शुक्रवार, अक्टूबर 11, 2019

कटोरा:कहानी





 कटोरा

आसमान में बादल छाए हुए हैं। सर्द हवाएं चल रही हैं। महेश ने चूल्हे में ज्यों चिंगारी डाली, खपरैल से टप से पानी टपका और चिंगारी बुझ गयी। महेश को लगा कोई  अनहोनी हो गयी नीचे आया, मुँह से कपड़ा हटाकर देखा; रधिया की सांसें चल रहीं थी। रधिया ने कहा," बाबा!" महेश के जी में जी आया। पड़ोस से आग लाने के लिए खपरा लेने वह फिर अटारी पर चढ़ा तो सीढ़ियों पर घुटनों ने जैसे जवाब दे दिया। एक हाथ से घुटना और दूजे हाथ से कमर को सहारा देकर ज्यों झुका, आंखों से नीर बह निकला! हृदय में विवशता की एक टीस उठी जिसे वह आँसू पोंछते हुए जब्त कर गया।

महेश  और रधिया ! बस दो प्राणी! और 10 कमरों का मकान! उस पर चार मूड़ बैल! सुबह-शाम इन्हीं बैलों को चारा-पानी देना और बीच-बीच में रधिया को झांक लेना महेश  की नियति बन गयी है। घर की हालत कुछ ठीक नहीं है। सोचा थाबेटों के लिए मकान बना रहे तो अच्छा। दो मकान बनवाये। एक में ऊपर नीचे मिलाकर चार कमरे हैं और दूसरे में ऊपर-नीचे मिलाकर छः। कभी साल में एकाध बार ही समूचे मकान में झाड़ू लग पाता है। पुताई का ध्यान नहीं। पीछे जो बरामदा हैउसमें परमानैंट अंगीठी बनी हुई है। दो-चार सालों के राख के ढेर पड़े हैं!

बीते साल से महेश  कहीं नहीं जाता। इसके पहले जब रधिया स्वस्थ थीवह घर की छांव न दाबता। सुबह बैलों को चारा देता और निकल जाता ताश खेलने। इस पर रधिया चिल्लाती,"अकेली,  मैं घर में बंधी रहूं और तुम झुंड में ठट्ठा मारकर हँसो। ये मुझसे न होगा। मेरे मत्थे सिंगटट बैल पानी पियेंगे।" इस पर महेश  ढीठ की हंसी हँसता और कहता,"राँड़तो मैं क्या करूंघर में खूँटा बनकर पड़ा रहूँ। तुम पड़ी रहो घर में।" मोहल्ले के बडों और बच्चों के लिए यह रोज के विनोद का विषय था। वे इसे अधिक गंभीरता से न लेते। रधिया बेचारी दूर जाते महेश  को देखते रहती और जब वह ओझल हो जाता तो मन मारकर उसी घर में चली आती जिस घर में वह कभी दुल्हन बनकर आयी थी और  जिस घर में उसने  5 बेटियों और दो लालों को जन्मा था!

घर आकर वह अपने ही घर में जैसे अपनों की आवाज को तलाशती आंगन में पहुंचकर ठिठक जाती। सुनने की कोशिश करती काश! घर के भीतर से  बच्चों की आवाज सुनाई दे-दे! कोई दादी-दादी कहकर आये और लिपट जाये। परन्तु किसी की आवाज नहीं आती। कुछ देर तक आंगन के एक कोने में बैठे रहती। फिर विचार आता कि बाबा तो टाइम से लौटेगा नहीं। बेचारे बैल प्यास से मर जायेंगे। वह बाल्टी उठाती और चल पड़ती कुएँ की ओर। पूरा भरा बाल्टी वह नहीं खींच पाती इसलिए एक छोटी  बाल्टी से पानी चार-छह बार खींचती फिर बाल्टी भर जाने के बाद वह बैलों को पिलाने ले आती। ऐसा करते दोपहर हो जाती फिर अरहर की सरकंडियों को जलाकर खाना पकाती। यद्यपि महेश  दो-तीन बजे से पहले वापस घर कभी नहीं आता फिर भी वह पड़ोस के बच्चों से पूछती रहती,"बाबाआया?" बच्चे  उसे चिढाकर आनंदित होते और कहते बाबा चला गया। अब नहीं आएगा। इस पर रधिया खीझती  और बच्चों को मारने को कहती। बच्चेभाग लेते।

