बुधवार, जून 30, 2021

बरसात पर मनोज कुमार चंद्रवंशी की एक अच्छी कविता

बरसात का मौसम

रिमझिम - रिमझिम बरसो घनश्याम,
प्यासी धरती माँ  का प्यास मिटाओ।
नन्हा सुप्त बीजअंकुरित हों खेतों में,
प्रकृति की  गोद में हरियाली लाओ॥

धरा  का  तीक्ष्ण  तपन  मंद हो गई,
सुखद  बरसात का मौसम आने से।
सर्व चराचर शीतलता की अनुभूति,
चहुँ ओर  काली घटा  छा जाने से॥

भीषण उष्णता का हुआ गृह गमन।
धरा  में  चहुँ  ओर  हरियाली छाई,
प्रकृति  परिदृश्य  अति मनभावन॥

काली   घटाओं  के  तीव्र गर्जना से,
कानन  में  नाचे   मोर  पंख  पसार।
द्रुम डाल पर कलियाँ प्रस्फुटित हुई,
विहग  फुदक  रहें हैं वृक्षों के डार॥

उमड - घुमड  कर  काले  मेघ चले,
शीतल,  मंद,  सुगंध  चले  पुरवाई।
टप टिप-टप टिप धरा में मेघ बरसे,
सकल वसुंधरा में हरियाली छायी॥

हरित - हरीतिमा धरा  की  परिधान,
कृषक खेतों में श्रम साधना करतें हैं।
खग,मृग,मोर, पपीहा, मुदित होकर ,
कानन में स्वच्छंद विचरण करते हैं॥

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                 ✍रचना
         स्वरचित एवं मौलिक
          मनोज चन्द्रवंशी मौन
बेलगवाँ जिला अनूपपुर मध्यप्रदेश 

वृक्ष पर कविता : मनोज कुमार चंद्रवंशी

वृक्ष (चौपाई)


पादप   जगत   हरे  परितापा।
मिटे  दुख अरु  मिटे  संतापा॥
विटप दल  लता  महि  श्रृंगारा।
तरु तृण मनुज प्राण आधारा॥

                        तरुवर  भूषण   बहुत  सुहाई।
                        बेला  हरित  पर्ण  मन  भायी॥
                        झुरमुट कानन दल मन मोहा।
                        सुरम्य  वन  प्रसून दल सोहा॥
 
पादप   जगत  जीव  रखवारे।
कानन  तरु  दल प्रानन प्यारे॥
तरुवर सरस सुहृद फल दीन्हा,
सकल अंग प्रमुदित कर दीन्हा॥

                      मिलकर एक एक वृक्ष लगावा।
                      मेदिनीआँचल अति मन भावा॥
                      अवनि   हरीतिमा अति सुहाई।
                      रोपित   तरु  जीवन सुखदाई॥

         तरु सलिलअरु समीर प्रदाता।
         सकल  चराचर   हरते  त्राता॥
         हरित  वृक्ष  सौ  पुत्र  समाना।
         करे बखान"मनोज" सुजाना॥
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                     रचना
         स्वरचित एवं मौलिक
       मनोज कुमार चन्द्रवंशी 
बेलगवाँ जिला अनूपपुर मध्यप्रदेश 

कविता(काव्य): मनोज कुमार चंद्रवंशी की कविता पर कविता

'कविता' पर कविता 


कविता अनमोल भावों से सुसज्जित,
वसुंधरा  में   पीयूष  होकर  बहती है।
हृदय के  असीम  गहराइयों से उपजे,
भाव -भंगिमाओं  को  बयां करती है॥

सुधि पाठक काव्य का रसपान कर,
रसस्वादन   को हृदयंगम   करते हैं।
अलौकिक  आनंद  की अनुभूति को,
 कवि वृंद  लेखनी से  बयाँ  करते हैं॥

प्रस्फुटित  काव्य  की  प्रत्येक  बूंद में,
साहित्य  का  अथाह  वेग  समायी है।
मृद कविता साहित्य को उत्कृष्ट  कर,
साहित्य  को भाव  प्रधान बनायी है॥

कोमल  कविता  में  शब्द अगणित हैं,
काव्य भाव प्रवाह का आदि न अंत।
कविता  सरस,  सुहृद  मधुरस  सम,
काव्य  सौंदर्य  का  अनुभूति अनंत॥

काविता में  कवि का मर्म तिरोहित,
कविता मार्मिक भावों का चित्रण है।
कविता की हर पंक्तियां हृदयस्पर्शी,
काव्य जीवन यथार्थ का चित्रण है॥
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                     रचना
          स्वरचित एवं मौलिक
        मनोज कुमार चन्द्रवंशी
बेलगवाँ जिला अनूपपुर मध्यप्रदेश
 

