सुनो ...अ!
हम मिलेंगे एक बार जरूर,
बुढापे में लकड़ी लेकर,
आऊंगा मैं तुमसे मिलने...
जानती हो क्यों?
क्योंकि उस समय,
कोई बंदिशें नहीं होंगी।
ना तुम्हारे ऊपर ,ना मेरे ऊपर
वो दौर भी कैसा होगा!
कितना सुन्दर कितना खुशहाल,
ना किसी का डर होगा,
ना कोई दायरा।
तुम आओगी ना मुझसे मिलने ?
आँखों पर मोटा-सा चश्मा होगा,
उस चश्मे से निहारूंगा,
तुम्हारी आंखो की शरारत को।
तुम रख देना सर अपना,
हौले से मेरे कंधे पर।
मैं संवार दूंगा तुम्हारी जुल्फों को,
अपने झुर्री पड़े...कोमल हाथों से..!
सुनो तुम...
एक सपना देखा हैं मैंने भी,
आखिर सपने देखना भी तो,
तुमने ही सिखाया...
कहो ना !...
तुम मुकम्मल करोगे ना ?
मेरे इस सपने को ..!
मैं छूना नहीं चाहता तुम्हें....
बस हवाओं की हर पुरवाई में,
महसूस करना चाहता हूँ,
बेहद करीब से...
तुम्हारे सुवास में,
अपने अहसास को।
ईश्वर की प्रार्थना की तरह,
बोलो ना !!
आओगे ना तुम मुझसे मिलने...
अंततः
अनवरत
अंतहीन
अन्वी
#प्रतीक्षा_में_प्रेम
#शुभ
काव्य रचना: सुबोध झारिया,जबलपुर
[इस ब्लॉग में प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें। अपनी रचनाएं हमें whatsapp नंबर 8982161035 या ईमेल आईडी akbs980@gmail.com पर भेजें,देखें नियमावली ]
हम मिलेंगे एक बार जरूर,
बुढापे में लकड़ी लेकर,
आऊंगा मैं तुमसे मिलने...
जानती हो क्यों?
क्योंकि उस समय,
कोई बंदिशें नहीं होंगी।
ना तुम्हारे ऊपर ,ना मेरे ऊपर
वो दौर भी कैसा होगा!
कितना सुन्दर कितना खुशहाल,
ना किसी का डर होगा,
ना कोई दायरा।
तुम आओगी ना मुझसे मिलने ?
आँखों पर मोटा-सा चश्मा होगा,
उस चश्मे से निहारूंगा,
तुम्हारी आंखो की शरारत को।
तुम रख देना सर अपना,
हौले से मेरे कंधे पर।
मैं संवार दूंगा तुम्हारी जुल्फों को,
अपने झुर्री पड़े...कोमल हाथों से..!
सुनो तुम...
एक सपना देखा हैं मैंने भी,
आखिर सपने देखना भी तो,
तुमने ही सिखाया...
कहो ना !...
तुम मुकम्मल करोगे ना ?
मेरे इस सपने को ..!
मैं छूना नहीं चाहता तुम्हें....
बस हवाओं की हर पुरवाई में,
महसूस करना चाहता हूँ,
बेहद करीब से...
तुम्हारे सुवास में,
अपने अहसास को।
ईश्वर की प्रार्थना की तरह,
बोलो ना !!
आओगे ना तुम मुझसे मिलने...
अंततः
अनवरत
अंतहीन
अन्वी
#प्रतीक्षा_में_प्रेम
#शुभ
काव्य रचना: सुबोध झारिया,जबलपुर
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