"कलयुग"
इस कलिकाल कलयुग में
सर्वत्र विकीर्ण है अनाचार।
भौतिकता के चकाचौंध में,
बढ़ रहा है दंभ, व्याभिचार॥
पावन सी महि निकृष्ट हो गई,
समाविष्ट कलुषता, पापाचार।
सर्वत्र अनीति, अधर्म का सैलाब,
नित दिन बढ़ा रहा अत्याचार॥
अब अमिय महत्ता घट गया,
हलाहल से भरा कूप, सरोवर।
दूषित प्रकृति के अनुपम कृति,
विकृत हो गए प्राकृति धरोहर॥
पुनीत सरिता गंगा की तल,
मटमैला हो गया शुचि जल।
अपवित्र हो गया यमुना की जल,
यह घनाघोर कलयुग के बल॥
अपमानित चिर सुंदरी नारी,
धरा की जननी सुख प्यारी।
किंचित नहीं सम्मान उसे,
अपमान का घूंट पीना पड़ा उसे॥
माया, मोह में संलिप्त हो गए,
निमग्न प्रेम के भावसागर में।
अहंकार,ईर्ष्या, द्वेष चरम सीमा में,
काल समाविष्ट मानससरोवर में॥
इस घोर कलिकाल कलयुग में,
अब सुपथ मार्ग अदृश्य है।
ममता, लोग, क्रोध का सैलाब,
यह कलयुग का परिदृश्य है॥
नैतिक - अनैतिक में भेद नहीं है।
गुण - अवगुण दृश्य एक समान।
जीवन मूल्यों के प्रति आकृष्ट नहीं,
सराबोर है कुकृत्य, अभिमान॥
मानव गम्य में पतन गर्त में,
निज कुकर्मों का वशीभूत हुआ।
वसुधैव कुटुंबकम का भाव मिटाकर,
निज स्वार्थ में संलिप्त हुआ॥
सजीवों की निर्मम कत्ल किया,
पौरूष हृदय में न कसक हुआ।
मानव निज अधरों से सुरापान कर,
कलिकाल के पाप में लिप्त हुआ॥
स्वरचित
मनोज कुमार चंद्रवंशी
विकासखंड पुष्पराजगढ़
जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश
1 टिप्पणी:
आपकी रचना में बड़े ही प्रगाढ़ शब्द मिलते हैं मनोज जी .... सच, आपके
भाव-चित्र को सलाम है ......
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