आज तुम्हें क्या संदेशा दूँ,
कैसी मंगल कामना करूँ।
बने रहो तुम युगों-युगों तक
ऐसी ही क्या शुभकामना करूँ?
खेतों में तुम होते हो निशदिन,
कारखानों में भी तो होते हो।
ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में!
फिर भूखे,बेघर क्यों सोते हो?
सड़कें नहीं बनाई तुमने क्या,
क्या रेल लाइनें नहीं बिछाई है
वायुयान के पंखे नहीं तराशे?
चलने में क्यों फ़टी बेवाई है?
भारत ने की है खूब तरक्की,
भारतवासी भी मालामाल हुए।
तुम रहे कहाँ अभागे इतने दिन
कहो, किस कारण बदहाल हुए?
जूते,अहा! क्या सिले ठाट के,
एक जूता अपना भी सिल लेते।
महल प्रशंसा करते हैं सूतों की
उन धागों से तुम भी मिल लेते।
वस्तु सभी ढलते तुमसे होकर,
पर वह नहीं तुम्हारे होते हैं।
जितना तुम खोते आजीवन,
उतना कोई और नहीं खोते।
तुम हो अजर,अमर अविनाशी
आदिकाल से अस्तित्व रहा है।
हे!मानव श्रेष्ठ तुम्हारे ही तप से
मानवजीवन का सतीत्व रहा है।
तुम्हारे होने में न भाग्य अभागा,
नहीं किसी विधाता की मर्जी है
यह घन चक्कर है धनिकों का
संचालित अर्थशास्त्र ही फर्जी है।
तुम कर्मवीरों के श्रेष्ठकुल वंशज,
फल पर रही नहीं कभी आसक्ति।
शायद इसीलिए फिरते मारे-मारे,
मन से करते कर्मयोग की भक्ति।
बड़े! ऐसे बड़े नहीं बनते,
हे! कर्मवीर फलासक्ति रख।
गीता खुद पढ़ कम, सुना ज्यादा
गीता में भी ऐसी भक्ति रख।
तुम्हारी वंदना करे कोई आज,
भाल पर तिलक लगाए चाहे।
तू हिसाब मांग अपने श्रम का,
किस-किसने जकड़ रखी है बाहें।
मार्क्स को पढ़ने से क्या होगा,
पहले अपना मूल्य पहचानो।
रुकेगा जहाज, जग थम जाए
तुम अपने श्रम मूल्य को जानो।
है सत्ता तुम्हारा चौकीदार नहीं
उसने बिठाई तुम पर पहरेदारी है।
मेट-मुकद्दम तुमसे ऊंचे दामों के
सत्ताधीशों से जिनकी यारी है।
भव्य भवन के गारे सनते नहीं,
धरती में मिलने वाले पानी से।
उसे सींचता किसी का वक्षस्थल,
या सींचा जाता है भरी जवानी से।
तुम हो मजदूर यही नहीं,
कहानी तुम्हारी होती है।
अशिक्षा,अत्याचार और बीमारी
मुख से झड़ती लाचारी होती है।
योजनाओं के भार तले दिल्ली,
असहाय हो दबी, कुचली जाती है।
मलबे में तब्दील योजनाओं को
मथ फिर मलाई निकाली जाती है।
योजनाओं में देना मट्ठा भी है,
मगर मलाई देना किसको है?
फीतों मे बंधे हुए हैं मंत्र सभी,
आज भलाई करना किसको है।
कैसे कहूँ की वर्षों की पीड़ा,
मिट जाएगी आज बधाई देने में।
हाँ, कुछ सुकून मिलेगा मन को,
इन शब्दों को रिहाई देने में।
©सुरेन्द्र कुमार पटेल
01 मई 2020, अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस।
कैसी मंगल कामना करूँ।
बने रहो तुम युगों-युगों तक
ऐसी ही क्या शुभकामना करूँ?
खेतों में तुम होते हो निशदिन,
कारखानों में भी तो होते हो।
ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं में!
