बुधवार, मई 13, 2020

बाल श्रमिक व्यथा(दो कविताएँ): मनोज कुमार

(एक) बाल श्रमिक की व्यथा

मैंने पढ़ने की उम्र में  जीवन को काम में लगाया।
उदर पूर्ति हेतु जिंदगी में दर-दर ठोकर खाया॥

मैं कभी  होटल में  कभी कंपनी में भूखा सोया।
मैं एक रोटी पाने की खातिर पूरे रात दिन  रोया॥

आह! मेरा इस जिंदगी को  रब ने कैसा बनाया।
क्या मेरा पेट बड़ा था?   दुनिया में क्यों आया?

मालिक की डांट फटकार  कलेजे में चुभता है।
सुनकर चुपचाप मुसीबत में मेरा दिन कटता है॥

मैं पढ़-लिख कर  जीवन में कुछ कर सकता हूँ।
इस लाचारी के पीडा में हर पल आहें भरता हूँ॥

मैं इस गरीबी की मायूसी को किसको बतलाऊँ।
सभी जानते हैं मेरे अपबीती को मैं क्या सुनाऊँ॥

मेरे इस दशा को देखकर तनिक दया नहीं आई।
लताड़ते जिंदगी में किसी को कसक नहीं आई॥

गरीबी की थपेड़ों से  जिंदगी का हाल बेहाल है।
मेरे पढ़ने की उम्र में  छाया गरीबी का काल है॥

(दो) भ्रष्टाचार

आज भारत  में चारों तरफ फैला  भ्रष्टाचार है।
स्वार्थ के  प्रतिपूर्ति में खो डाले  शिष्टाचार हैं॥

इस आर्यावर्त में स्वहित में  बहुतेरे पथभ्रष्ट हैं।
इंसानियत को खोकर विलासिता में आकृष्ट हैं॥

पैसों की लोलुपता में अपने ईमान को बेच रहे हैं।
जनता का खून चूस कर अपनी रोटी सेंक रहे हैं॥

अपनी बेईमानी के परत को कब तक छुपायेंगे।
एक दिन होगा पर्दाफाश तब सच सामने आएंगे॥

इस जीवन में जो हराम की कमाई  को खाएगा।
कुछ पल  खुश होगा लेकिन नहीं पचा पाएगा॥

इस कलयुगी  दुनिया में कुछ बन चुके बेईमान हैं।
स्वार्थ सिद्धि में लोगों को  बताते निज ईमान हैं॥

जिन्हें जन सेवा के लिए देश की थमाये बागडेर हैं।
वही निकम्मा, भ्रष्ट, दुनिया का  बड़े रिश्वतखोर हैं॥

अब भ्रष्टाचार पनप रहा है हमें हो चुका एहसास।
भ्रष्टाचार बंद कैसे हो  सब मिलकर करें  प्रयास॥


रचनाकार
मनोज कुमार चंद्रवंशी बेलगाँव, विकासखंड-
पुष्पराजगढ़ जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश


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