सोमवार, मार्च 08, 2021

बेटियां (कविता) : कुलदीप



बेटियां
              
एक साथ दो घरों को संभालती है बेटियां।
मायका , ससुराल को सवांरती है बेटियां।
फिर क्यू जिम्मेदारियों के बोझ तले तबकर,
वक्त से पहले ही बड़ी हो जाती है बेटियां।

कभी दहेज के नाम पे छोड़ देती है दुनिया।
कभी बेटी के इल्जाम पे छोड़ देती है दुनिया।
उड़ने से पहले ही उनके पंखों को काटकर,
जितेजी मौत के अंजाम पे छोड़ देती है दुनिया।

मां बाप भाई बहन का प्यार खोतीं है बेटियां।
परायी होकर भी अपनी होती हैं बेटियां।
हर किसी के खुशियों में शामिल रहती है,
भले समझौता कर दर्द से सोतीं है बेटियां।

बेटियां जकड़ी है हैवानियत की जंजीरो में।
क्या लिखा ही है उनकी हाथों की लकीरों में।
कल तलक जो फिल्मी पर्दे में दिखाई देता था,
आज वो देख रहे है आज की ही तस्वीरों में।

दिनों दिन यहाँ बेखौफ दरिंदगी पनप रही है।
दहसत में है जिंदगी खुशियां सिमट रही है।
चील गिद्ध की तरह देह नोचने बाले घूम रहे,
इंसाफ मांगने बालों की जिंदगी तड़प रही है।


बेटियों को दाग भरा जीवन नहीं खुशियों का संसार चाहिए।
उड़ान भरें वो अपने सपनो में कोई ऐसा आसमान चाहिए।
हर कदम से कदम मिलाकर चल सकती हैं वो सबके साथ,
मुश्किलों से लड़ना आता है कोई राह नही आसान चाहिए।


जिन्हें बेटियां बोझ लगती हैं, वो अब खुद पर विचार करें।
जिन्हें बेटे में वारिश दिखता है वो बहू को क्यू हकदार करें।
अगर कल, आज से बेहतर और अच्छा समाज चाहिए तो,
बेटा और बेटी में कभी भी कोई, अलग-सा न व्यवहार करें।
रचना
कुलदीप
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