फिर भूखे,बेघर क्यों सोते हो?
सड़कें नहीं बनाई तुमने क्या,
क्या रेल लाइनें नहीं बिछाई है
वायुयान के पंखे नहीं तराशे?
चलने में क्यों फ़टी बेवाई है?
भारत ने की है खूब तरक्की,
भारतवासी भी मालामाल हुए।
तुम रहे कहाँ अभागे इतने दिन
कहो, किस कारण बदहाल हुए?
जूते,अहा! क्या सिले ठाट के,
एक जूता अपना भी सिल लेते।
महल प्रशंसा करते हैं सूतों की
उन धागों से तुम भी मिल लेते।
वस्तु सभी ढलते तुमसे होकर,
पर वह नहीं तुम्हारे होते हैं।
जितना तुम खोते आजीवन,
उतना कोई और नहीं खोते।
तुम हो अजर,अमर अविनाशी
आदिकाल से अस्तित्व रहा है।
हे!मानव श्रेष्ठ तुम्हारे ही तप से
मानवजीवन का सतीत्व रहा है।
तुम्हारे होने में न भाग्य अभागा,
नहीं किसी विधाता की मर्जी है
यह घन चक्कर है धनिकों का
संचालित अर्थशास्त्र ही फर्जी है।
तुम कर्मवीरों के श्रेष्ठकुल वंशज,
फल पर रही नहीं कभी आसक्ति।
शायद इसीलिए फिरते मारे-मारे,
मन से करते कर्मयोग की भक्ति।
बड़े! ऐसे बड़े नहीं बनते,
हे! कर्मवीर फलासक्ति रख।
गीता खुद पढ़ कम, सुना ज्यादा
गीता में भी ऐसी भक्ति रख।
तुम्हारी वंदना करे कोई आज,
भाल पर तिलक लगाए चाहे।
तू हिसाब मांग अपने श्रम का,
किस-किसने जकड़ रखी है बाहें।
मार्क्स को पढ़ने से क्या होगा,
पहले अपना मूल्य पहचानो।
रुकेगा जहाज, जग थम जाए
तुम अपने श्रम मूल्य को जानो।
है सत्ता तुम्हारा चौकीदार नहीं
उसने बिठाई तुम पर पहरेदारी है।
मेट-मुकद्दम तुमसे ऊंचे दामों के
सत्ताधीशों से जिनकी यारी है।
भव्य भवन के गारे सनते नहीं,
धरती में मिलने वाले पानी से।
उसे सींचता किसी का वक्षस्थल,
या सींचा जाता है भरी जवानी से।
तुम हो मजदूर यही नहीं,
कहानी तुम्हारी होती है।
अशिक्षा,अत्याचार और बीमारी
मुख से झड़ती लाचारी होती है।
योजनाओं के भार तले दिल्ली,
असहाय हो दबी, कुचली जाती है।
मलबे में तब्दील योजनाओं को
मथ फिर मलाई निकाली जाती है।
योजनाओं में देना मट्ठा भी है,
मगर मलाई देना किसको है?
फीतों मे बंधे हुए हैं मंत्र सभी,
आज भलाई करना किसको है।
कैसे कहूँ की वर्षों की पीड़ा,
मिट जाएगी आज बधाई देने में।
हाँ, कुछ सुकून मिलेगा मन को,
इन शब्दों को रिहाई देने में।
©सुरेन्द्र कुमार पटेल
01 मई 2020, अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस।
4 टिप्पणियां:
👌👌
very nice Sir
पधारे पाठकद्वय का हार्दिक धन्यवाद।
आपका यह श्रम-गान बड़ा ही हृदयस्पर्शी है। सच, धरती के बेटे किसान के पाँव के छाँव के नीचे ही सारा जीवन है। आपकी यह कविता किसानों की महत्ता को प्रतिबिंंबित करती है। विश्व -धरा के किसानों को प्रणाम् है और आपके प्रखर कला-शक्ति को... सर, आपके स्नेहन मेंं रजनीश
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