श्रमिक की अंतर्व्यथा
हौसला बुलंद कर,निकले थे हम गाँव से।
काफिला
निकलक,आग बरसाती
छाँव से।
बहुत गुरुर
था इन लम्बे सडको को,
मेरे हौसले
ने नापा,राह नंगे
पाँव से ॥
मिटी नहीं
गरीबी,गलियारों
में चर्चाएं हैं,
गरीब भूखा
न सोये,सडको में
चर्चाएं हैं।
क्यों
मूक-बधिर हो;व्यथा पर
ऐ!शुभचिंतको,
घर की
छप्पर और दवाओं में खर्चाये हैं॥
जिनके
अनमोल श्रमो से,संसार
सुशोभित होता है।
देदी अपनी
प्राण धरा में,अब
कुटुंब-कबीला रोता है।
निजकर्म
में मिटनेवाला;मजदूर
हुआअब जीने को,
बाधाओं से
लड़नेवाला,अब बाँध के
गठरी ढोता है ॥
ठण्ड से
कपकपाता,भूख को खुद
भूल जाता।
कैसी है
पराधीनता,आँखों में
उड़ धूल जाता।
मातृभूमि
का मान बढ़ाने,श्रम साधक
बन जाता।
साहित्य
सजाने के खातिर,श्रमिक
लिखा ही जाता॥
मजदुर लिया
है लोहा,भवनों और
कारखानों से।
श्रमिकों
की दर्द पूंछ लो,अबआंधीऔर
तुफानो से।
मेरी मेहनत
का इतिहास लिखा है,सिर्फ
पन्नो में,
दुनिया की
मैं दर्द सहा,कुछ पता
करो धनवानों से॥
रचना-डी.ए.प्रकाश खांडे
शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़ जिला अनुपपुर मध्यप्रदेश मो 9111819182
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