पिछले दो सालों से वह महेश  को बाबा कहकर ही पुकारती    है।

पिछले साल एक दिन वह बैलों के लिए पानी भरने कुएँ पर गयी थी। गलती से उसने छोटी  बाल्टी की जगह बड़ी बाल्टी फांस ली थी। यों तो बाल्टी बहुत बड़ी न थीपरंतु पानी भरी बाल्टी पाट के ऊपर खींच लेने का  सामर्थ्य उसमें न था। ज्यादा जोर लगाकर बाल्टी पाट के ऊपर लाने की कोशिश में संतुलन बिगड़ गया और उसका पाँव पाट पर फिसल गया। वह कमर के बल भरी बाल्टी गिरी जिससे कमर की हड्डी टूट गयी। तब महेश घर पर नहीं था। लोगों की मदद से उसे उसके घर में लाकर बरामदे में लिटा दिया गया। गाँव गुहार हुआ कि रधिया कुएँ में गिर गयी। महेश  को भी यही सुनाई पड़ा। वह   घबराया। उसके जीवन का सहारा उठ गया। रधिया की डाँट याद आयी। उसका झगड़ना याद आया। इतने बड़े घर में वह अकेला कैसे दिन-रात काटेगागाली ही देती थीपर मुँह भर बोल तो लेते थे। अब वह सहारा भी नहीं रहा। ताश की गड्डियां वहीं फेंककर भागा। घर पहुँचकर देखा ओसारे में रधिया बिछी पड़ी है। पता लगावह कुएँ में नहीं गिरी। कुएँ के पाट में बाहर गिरी। उसके जान में जान आयी। जीने का सहारा शेष है। डरकर पूछा," ज्यादा लगा तो नहीं?" आशंका के विपरीत रधिया ने कमर में अपना हाथ धरकर दर्द होने का इशारा किया। आज रधिया बिगड़ी नहीं।  महेश की  आँखों का नैराश्य तीव्र आशा में बदल गया। मानो वर्षों पूर्व खोई हुयी कोई मूल्यवान वस्तु मिल गयी हो। जब इंसान सब कुछ खोने की आशंका कर चुका होता हैतब जितना शेष रह जाता है उसमें ही सम्पूर्णता का सुख तलाशता  है। महेश  को विश्वास था कि मामूली दर्द होगा जो हल्दी और सरसों का गुनगुना लेप लगा देने से ठीक हो जाएगा। उस रोज रधिया ने महेश को ताश खेलने का कोई उलाहना नहीं दिया। महेश  इसी हैरत में था कि रधिया ने आज उसे गरियाया क्यों नहीं। उसे क्या पता था कि रधिया ने अपना अध्याय पूरा कर लिया है। बची हुई जिंदगी वह यह देखने के लिए जिएगी कि वह अपनी आंखों से देख सके कि वह अपने दो जून के खाने के लिए खाना पकाना सीख गया है कि नहीं।
  
थोड़ी देर में भीड़ छंट गयी। सभी को लगा कि रधिया को मामूली धक्का लगा हैसो वह  कुछ दिन में ठीक हो जाएगी। किसी ने बहुत गंभीरता से न लिया। सब अपने-अपने घर चले गए।

महेश  ने रधिया से पूछा," बेटों को खबर कर दूं?" रधिया ने हाथ हिलाकर कहा,"रहने दो। बेचारे नाहक में चिंता करेंगे।" और खबर न करने दिया।