मंगलवार, जून 29, 2021

फगुनाहटी बघेली कविता : अशोक त्रिपाठी 'माधव'



फगुनाहटी बघेली कविता 

सनन्-सनन् सुर्रा चलय, बिरबा झारैं पात।
लगत झकोरा हिय कंपै,फगुनाहटी कय बात।।

कबौ निचंदर कबौ बदरिया,कबौ बरसि चंहदर्रा।
कबौ धुंध पुनि कबौ बड़ेबर,कबौ बहै खरभर्रा।।

महुआ पत्ता झारि रहा है,बौर आम मा आई।
गय पियराय उन्हारी सगली,बहै लाग पुरबाई।।

गेहूं है गदरान चना अउ अरहर मसुरी साथय।
गा झुराय सरसबा लगे हां माहू झोंथय-झोंथय।।

सोंध महक भुंइया से आबय मादक बहै बयारी।
बूढ़ सयान सबय एंह रित मा मारि परैं हुलकारी।।

गा सिहिलाय मौसमउ खासा सबके मन उमहान।
लूमरि-डांगरि सब कुलकारैं हां खासा बउरान।।

सूर मकरगत तिल-तिल बाढ़ैं घट का बहुंकय लमहरि।
सांझ सकारे नगदि जड़ाबय कसमसाय दिन दुपहरि।।

पाकत देख उन्हारी खेतिहर देउता -पितर मनाबय।
पाथर अउर दौंगरा के भय जगि के रात बिताबय।

कोइली कुहुक करेजा सालय बिरहिन के मन माहीं।
जेकर प्रियतम छांड़ि बसे हां जाय बिदेसे माहीं।।

सिहरै देहिंया लगतय सुर्रा करै करेजा घायल।
मांग सिन्दुरबा अंगरा लागय बैरी करधन पायल।।

फाग-ददरिया परै जो काने बजुर बान अस लागय।
बसे जाय बालम परदेसय सुधि कय राति मा जागय।

मादक महिना फागुन आबा रितु बंसंत रितुराजा।
माधव मगन निरखि के सोभा हरसित सबय समाजा।।

सब जिउ-जंत खुसी से नाचैं मिलै पेट भर दाना।
फगुनहटी परकित कय सोभा को कइ सकै बखाना।

रचना:
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ओरहन :बघेली कविता-अशोक त्रिपाठी माधव



ओरहन :बघेली कविता

आपन लिहा सम्हार जमाना।
बात-बात पर दिहा ना ताना।
पहिले खुद के टेंटर निरखा,
फेर कहा दुसरे का काना।।

चोर आजु कोटबार का डांटय।
सूध के मुंह का कूकुर चाटय।
आजु हियन अंधेर मचा हय,
इहां लुटइया बायन बांटय।।

करकस कउआ गाबय गाना।
कोइली के अब नहीं ठिकाना।
उहौ उतान फिरै अब माधव,
रुपिया किलो खाय जे दाना।।

अंधे पोमैं कूकुर खांय।
दुर-दुर कहैं ता मारे जांय।
राज करैं अब जबरा-लबरा,
सत्तमान के दइउ सहांय।।

जे घोड़े के पायेंन धाबय।
ओके कइत अढ़इया आबय।
धक्का खाय सेमाली काकू,
रामपदारथ मजा उड़ाबय।।

एकर लाई उहां लगामैं।
एक-दुसरे के घर फोरबामैं।
गली-गली मा भेदी बगरे,
घर-घर, मेहरी-मनुस लड़ामै।।

अइसन बिगड़ा हबै समाज।
आबा लड़िकोहरिन के राज।
खानपान पहिनाउ बदलि गा,
संसकार मा परि गय गाज।।

केखा कही अउ केसे रोई।
हमहूं आपन दीदा खोई।
अब ता केबल एक सहारा,
करिहैं राम उहै अब होई।।

पीठ देय जस बहय बयार।
इहय आय करतब्ब हमार।
जे बइहर के उलटा भागय,
ओखर हंसी करय संसार।।

अबहूं भरे मा चेतय चाही।
परे रही ना घुरबा साही।
अइसन कउनौ जुगुत बनाई,
आबय बाली रुकय तबाही।।

रचना :
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मान देश का (कविता) : अशोक त्रिपाठी 'माधव' की देशभक्ति पर कविता




मान देश का (कविता)  

