लगाय के फ़ोन,
हाल हम जब पूछेन।
मसकत रहैं भात सकारे,
बिन तरकारी, बस छूछेंन।।
कविराज जी आपन और
अपने घर कर हाल सुनावा।
या लॉकडाउन माहीं,
आपन दैनंदिन कह सुनावा।।
कविराज जी जब हाल,
घर भीतर केर सुनामै लागिन।
मार फफक-फफक कर,
बिचारे रोमैं लागिन।।
घरवाली का जो छींकी आवै,
ओही मां दोष हमार लगउती हैं।
जो हम छींकेन थोरकौ,
कोरोना-कोरोना कह डरवउती हैं।।
कहती हैं हार-संसार भर,
तुमहिन तो बगत्या हा।
जानी काखे-काखे संगे,
चिपके रहत्या हा।।
जो हमरे घर मांही भा कोरोना,
ऐसा हुड़क सुनउती हैं।
नींक-सूख आदमी का,
कोरोना कर अकड़ देखउती हैं।।
थमाय देति हैं झाड़ू ,
ओसार पूर साफ करवउती हैं।
जो खांसेन ता दांत निपोर
केजरीवाल बतउती हैं।।
खाली देय न बइठय,
तरकारी कटवउती हैं।
जन्मन केर ओढ़ना लत्ता,
निकार-निकार धूलवउती हैं।।
रोज सकारे गरम पानी,
खूब पिलवउती हैं।
चाय, मांहीं अदरक हल्दी,
नमकौ रोज मिलउती हैं।।
गौमूत पीयें का सीख,
हमरे ऊपर अजमउती हैं।
ना-नुकुर जो हम कीन्हेंन,
मठाधीसेन कर उदाहरण बतउती हैं। ।
छींकीं के नीकी से हमार,
नींक-सूख अजमउती हैं।
जो खांस्या कवि महाशय
घर-बाहर करैं का धमकउती हैं।।
हर छींकी कोरोना ना है,
जब हम समझामैं लाग्यन।
अइसन लाग बड़बड़ान,
हमहिन उठ पछीती भाग्यन।।
घूमैं-बागें केर,
इच्छा आपन एक दिन जताय दिहेन।
बोलैं लाग कि उठाय के फोन,
क्वारेनटाईन केंद्र पठाय दिहेन।।
अइसन विपदा जानत अपने,
कबहूं पड़ा न पाला।
भीतर मेहरारू की हुड़की,
बाहर से कोरोना का ताला।।
जो हम कुछ उनसे मांगी,
पुरान दिन देखउती हैं।
अब मांगा गांव वालेन से,
बात-बात मांहीं गांव पेल-पठउती हैं।।
कब खत्म होई लॉकडाउन,
हम कब घर से निकलब।
दुई चार लाइन मांही,
समझा दीन्हिस व मतलब।।
तुम नींक-सूख, खात-पियत,
घर के भीतर डरया हा।
बिचारे मजदूर, हजारों किलोमीटर दूर,
अखबार उठाय के पढ़या हा?
बिचारे जन-बच्चे पटरिन-पटरिन,
आपन गांव केर रास्ता नाप रहे हैं।
धरतिव का न लाग रही दया,
भूखे-पियासे हांफ रहे हैं।।
लॉकडाउन केर असली कीमत,
तो बिचारे उईं चुकाय रहे हैं।
फंसे हैं अधबीचे जो,
आमैं का घर मिमआय रहे हैं।।
देश के बाहर जो होतिन,
सुन्दर का वायुयान मांहीं बईठ के अउतिन।
देश के भीतर फंसके रहिगे,
नहीं रहिगा उनका कउनौ गिनतिन।।
पांव माहीं पडिगा छाला,
भूख-पियास से कराह रहे हैं।
का है व्यवस्था आपन,
सरकारौ आजमाय रहे हैं।।
अउर तुम घर भीतर डरे-डरे,
कवि महाशय मसखरा उड़ाय रहया हा।
दाल-नमक के खातिर,
भीतर-भीतर खिसियाय रहया हा।।
घरवाली के दिया दिखाए,
आँखी आपन चउधियाई।
हमहूँ सोचेन, ठीकै तो है,
हम तो सिर्फ सोई बिन अउंघाई।।
डॉक्टर तमाम पुलिस अफसरान,
लोगन का समझाय रहे हैं।
तुम्हरे जईसा कवि महाशय जी,
कईयक लोग धता बताय रहे हैं।।
जे न देखिन प्लेग!
जे न देखिन दुर्भिक्ष!
हैजा चेचक जे न देखिन।
घर-घर बुझत दीप,
न सुनिन सयानन,
न आपन आँखी देखिन।।
ओई! नियम-कायदा-कानून केर,
जनकर उपहास उड़ाय रहे हैं।
सच माना कवि महाशय,
अइसन लोग आफत बुलाय रहे हैं।।
अइसन हाल सुनाय,
कवि महाशय जी फ़ोन त काट दिहिन।
पर बहुतै बड़ा सीख,
हमसे उईं बांट दिहिन।।
अपनौ पाँचे, घर भीतर रही,
आपन-आपन हाल लिख भेजी।
आज पढ़ै न कोऊ या कोऊ पढ़ै,
बाद मांहीं दुनिया ढूंढ-ढूंढ के देखी।।
रचना:सुरेन्द्र कुमार पटेल
4 टिप्पणियां:
अत्योत्तम
गजब की कविता सर, अति सुंदर
Bahut badhiya Sir Ji
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद!
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