रधिया के पहले की संतानों में केवल बेटियां हुईं थीं। जिनमें से दो अल्पायु में ही भगवान को प्यारी हो गईं। तीन बेटियां बचीं रहीं जो ब्याहता होकर अपने-अपने ससुराल रहने लगीं थीं। इन बेटियों के बाद बहुत दिनों तक कोई संतान न हुआ था। महेश और रधिया को चिंता हुई। बहुत से वैदगुनी को दिखाया। मन्नतें मांगीं। देवदर्शन किये। फिर एक अंतराल पर दो बेटों ने जन्म लिया। बहुत धूम-धाम से बरहों और पसनी मनाया गया। दोनों लालों को महेश और रधिया ने राजकुमार की तरह पाला। किसान होते हुए भी कभी जबरन खेत में न भेजा। जो कपड़े अच्छे-अच्छे कर्मचारी अपने लड़कों को खरीद कर न पहना सकेवैसा कपड़ा महेश और रधिया ने पहनाया। खूब  साबुन-तेल लगाने को देते। मजाल क्या कि उनके बच्चे किसी से पौना पड़ेंखिलाने-पिलानेपहनाने-ओढ़ाने और पढ़ाने मेंमहेश रधिया ने कोई कंजूसी न की।

पहला लड़का पढ़कर इंजीनियर हो गया। प्रारम्भ के एक दो सालों तक वह घर का ध्यान रखता रहा। फिर पीछे से छोटे भाई की भी खाद्य निरीक्षक के पद पर सरकारी नौकरी मिल गई। दोनों को नौकरी घर से दूर मिली। परन्तु दूरी इतनी भी न थी कि चलते तो  उसी रोज  घर न पहुंच जाते बल्कि सबेरा होने से  पहले अपनी नौकरी वाले जगह भी पहुंच जाते।

उनकी पत्नियों  ने पतियों का लगाम अपनी-अपनी ओर खींचना प्रारम्भ किया। "अजी!तुम्हीं बार-बार जाते रहोगेया अपने भाई को भी थोड़ा-बहुत सेवा का अवसर दोगे?" दोनों बहुएं कुशल गृहिणी थीं। जानती थीं कि मां-बाप से मिलने गए तो कुछ न कुछ लुटाकर आएंगेइसलिए अपने पतियों के घर जाने पर भांजी मारती रहतीं। सो दोनों बेटों का घर आना-जाना कम हुआफिर लगभग न के बराबर हो गया।
जब हफ्ता भरके बाद भी कमर दर्द ठीक न हुआ और रधिया खुद चलने में सक्षम न हुई तो महेश का माथा ठनका।
उसने एक बार फिर पूछा,"लड़को को खबर कर दूँ?" 
"नाहक क्यों परेशान करोगे?"
"इसमें परेशानी की क्या बात है। सूचित न करूँ तो कलके मुझे कहने लगेंगे कि बताया नहीं।"
"जैसी तुम्हारी मर्जीपर बिस्तर पर पड़े रहने की बात न कहना।"
महेश ने बारी-बारी से दोनों बेटों को खबर की। पहले तो बेटों ने महेश पर झल्लाया कि उसने व्यर्थ बैलों को बांध रखा है। बेच क्यों नहीं देता। उन्हीं की सेवकाई में मां कुएँ पर गिरी।...फिर तत्काल न आने का बहाना। पत्नियों ने अपने-अपने पतियों को ढांढस बँधाया  कि वह नहीं जाएंगे तो कोई  पहाड़ नहीं टूट जाएगा। आखिर दूसरा बेटा भी तो है; कुछ वह भी करे।

आखिरकारदोनों बेटे बारी-बारी से आये और हजार-पाँच सौ देकर देख जाने की औपचारिकता पूरी कर गए। रधिया की हालत तब जैसी थी अब भी वैसी ही है। लेकिन बेटों ने जैसे उसे विधि का विधान मानकर स्वीकार कर लिया है। फिर हाकिम-मुलाजिमों को सरकारी चाकरी में इतनी छुट्टी कहाँ मिलती है कि वह मां-बाप की सेवा कर सकें। देशसेवा से बढ़कर माँ-बाप की सेवा थोड़े न है! यह नहीं कि महेश ने अपने बेटों की रधिया की हालत नहीं बताई पर बेटों को फुर्सत नहीं मिली।

पिछले सप्ताह भर से रधिया दर्द में जैसे अचेत सी हो गयी है। इसके पहले उसने कई बार बेटों और नातियों से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। जिस पर किसी न किसी बहाने से बेटे आने से मना करते रहे। वैसे भी  बेटों के संबंध में महेश और रधिया दोनों निरपेक्ष भाव रखते। कभी आने का जबरिया आग्रह न करते। ऊपर से कहते देखो लड़कों-बच्चों की पढ़ाई का नुकसान न हो। कभी अपनी समस्या न बताते। फोन से जब भी बात करते तो कुशलक्षेम पूछ लेते और अपनी कोई समस्या न कहते। पर रधिया की विदा की बेला में महेश चाहता कि रधिया अपने पुत्र-पौत्रों को कम से कम एकबार जी  भरके देख ले।