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जय जय मां भारती

उदयांचल से अस्तांचल तक।
हेम शिखर से वारिधि तल तक।
हो अखंड वैभव मां तेरा
चहुं दिशि गूंजे आरती।
जय भारत जय भारती।।
जगमग ज्योति जले आंगन में।
ओम् उच्चरित हो कण-कण में।
देव बधूटी तेरा आंचल,
 हरदम रहें संबारती।
जय भारत जय भारती।।
देव तरसते हैं आने को।
तेरा पावन रज पाने को।
आदिशक्ति लक्ष्मी भी तुझपर।
धन-वैभव,यश बारतीं।
जय भारत जय भारती।।
पुन्य धरा है तू राघव की।
परम प्रेमिका है माधव की।
सीता तू ही तू राधा है।
दूनिया तुझे पुकारती।
जय भारत जय भारती।।
तुमने वेदों को उपजाया।
शान्ति-शौर्य दोनों सिखलाया।
तू उर्वरा शक्ति सम्पन्ना।
वीर सदा अवतारती।
जय भारत जय भारती।।
रत्नगर्भिणी तू जग माता।
हरिप्रिया जन मन सुखदाता।
रक्त श्वेत अरु हरित रंगत्रय।
चारु चुनरिया धारती।
जय भारत जय भारती।।
रवि नित प्रथमहिं करत सबेरा।
जग यशगान करे नित तेरा।
अवनि और अंबर में दश दिशि।
गूंजे तेरी आरती।
जय भारत जय भारती।। 
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बघेली गजल : अशोक त्रिपाठी माधव



बघेली गजल 

केखा खोटहा कही केखा हीरा कही।
है निठुर जब जमाना केसे पीरा कही।।

केसे रोई बताई हम आपनि बिपति।
केहू पिरबेदना दुनिया मा अइसन नही।।

जेखा मानेन हम आपन ऊ दीन्हिसि दगा।
करी केखर भरोसा साथ केखे रही।।

अब उचटि गा हय बिसुआस संसार से।
हर घड़ी अब जुलुम बोला कइसे सही।।

टोरि दीन्ह्या तुहूं सगली उम्मीद का।
एक भरोसा रहा तोंहसे आशा रही।।

सुधि रही या मरत तक जउनु दीन्ह्या सजा।
नाउ से तोंहरे आंसू या बहतय रही।।

ठीक भा तू किहा जउनु जानिन गयन।
पय पारुख तोहांरय उमिर भर रही।।

तूं मिला ना मिला दुःख न होई कबौ।
ना बिसरि पउबय सुधि आय अउतय रही।।

तूं जहां जा खुशहाल जीबन जिया।
रात-दिन माधव मांगन या मगतय रही।।

खेल किसमत के जाने न पाबय कोऊ।
दूध बिगड़े के बादय बनत है दही।।

रचना:
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शनिवार, जून 26, 2021

आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले मे होई जात हय #बघेली_कविता: जोगेश्वर सिंह 'जख्मी'




आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले मे होई जात हय (#मोबाइल_पर_बघेली_कविता) 

ओह जमाने का का कही दादू
मास्टरजी पढावे खातिर
एहर ओहर लईका पकड़त रहेन

महतारी के अचरा मे
हमन,लुकाय जात रहेन

 हाथ पकड़ के बाऊ फेर
मास्टरजी के ईहाँँ
 पहुंचाई देत रहेन

अब बतावा कुल काम घर बैठे होई जात हय
आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले (मोबाइल) मे होई जात हय

लड़िका सबे कुदत् फांदत
 बहिरे भीतरे करिके 
चहल पहल कर देत रहेन
बोबा और दाई के मनवा
धरी लेत रहेन, 
जलेबी लाये हेन ! 
ई त बहाना रहा 
एही मे अपनौ के लइका समझ लेत रहेन

अब बतावा समसवो स्विगी से मिल जात हय
आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले मे होई जात हय

माई हमार कहत ही की
ई लईका 
का जानी, केतना 
दिनभर पिक्चर देखत हय
थोड़ीके पढ़ी लिखि लेत त 
का होई जा भला
हमरे ही भाग मे आवा ई कोरौना
स्कूल बंद कराई दिहिस
हमरे लड़िका के 
जिंदगी बरबाद कर दिहिस
हम ओके कैसे समझाई अम्मी
मैडम जी के स्कूल, गूगल मीट से होई जात हय
आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले मे होई जात हय

थोड़ीके बइबे निकला करा दादु
खेला ख़ुदा, 
शरीर पे ध्यान देत जा
हवा सवा ला,
कसरत ओसरत करि लेजा
नही त जइबा सुखाय, 
बैठे बैठे खाई के
पेट कहो न तोहरो निकल जाए

