता था
सच, यह जुगुप्सा बड़ा ही आनंददायक था।

  -रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)
  



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