सूरज के बहाने
अनन्त ताप का स्वामी,है अनन्त जिसकी आभा।
अगणित जन जिसके दरबारी,
होती है जिसकी अनन्त सभा।
स्वयं केंद्र बिंदु है जो,
है जो पथिकों का ठहराव।
है जो सतत स्रोत शक्ति का
वह भी ढूढें क्या स्वयं प्रभाव?
हम धरती के लघु जन,
चलती जिस पर सत्ता।
पंकज है जिसका अनुगामी
और अनुगामी है पत्ता-पत्ता।
जीवन की जननी तुम हो,
डोर तुम्हीं बांधे हो जीवन की।
संसार की श्वास तुम्हीं हो,
और तुम्हीं हो मालिक इसके टूटन की।
अनन्त काल से ग्रह, नक्षत्र और तारे,
जिस परिधि की कर रहे परिक्रमा।
क्या कुपित भयंकर इतना होगा,
क्या उसका मन भी डोलेगा भयसा।
देखो कद अपना और शक्ति भी,
देखो कितना ऊंचा सिंहासन है।
बदलेगा कालचक्र और ऋतुएँ बदलेंगी,
क्योंकि यह तो तुम्हारा ही अनुशासन है।
टूट रहा ये अनुशासन तुमसे,
त्राहि-त्राहि मची है धरती में।
तुम ताप बढ़ाते क्यों जाते हो,
फिर क्या कद्र रहेगी इस जगती में।
यद्यपि जीवन दीर्घ तुम्हारा,
पर मत भूलो हम ही जलअर्घ्य चढ़ाते हैं।
देखो, धरती ही तुमको सिर धरती,
शाम ढले प्रभाव शेष नहीं रह जाते हैं।
तुम हो सूरज इनकार किसे,
पर पीठ किये तो छाया है।
ताप प्रभाव की भी सीमा है,
वरना बादल की भी तो माया है!
है जो सतत स्रोत शक्ति का
वह भी ढूढें क्या स्वयं प्रभाव?
हम धरती के लघु जन,
चलती जिस पर सत्ता।
पंकज है जिसका अनुगामी
और अनुगामी है पत्ता-पत्ता।
जीवन की जननी तुम हो,
डोर तुम्हीं बांधे हो जीवन की।
संसार की श्वास तुम्हीं हो,
और तुम्हीं हो मालिक इसके टूटन की।
अनन्त काल से ग्रह, नक्षत्र और तारे,
जिस परिधि की कर रहे परिक्रमा।
क्या कुपित भयंकर इतना होगा,
क्या उसका मन भी डोलेगा भयसा।
देखो कद अपना और शक्ति भी,
देखो कितना ऊंचा सिंहासन है।
बदलेगा कालचक्र और ऋतुएँ बदलेंगी,
क्योंकि यह तो तुम्हारा ही अनुशासन है।
टूट रहा ये अनुशासन तुमसे,
त्राहि-त्राहि मची है धरती में।
तुम ताप बढ़ाते क्यों जाते हो,
फिर क्या कद्र रहेगी इस जगती में।
यद्यपि जीवन दीर्घ तुम्हारा,
पर मत भूलो हम ही जलअर्घ्य चढ़ाते हैं।
देखो, धरती ही तुमको सिर धरती,
शाम ढले प्रभाव शेष नहीं रह जाते हैं।
तुम हो सूरज इनकार किसे,
पर पीठ किये तो छाया है।
ताप प्रभाव की भी सीमा है,
वरना बादल की भी तो माया है!
कर्तव्य मार्ग से विचलित हो,
ऊष्णता इतनी बरसाते हो।
ऊष्णता इतनी बरसाते हो।
सहज, सरल स्वभाव जन की,
भीतर इनके वैमनस्य भाव उकसाते हो।
अभी-अभी तो क्षितिज पटल पर,
शीतल-शीतल थी दहकती तेरी काया।
धरा के शीश मुकुट तक आते-आते,
तुमने अपना रौद्र रूप यों दिखलाया।
भीतर इनके वैमनस्य भाव उकसाते हो।
अभी-अभी तो क्षितिज पटल पर,
शीतल-शीतल थी दहकती तेरी काया।
धरा के शीश मुकुट तक आते-आते,
तुमने अपना रौद्र रूप यों दिखलाया।
अपेक्षाओं पर थी जिनकी किलकारी,
शोषक बन उनको तुमने बिलखाया।
चला तेज पुंज प्रभाव मारीचि का,
धरती के जन-जनको झुलसाया।
यह गौरव जो तुम्हें मिला,
तुम धरती के रहे अति नियरे।
वैसे तो शून्य में सूर्य बहुत हैं,
हम जिनको कहते हैं तारे।
ग्रह, उपग्रह हैं अति लघुरूप
नहीं तुलना विशाल देह से तेरी।
सौरगगन के मुखिया हो तो,
ग्रह,उपग्रह से समान नेह हो तेरी।
हे! सूर्य तुम्हीं बतलाओ,
क्या नेताओं के घर आते-जाते हो?
सूर्योदय पर तो न तपते,
अग्निबाण सिंहासन पाते ही बरसाते हो।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
शोषक बन उनको तुमने बिलखाया।
चला तेज पुंज प्रभाव मारीचि का,
धरती के जन-जनको झुलसाया।
यह गौरव जो तुम्हें मिला,
तुम धरती के रहे अति नियरे।
वैसे तो शून्य में सूर्य बहुत हैं,
हम जिनको कहते हैं तारे।
ग्रह, उपग्रह हैं अति लघुरूप
नहीं तुलना विशाल देह से तेरी।
सौरगगन के मुखिया हो तो,
ग्रह,उपग्रह से समान नेह हो तेरी।
हे! सूर्य तुम्हीं बतलाओ,
क्या नेताओं के घर आते-जाते हो?
सूर्योदय पर तो न तपते,
अग्निबाण सिंहासन पाते ही बरसाते हो।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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4 टिप्पणियां:
अति सुंदर रचना।
आप बहुत अच्छे गोतखोर हैं। आप विचारों की गहराई से इतने सुन्दर मोती खोज कर निकाल कर लाये हैं। अति सुंदर रचना👍🏼
रचनाकार की रचना को सराहने का आप दोनों का बहुत-बहुत धन्यवाद। रचनाकार को जरूर इससे नई रचना के लिए प्रेरणा मिलेगी।
बहुत ही सुन्दर रचना...
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