इसीलिए पिछले सप्ताह फ़ोन से  सूचित करवाया था कि सब कोई आकर मां को देख लें। वह भी सबको देख लेगी। इस पर वही रटा-रटाया जवाब कि अभी माँ को कुछ नहीं होगा। अगले पखवाड़े तक में वह छुट्टी लेकर आएंगे। वह भी दोनों बेटों में से किसी ने परिवार को लाने की बात नहीं स्वीकारी। महेश बेटों की निष्ठुरता समझ गया। वह समझ गया कि जितने दिनों तक साथ हैवही साथ दे सकता है।

इस सप्ताह वह लगभग चेतनाशून्य हो गई है। बस दर्द के आधिक्य में ही कराहती है और तब मात्र एक शब्द निकलता है, "बाबाबाबा!" पिछले दो सालों से उसका महेश के लिए यही सम्बोधन है। वह अपना मुंह उसके मुंह के पास ले जाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुएकहता है,"हाँबोल।" उसके बाद कंठ अपने आप रुंध जाता।

पड़ोस से लाए हुए आग से  उसने  चूल्हा जलाने की कोशिश की किंतु नम सर्द हवाओं के कारण चिंगारी आग नहीं बन पाती।  जब  महेश  ने लैंप बनाने की  शीशी में रखा केरोसीन चूल्हे में  फूंका  तब कहीं जाकर चूल्हे में आग लगी।

महेश के पेट में अचानक से दर्द उठा। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि यह दर्द किस कारण है। रधिया के अंतिम समय में भी बेटों के न आने की टीस थीरधिया के बिछोह का दर्द था या कई-कई दिनों से आधा पेट रह जाने का जलन। वह पेट को पकड़कर दर्द को हाथों से समेटने की कोशिश करता। जब रधिया दर्द में बाबा कहकर पुकारती तो उसके  रसोई घर  तक आवाज नहीं पहुंच पाती और इसीलिए वह खाना बनाना बीच में छोड़कर रधिया के कमरे में आता। झांकताउसकी साँसे चलता देख वह भी संतोष की सांस लेता।  फिर रसोई घर में खाना बनाने चला जाता।

किसी तरह खाना बना। मगर हवाएं बहुत तेज चलने लगीं थीं। अन्धाघुप्प अंधेरा था। बस बीच-बीच में वैसे ही बिजलियाँ चमकतीं जैसे रधिया बीच-बीच में कराहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती। जबसे रधिया बिस्तर लीकिसी रोज ऐसा न हुआ कि महेश रधिया का मुंह जूठा किये बगैर खा ले। 

महेश ने थाली में अपने लिए भोजन परोसा। भोजन क्या था चावल और दाल का अधपका मिश्रण था। उसी थाली में एक कटोरे  में रधिया के लिए भी दाल-भात का तरल मिश्रण बनाकर रख लिया। वह इसी कटोरी से रधिया का मुंह जूठा कर दिया करता फिर खुद थाली में परोसा गया भोजन कर लेता। 

हाथ में भोजन का कटोरा लिए महेश ने हमेशा की ही तरह रधिया के मुंह से कपड़ा हटाने की कोशिश की और कहा-ले खाना खा ले।परन्तु रधिया के मुंह से इस बार बाबा! शब्द नहीं निकला! महेश को नहीं पता कि उसने अपने हाथ से कटोरा नीचे रखा  या हाथ से छूटकर कटोरा गिर गया!  मगर... इस खबर की सूचना पाते ही मां की मृत्यु के दुख में दौड़े-भागे आयेरोते-बिलखते बहुओं और बेटों ने खाने का कटोरा वहाँ पाकर यही संतोष किया  कि चलो अच्छा हुआ माताजी खाते-पीते मर गयींकिसी का आश्रयी  तो न हुयी।महेश पहले की तरह सभी को बस निरपेक्ष भाव से देखता रहा!
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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