1.
//आईना//
कितना सहज है आईना होना।कितना सहज है जो पाया वही लौटाना।
मगर कब तक, जब तक,
हर बार, घर से जाते, घर पर आते।
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
वे जाते हैं दूर-दूर,
वे बताना चाहते हैं कि वे कितने
उजले हैं, चेहरों में कितनी दमक है।
उन्हें अटूट भरोसा है मुझपर,
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
फिर, बहुत दूर निकल जाते हैं एक शाम,
और रात के अंधेरे में गिर पड़ते हैं।
किसी गन्दी जगह,
हर रोज फिर गिरते ही रहते हैं।
वे कोशिश करते हैं कि मिट जाएं,
सारे सुबूत गिरने-पड़ने के,
निर्मल जलाभिषेक के बाद ,
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
मगर एक कोने में बचा रह जाता है दाग,
वे धुलते हैं विशेष प्रकार के रसायन से,
मगर नहीं जाता वह दाग,
अब सिर्फ चेहरा नहीं, मुझे धोने के बाद
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
मगर फिर भी जब नहीं जाता,
अंधेरे का लगा वह दाग,
तब पटक दिया जाता हूँ फर्श पर पूरी ताकत से,
कई टुकड़ों में बिखरकर भी करता रहता हूँ अपना काम।
हर टुकड़ा उन्हें आईना नजर आता है, जो
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
समेटकर डाल दिया जाता हूँ कूड़ेदान में अब।
अब बेवफा हो गया हूँ मैं,
अब वे नहीं देखते मुझमें चेहरा अपना, जो
मुझमें साफ-स्वच्छ छवि देखते थे लोग।।
2.
//रिक्ति//
उन्होंने कहा, अब भोर नहीं होगा।नहीं मिटेगा जीवन का अंधेरा।
कभी नहीं भर पाएगी,
उनके जाने से बनी रिक्ति।।
मैंने अपने कमरे के एक कोने से
भरी एक मुट्ठी हवा,
और देखता रहा उस सूनेपन को
पास के एक पोखर से
निकाल लाया एक मटका पानी
और निहारता रहा देर तक खाली जगह
फिर दिन के घने उजास में,
चुराया एक मुट्ठी धूप
और देखता रहा धूप से खाली हुए खालीपन को।
दौड़ पड़ी थी कमरे भर की हवा,
पोखर के पानी ने भर दिया मटके भर की जगह
मुट्ठी के चारों ओर लिपटी थी धूप!
काश! यह जीवन भी वैसा ही होता।
मगर यहाँ लोग दूर और दूर होते गए।
पहले से बड़ी हो गयी रिक्ति
जिसके एक छोर पर मैं हूँ
दूसरे छोर पर उसका एहसास।
और बीच में कोई नहीं।।
3.
//दीया//
कितना सही है दीया होना,जिसके हिस्से में है तेल और बाती।
तेल जिससे भरता हूँ खुद को
और मुक्त रखता हूँ बाती का एक सिरा
जलने के लिए लौ के साथ
क्या इतना आसान होता है
खुद को चुकाना।
अपने ही अंग को जलने के लिए उन्मुक्त करना
लड़ना उन आंधियों से
जो प्रकाश विरोधी हैं,
जिनका मकसद है सिर्फ खाक करना
बचकर कभी इधर, कभी उधर
पैर भी नहीं हैं कि कहीं जाऊं चलकर
लड़ता हूँ उस घने अंधेरे से
जो आ घेरने को आतुर है
मंद होते ही मेरे
सहता रहता हूँ अपना ही ताप
और उफ्फ! तक नहीं करता
कभी विचलित नहीं होता कि
मिलता नहीं मुझे मेरा प्रकाश
मेरा जीवन तो वैसा ही है
जैसे नदियां, वृक्ष और बादल
मानव भी है प्रकृति का एक अंग
काश! वह भी दीया होता
भूलकर अपना ताप
तम और केवल तम हरता।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग में प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आईडी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें