रविवार, सितंबर 08, 2019

कल्पनाशीलता:सृजन का आधार

सुरेन्द्र कुमार पटेल जिन बच्चों का रुदन थामने के लिए जल से भरे थाल में चाॅंद भेंट किया गया था, वही बच्चे आज चांद को धरती पर उतारने का काम कर रहे हैं। जो बच्चे घर में खाली पड़े सिरिंज से खेल-खेल में पेड़-पौधों को इंजेक्शन दे रहे थे, वही बच्चे बड़े होकर डाॅक्टरी कर रहे हैं। लिखने की एक  बत्ती के बदले कोरे कागज का आदान-प्रदान करने वाला बच्चा बड़ा होकर व्यापारी बन जाता है। दो सगे भाइयों को पक्षी की तरह हवा में उड़ने का खयाल आता है और समूची दुनिया को हवा में उड़ने का सामर्थ्य  मिल  जाता है।

हम जिस घर में रहते हैं उसकी एक-एक वस्तु पर दृष्टि डालें तो पता लगेगा हरेक वस्तु किसी न किसी की कल्पना का परिणाम है। आपकी वैसी स्थिति जिस रूप में आप आज हैं, वह किसी की कल्पना का ही परिणाम हैं। संसार में जितने आविष्कार हुए, जितना तकनीकी विकास हुआ जो भी राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आया वह किसी न किसी के चिन्तन का परिणाम है। सुई से लेकर हवाई जहाज तक और ग्रामसभा से लेकर संसद तक जो भी आज है वह सदैव से नहीं था। वह सदैव से नहीं था क्योंकि उसके पूर्व किसी ने कल्पना नहीं की थी। जब किसी ने इसकी कल्पना की तो उसका मूर्त रूप भी आज हमारे सामने है। बिजली के बल्ब के आविष्कार के पहले वह किसी की कल्पना का ही हिस्सा था, मगर आज वह मूर्त रूप में है। थोड़ी देर के लिए आप ठहर जाएं और यह कल्पना करें कि मानव की इस कल्पना शक्ति ने संसार को क्या से क्या बना दिया!

आशा है मानव की कल्पनाशक्ति के चमत्कार से आप अब तक प्रभावित हुए बिना नहीं होंगे। परन्तु आप जरा ठहर कर सोचिए, क्या हम हमेशा कल्पनाशील होते हैं? क्या ऐसा नहीं है कि हम जिस व्यवस्था में रह जाते हैं फिर उसे बदलने की कल्पना करने के बजाय हम उसमें रम जाते हैं! ऐसा होता है न? अक्सर ऐसा होता है। वहीं, उन्हीं परिस्थितियों में कोई नया आदमी आता है वह अपनी कल्पनाशक्ति के बल पर उस व्यवस्था के बदलाव के संबंध में नया विचार दे जाता है। हम उसे स्वीकार करें या न करें, परन्तु मानव की जो कल्पनाशक्ति है वह अपना काम करती है। हम उसका आदर करने के बजाय भले ही उसका अनादर कर दें, परन्तु नया आदमी नयी कल्पनाएं करने से रुकता नहीं है! सच तो यह है कि हमें उसकी कल्पनाशक्ति का आदर करना चाहिए।

आप सोच रहे होंगे कि हमारे  अकेले के सोचने से क्या होगा? इसे आप जादू समझ लीजिए कि मुझे पता है आप फिलहाॅल यही सोच रहे हैं। यह संसार हमारी कल्पना का परिणाम है परन्तु केवल किसी एक की  कल्पना का परिणाम नहीं है बल्कि इसमें रहने वाले हरेक की सामूहिक कल्पना का परिणाम है। इस संसार को रचने में हमारा आनुपातिक योगदान है। जितनी मात्रा में हमने इस संसार को जिस रूप में अपने चिन्तन से समृ़द्ध किया है हमें उतनी मात्रा में यह संसार अपनाा लगता है। शेष के बारे में हममें नीरसता है। शेष संसार हमारे लिए व्यर्थ है। शेष संसार से हमारा कुछ प्रत्यक्ष लेना-देना दिखाई नहीं पड़ता। 

हम जो थोड़ा-बहुत चिन्तन करते हैं, उसके कारण हम थोड़ा-बहुत व्यवस्था को प्रभावित कर पाते हैं। यदि हमारा चिन्तन और अधिक होता तो हम व्यवस्था को और अधिक प्रभावित कर पाते। एक बड़ा वर्ग, सदियों से सिर्फ इस चिन्तन में रहा कि उसे दो वक्त का पूरा भोजन  कैसे मिले, और आप उसके संसार को उसकी दृष्टि से देखिए उसका संसार उतने तक ही सीमित है। यह बात लिखना भीतर तक क्षुब्ध करता है। मगर यही सच्चाई है। दूसरे वर्गों को देख लीजिए उसकी कल्पना, उसका चिन्तन देखिए और व्यवस्था में उसका प्रभाव देखिए। यह किसी जाति या वर्ग तक सीमित नहीं है। बात परम्परा की है। जब तक आपका चिन्तन, आपकी कल्पना सिर्फ रोटी तक सीमित होगी, आपको सिर्फ रोटी मिलेगी। वह कोई भी हो सकता है। किसी भी जाति या किसी भी वर्ग का हो सकता है। सवाल जाति का नहीं, चिन्तन या कल्पनाशक्ति का है। 

आयुवर्ग के हिसाब से देखें तो बचपन का संसार सिर्फ कल्पनाओं का संसार होता है। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है उसकी कल्पना के अंश छूटते जाते हैं। कल्पना के इन अंशों का छूटना अभिभावक को सुकून देता है। किन्तु हम यह नहीं जान पाते कि उसकी कल्पना के छूटने के साथ ही संसार को रचने की उसकी कई संभावनाएं भी छूटती जाती हैं। यही कारण है कि बचपन में सपने ज्यादा आते हैं जबकि जैसे-जैसे बड़ा होते जाते हैं, इसकी मात्रा घटती जाती है। संसार की कोई भी कला, संसार का कोई भी व्यवसाय, संसार का कोई भी ज्ञान, संसार का कोई भी आविष्कार कल्पना के बिना संभव नहीं है। कल्पना, हमारे होंठ हैं जिनके खुलने के बाद ही शब्द आकार लेते हैं। कल्पना वह गंगोत्री है जिससे गंगा का उद्भव होता है। फिर भी, हम बच्चों को कल्पनाशील होते देख उन्हें झकझोर देते हैं। हम परेशान हो जाते हैं। उनकी कल्पनाओं में विघ्न पैदा करते हैं। यही हाल हम युवा वर्ग के साथ भी करते हैं। उसे कल्पना में खोया देखकर उसको हास्य का पात्र बनाते हैं, मजाक उड़ाते हैं। आग्रह है कि कल्पना को समझें, उसका आदर करें और हो सके तो उसे मूर्त रूप देने में सहयोग करें। यह नई बात नहीं है। अखबार में ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं जिसमें 12 वर्ष का कोई बालक किसी कम्पनी का संस्थापक बना हुआ दिखाया जाता है जिसकी कमाई करोड़ों में होती है। यह वह बालक होता है जिसकी कल्पना को समझा गया होता है, जिसका आदर किया गया होता है।

यदि इस बात को गहराई से समझ लिया जाए तो बहुत-सी समस्याओं का हल निकल सकता है। इसे छोटे और बड़े दोनों ही स्तरों में आप आजमा कर देख सकते हैं। आप जिस व्यवस्था का अंग हैं चाहे वह घर हो, दुकान हो, आॅफिस हो, समाज हो, प्रशासनिक या राजनैतिक व्यवस्था हो, उसमें आपकी कल्पनाशीलता की आवश्यकता है। हो सकता है आपकी खुद की कोई समस्या हो। आप जो उसमें रम गए हैं उससे बाहर निकलकर समस्याओं पर पुनर्विचार कीजिए। नये सिरे से चिन्तन करें। आपकी कल्पनाशीलता आपको समस्या का नया राह सुझाएगी। न चलना आपकी मर्जी है, परन्तु आपको नई राह मिलेगी।   
यह क्यों जरूरी है? हम छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर जड़ हो गए हैं। कल्पनाशीलता के अभाव ने सारे रास्ते बंद कर दिए हैं। जिसे आप संभावना कहते हैं, उसका जन्म कल्पना से ही होता है। आप बिना कुछ चिन्तन किए नई संभावना नहीं तलाश सकते। हमारे एक बड़े वर्ग ने एक जमाने से राजनैतिक चिन्तन बन्द कर दिया जिसके दुष्परिणामस्वरूप वह पीढ़ी दर पीढ़ी राजनैतिक और प्रशासनिक प्रतिनिधित्व से वंचित रहा। केवल गीत और कविताएं लिखने के लिए कल्पना में डूबना जरूरी नहीं है बल्कि किसी वैज्ञानिक सिद्वान्त की स्थापना में भी किसी परिकल्पना में डूबकी लगाना पड़ता है। तकनीक के विकास में भी कल्पनाओं का ही योगदान है। चाइनीज वस्तुओं से हमारा बाजार पटा पड़ा है। आपके दैनिक जीवन में काम आने वाली ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसे चाइना आपको बनाकर नहीं देता। आपके भगवान की प्रतिमाएं तक वह आपकी कल्पना के अनुरूप गढ़कर देता है। आपकी छोटी-छोटी समस्याओं की वह कल्पना करता है, उसे सरल करने का वह कोई वस्तु देता है। आप न चाहते हुए भी उसे खरीदते हैं। बदले में चाइना महाशक्ति बना हुआ है। जापान तकनीक के मामले में अव्वल है क्योंकि वह मानव समस्याओं के सभी पहलुओं के तकनीकी निराकरण की कल्पना करता है और उसे मूर्त रूप देता है।

