हम लोग थे, लोग रह गए
हम लोग थे, लोग रह गए,वे कौन थे जो खास हो गए।
पिताजी पत्थर तोड़ते थे,
ड्यूटी से कभी मुख नहीं मोड़ते थे।
जाते-जाते छीनी और हथौड़ी दे गए,
चले जिस राह उस राह की निशानी दे गए।
बेटा, कुछ नहीं कर सकेगा,
यह नहीं सीखा तो पेट भर नहीं सकेगा।
इसीलिए जिन्दा जी यह कह गए,
सीख अपनी बेटे के सिर मढ़ गए।
करना ईमानदारी से काम अपना,
ठेकेदार दाम देगा, काम जितना।
मन लगाकर काम करना,
केवल काम पर ही ध्यान रखना।
न दाएं देखना, न बाएं देखना,
मिले जो मजूरी उसे माथे चढ़ाए रखना।
इसी से तुम्हारा गुजारा. बसर होगा,
तुम्हारी ईमानदारी का असर होगा।
जो हैं गॉंव के चार भले आदमी,
जोड़े रहना उनके सामने सदा हाथ ही।
वक्त बुरा हो तो ये काम आएंगे,
हमारा जन्मों का रिश्ता है, निभाएंगे।
बेटे ने पूछ लिया था, ‘‘पिताजी, यह काम कबसे?
पिताजी ने बताया, सूरज चॉंद तबसे।
हम ईमानदार हैं, कोई शक नहीं
काम वही है रत्ती भर टस से मस नहीं।
पर एक बात तो बताओ,
महलें जिनकी, उनका काम तो गिनाआो।
इनकी छीनी-इनका हथौड़ा तो दिखाओ,
इन्होंने तोड़े जहां के पत्थर वो मैदान तो बताओ।
पिताजी ने सब कुछ यॅूं समझा दिए,
बेबसी में ऑंखों से दो आूंसू गिरा दिए।
कहा- क्यों जिद करते हो,
तुम भी उनकी तरह हद करते हो।
उघरा बदन तपती धूप मे,
छीना है सदियों से अपने सरूख में।
छीना है जो वही तो हथौड़ी-छीनी है,
हकीकत हवाई नहीं, जमीनी है।
इनके नाम बदल जाते हैं,
ये बारी-बारी से आते हैं।
हम भाग्यवान हैं, परमानेन्ट हैं
एक-दो नहीं सौ परसेन्ट हैं।
जैसे हम हर दिन तोड़ते हैं नया पत्थर,
वो हमें तोड़ते हैं पीढियॉं बदल-बदलकर।
संसद उनका, सड़क है उनकी,
आवाज बहुत ही कड़क है उनकी।
जो मिल जाए हमें, उनकी दया है,
तू क्या समझेगा, अभी नया है।
छीनी पकड़ने में ही भलाई है,
समझ ले यही तेरे लिए मलाई है।
हमें सराहती हैं गगनचुम्बी इमारतें,
क्योंकि हम ही तो हैं उनकी जरूरतें।
बेटा खड़ा हो गिनने लगा जब ईंटें,
उभरने लगी उन पर पूर्वजों के पसीनों की छीटें।
जब-जब वह थक जाता है,
गगनचुम्बी इमारतों को निहारता है।
पूर्वज प्रकट हो ढाढ़स दिलाते हैं,
जिन्दा जी जो सिखलाया मरकर भी सिखलाते हैं।
नहीं छूटी छीनी, नहीं छूटा हथौड़ा,
सरकारें नापें किसका सीना कितना चौड़ा!
रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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3 टिप्पणियां:
अच्छी पंक्तियां सर
बहुत-बहुत धन्यवाद अनुज।
Nice
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