एकरो तोड़ निकला, 
एहि मा गेम, और मीटिंग से योगा होई जात हय
आजकल के पढ़ाई लिखाई दादा मोबाईले मे होई जात हय

बहुत देर चूपियाय के फेर फलनवा बोलिन
ई बतावा दादू, 
कुल मोबाइले से होत है
ई त हमहुँ जान गएन
तोहार कुल कहा हम मान गएन
पए हमार एखे सवाल रहा
खाना खाये के
और लिखे पढ़े के खातिर

 मोबाईले मे हाथ कौन मेर के होत हय
एतना छोट फोन से मनई कौन मेर से हसत और कौन मेर से रोवत हय। 
(#मोबाइल_पर_बघेली_कविता_) 
और पढ़ें:-


~जागेश्वर सिंह
सिंगरौली, मध्यप्रदेश
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शुक्रवार, जून 25, 2021

वर्षा ऋतु पर कविता : राम सहोदर

वर्षा ऋतु (कविता)

(प्रस्तुत है श्री राम सहोदर पटेल जी की वर्षा ऋतु पर कविता )

आई है ऋतु की रानी, धरणी श्रंगार करने।

काली घटा घनेरी, घम-घम-घमा घुमड़ने॥

गरजे घुमड़-घुमड़ के ज्यों ढोल लगे बजने।

चम-चम से चपला चमके, अम्बर लगा है सजने।

झम-झम-झमा से झूमे, झर-झर लगा है झरने।

चहुओर छाई खुशियाँ, वृष्टि हिलोर उठने।

भये दादुरादि चारण, गायें है गीत सबने।

केकी बनी है नर्तक, वर्षा के रंग में रंगने।

उमड़ी है तटनी तट की, सीमा को लगी लघने।

सूखा का कहर भागा, श्यामल धरा है लगने।

थी सूर्य की प्रखर से तापिश हो जगु झुलसने।

थी जेठ की ऊमस में, छाया भी छाँव तकने।

अब आई वर्षा रानी, लागे है मन हुलसने।

उमंगें प्रकृति है सारी, खग-मृग खुशी छलकने।

खेतों में बीज रोपे, कृषकों के हल हैं चलने।

धरणी की प्यास भागी, अंकुर से लगी सजने।

बीथिन में कीच प्रसरी, केचुले लगे सरकने।

मल-मूत्र, कूड़ा-कचरा, धारा के संग में बहने।

सन्देश देता जग को, निर्मल हो रब के गहने।

सम्पूर्ण हुई वसुधा, नहिं जीव कोइ दुख में।

रानी है वर्षा ऋतु की, चाहे सहोदर लिखने।

रचना: राम सहोदर पटेल (शिक्षक)

ग्राम-सनौसी, तह. जयसिंहनगर थाना-ब्योहारी जिला शहडोल(म.प्र.)

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शनिवार, जून 19, 2021

जाने कहां गए, वो बचपन के दिन....

जाने कहां गए, वो बचपन के दिन......... 