कल्पना कैसे करें? हमारी कल्पना अधूरी नहीं होनी चाहिए। हम किसी समस्या के केवल एक पक्ष पर कल्पना करके कुछ हासिल नहीं कर सकते। बल्कि हम समस्या के समाधान तक पहुंचने की कल्पना करें। ऐसी कल्पना तभी संभव है जब हम स्वयं को चिन्तन करने के लिए समय दे पाएं। 
ऐसा हम कैसे कर सकते हैं? इसके लिए हमें स्वयं को समय देना होगा। अक्सर हम स्वयं को समय नहीं दे पाते। हमारा जो स्वयं का समय होता है, उसे हम टीवी देखकर या सोशलमीडिया के फेक न्यूज को फाॅरवर्ड करने में व्यतीत कर देते हैं। हम बिल्कुल अकेले में बैठें। हमारे भीतर से आने वाले विचारों को आने  और जाने दें। इस क्रम में जब हमारा चित्त स्थिर हो जाता है हमें कोई नया विचार दे जाता है। यदि हम उस पर विश्वास के साथ काम कर सकें, वह कल्पनाशीलता एक नया सृजन पैदा करती है। कई बार एकांत में बैठने की आवश्यकता नहीं होती, हमारे समस्या की तीव्रता हमें नया विचार सुझाने पर बाध्य करती है। खैर, प्रकिया महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है कल्पनाशीलता को समझने देना और उसका आदर करना। कल्पना में हम डूबें, कब, कैसे? यह कम महत्व का है।
केवल चिन्तनशील मस्तिष्क ही सदैव उर्वर बना रह सकता है। सदियों से जिस मस्तिष्क ने सीमित दायरे में चिन्तन किया हो, उसका अचानक से चिन्तनशील हो जाना असंभाव्य तो नहीं परंतु अधिक श्रमसाध्य जरूर है। प्रयासपूर्वक ही चिन्तनशील बनाया जा सकता है। इसका जो स्वाभाविक प्रवाह है, वह सदियों से बाधित है। यह बाधाएं भी निरन्तर चिन्तन से ही टूटेंगी। इन बाधाओं को किसने पैदा किया, यह विचार का अलग विषय है। किन्तु एक बड़े वर्ग की  कल्पनाशीलता का अभाव या इसे उचित महत्व न दिए जाने से अब तक देश का बहुत नुकसान हो चुका है अन्यथा भारत वास्तव में ही विश्वगुरु होता!

रचना एवं प्रस्तुति: सुरेन्द्र कुमार पटेल
[इस ब्लॉग पर प्रकाशित रचनाएँ नियमित रूप से अपने व्हाट्सएप पर प्राप्त करने तथा ब्लॉग के संबंध में अपनी राय व्यक्त करने हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें] 

1 टिप्पणी:

वीरेन्द्र कुमार पटेल ने कहा…

सब को कल्पना करनी चाहिए क्योंकी जो कुछ हमारे चारो ओर भूदृश्यावली है वह भी किसी न किसी कि कल्पना का साकार रूप है !साथ ही वो जो कल्पनाये पुरानी है यदि कल्पना करें कि उनमें रंग चढ़ जाये तो भी हमारे चारो ओर खूबसूरत संसार हो !उस संसार के प्रति मन में मोह हो !आपकी सहभागिता से कोई भी जो कुरूप है खूबसूरत हो सकता है और उसके प्रति अपनापन पैदा हो जाता है !इसीलिए जहाँ भी संभव है अपने हक़ कि जिम्मेदारी का हमें निर्वहन करनी चाहिए !हमेश यह सोचने कि जरूरत नहीं है कि इसकी शुरुआत पहले से कोई किया है कि नहीं !लेख बहुत अच्छा है !वैज्ञानिक सोच को प्रसारित करने वाला है !नई प्रौद्योगिकी व कुशल जनसंख्या ही पृथ्वी के संसाधन का दोहन कर खुशहाल व सक्षम समाज का निर्माण कर सकते है !आभार !

तनावमुक्त जीवन कैसे जियें?

तनावमुक्त जीवन कैसेजियें? तनावमुक्त जीवन आज हर किसी का सपना बनकर रह गया है. आज हर कोई अपने जीवन का ऐसा विकास चाहता है जिसमें उसे कम से कम ...