बुधवार, अक्टूबर 09, 2019

क्या धरती से जावे की तैयारी है:कविता


क्या धरती से जावे की तैयारी है

नाहक वृक्ष काट रहे,
क्या धरती से जावे की तैयारी है।
जीवन को कर कैद कह रहे
विकासवाद की बीमारी है।

सीधा-सीधा जीवन जीना,
क्या यह नहीं जरूरी है।
मुफत में मिलत प्राणवायु,
क्या खरीदन की मजबूरी है?

वृक्ष काट एक जगह ते, 
दूजो जगह नवपौध तो लगा लोगे।
पर चिड़िया और चुनूगुन के,
क्या उनको संसार बसा लोगे?

एक वृक्ष, वृक्ष होत नहीं,
एक वृक्ष में कइयन के संसार समावत है।
एक वृक्ष में बैठ पपीहा और कोयलिया,
आपन-आपन सुख-दुख गावत है।

मिटा-मिटा मिट्टी के घर,
पहाड़ कंक्रीट के खड़ा कर्यो है।
काट-काट ललाट पहाड़न के,
पत्थर पीस-पीस आपन छत डर्यो है।

मुट्ठीभर लोगों के चंगुल में, 
है जंगल समूल नष्ट करावे की।
मेट्रो ट्रेन तो  प्रपंच बन्यो,
असली मकसद वो नहीं बतावेगी।

ये कैसा जनतंत्र बना है,
जो कम लोगन के बात तो मानत है।
अधिसंख्य जनों की छाती में चढ़ के,
अंधेरे में, अंधेरी में वन ढहावत है।

मन खिन्न हो जात जवै,
मानव जंगल कै भागत है।
बैठ बोधिवृक्ष तै नीचे,
सिद्धार्थ बुद्ध बन जावत है।

वृष्टि हुई कहीं भयानक, सूखा
भी भारत में ही क्यों आन पड्यो है।
ग्लेशियर के ढह जाने से, 
प्रकृति कुपित मानव से जान पड्यो है।

मानव जन्मा वन बीच,
और सभ्यता विस्तारी है।
जिस डाल पर बैठा है,
चलाई उसी पर आरी है।

क्या मछली, पानी से हो विलग,
धरती  में रहने की कर रही तैयारी है।
फिर मानव को ही निजनिवास,
उजाड़ने की क्या लाचारी है।


वन्य जीव नहीं न्यारे, अपने
धरती पर जीवन के सहचर हैं।
हमने किया किनारा  वन से,
कभी के तो हम भी वनचर हैं।

खुली आँखन ते वन का महात्म,
हमें क्यों न दिखाई देवत है।
पाऊच में भरकर पियत पानी,
पाउच के ऑक्सीजन सेवत है।

बड़ेन को छोड़ दें, उनकी चाँद पर 
इच्छा करने की सवारी है।
मगर सिवा धरती के न कहीं
और वृक्षन की  यारी है।

नाहक वृक्ष काट रहे,
क्या धरती से जावे की तैयारी है।
जीवन को कर कैद कह रहे
विकासवाद की बीमारी है।

रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल

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