     समाज में परिवर्तन होता आया है और होता ही रहेगा। शहर में बदलाव आया भौतिक भी और सामाजिक भी।यह परिवर्तन गांवों में भी बहुत तेजी के साथ हुआ।वैश्वीकरण के युग में सब कुछ बाजार आधारित हो गया।विकास ने न केवल हमारे भौतिक परिवेश को ही प्रभावित किया बल्कि सामाजिक ताने बाने को,मानसिक फलक को भी अछूता नहीं रहने दिया।कहावत है कि अजब तेरी महिमा,गजब तेरी लीला।वह भी क्या जमाना था जब दरवाजे पर बैल,भैंस, गाय,बकरी, घोड़ा,मुर्गी,कुत्ता आदि अपनी उपस्थिति से कोलाहल पूर्ण परिवेश का सृजन करते थे,और जीवंतता का एहसास कराते थे।सुबह सूर्य की स्वर्ण रश्मियां ओस की बूंद को सुनहली बना देती थी,चिड़ियों का चहचहाना,भौरों का गुंजन वातावरण को संगीतमय बना देते थे।कुएं पर चरखी की आवाज क्या सिहरन पैदा कर देती थी नहाने से पूर्व ही,जाड़े में रोएं खड़े हो जाते थे। दरवाजे पर इन जानवरों की अधिकता उस व्यक्ति की संपन्नता और शौक के द्योतक थे, उस गाँव में उसे बड़ मनई कहा जाता था ।दरवाजे पर नीम का दरख्त और दाएँ या बाएँ पक्का कुंआ,उस पर चरखी बरहा और कूंड। एक बड़ी बोरसी में आग हमेशा रहती थी,माचिस का जमाना था नहीं,लोग बाग शाम को आग ले भी जाया करते थे।उस बोरसी के पास बीड़ी ,सुर्ती और कहीं-कहीं हुक्का भी रखा रहता था,एक सरौता, सोपाडी,पक्की सुरती,कत्था, चूना भी कुछ शौकीन लोग रखते थे। दरवाजे के बगल में एक बैठका होता था,जिसमें चौकी,चरपाई(पलंग) पड़ी रहती। जो भी थोड़ा संपन्न रहता उसके यहाँ कमोबेश ये सारी व्यवस्थाएं रहती थीं ।जानवर तो निश्चित रूप से रहते ही थे ।अब आज यह सब कुछ गायब हो चुका है।दूध अब डेरी से आता है,बच्चो के पीने के लिए और चाय बनाने के लिए।पहले दूध,दूधनहर में गरमाया जाता था।दही जमाने पर लाल सी मोटी साढ़ी(मिट्टी के दूधनहर में उपले के अहरे पर छेद वाली हौदी से ढककर),गजब का स्वाद,फिर मट्ठा बने,मक्खन निकले,सभी लोग चाव से खाते थे।अब गाँव में भी गैस आ गई, गोहरी का जमाना लद गया। हर गाँव में एक छोटी सी परचून और चाय की दुकान हो गई है।सुबह-शाम चाय पीने वहाँ ही लोगबाग चले जाते हैं।लगभग प्रत्येक 5 किलोमीटर के अंदर देसी दारू का ठेका खुल गया है वहां चखना की दुकान भी मिल जाती हैं,अंडे की दुकान तो रहती ही है।उधर से ही एक पाउच/शीशी चढाकर साइकिल/मोटर साइकिल से कभी -कभी पैदल भी झूमते-झामते,बेवजह बोलते हुए,गाली गलौज करते हुए गाँव (घर)की ओर चल देते हैं,कई लोग जब सामने पड़ जाते हैं तो कन्नी काट कर चल देते हैं।खुदा ना खास्ता कुछ ज्यादा चढ गयी तो रास्ते में ही सड़क पर या पटरी पर ही लुढ़क भी जाते हैं। कभी कभी कुछ ज्यादा हो जाती है या देशी और अंग्रेजी का मेल हो जाता है,या मिलावटी मिल जाती है जैसा कि अभी अंबेडकरनगर,आजमगढ़,अलीगढ़ में हुआ।सैकड़ों लोग स्वर्ग सिधार गए,बीबी बच्चे अनाथ हो गए, सुहाग मिट गए, मां की कोख सूनी हो गई, पिता के अरमान दारू की भेंट चढ़ गए।ऐसे हादसे लगभग हर वर्ष हो जाया करते हैं,लेकिन सरकार क्या करे,इससे उसे बहुत टैक्स मिलता है जो,लोग मरे तो वह क्या करे,2 से 4 लोगों का निलंबन करके सरकारी फाइल का पेट भर जाता है और कार्यों की इतिश्री हो जाती है।जबकि जब दूध लेने जाते हैं या दूधिया सायकिल पर बाल्टे में दूध लेकर लोगों के घर -घर जाकर दूध देता है त उससे कुछ दिन बाद बड़े प्रेम से पूछते हैं कि भैया/दादा दूध में पानी तो नही मिलाए हैं।दूध का पैसा प्रायः महीने भर बाद दिया जाता है।जबकि दारू लोग ठेके पर नगद लेते हैं,लेकिन उससे एक बार भी नहीं पूछते हैं कि इसमें कोई मिलावट तो नहीं है,यह एक बहुत बड़ी विडंबना है।

    पहले गाँव में किसी भी कार्य- प्रयोजन में घर और गाँव की गृहलक्ष्मियां और मनसेधू मिलकर पूरा खाना बनाने से लेकर भोजन परोसने तक का काम कर लेते थे। दोना पत्तल,पुरवा एवं पानी परोसने का काम छोटे-छोटे बच्चे ही कर डालते थे, हम लोगों का प्रशिक्षण भी रामजियावान भैया,बृजेन्द्र चाचा(बलुआ) के साथ ऐसे ही हुआ था।खाना खाने के बाद पत्तल-पुरवा उठाकर उसे उचित स्थान पर रख आया जाता था।किसी भी शादी विवाह, बरही, तेरही,भोज भात में दूध-दही ,बरतन आदि खरीदना नहीं पड़ता था,सब कुछ पास पड़ोस से मिल जाया करता था।रिश्तेदारों के यहां से सामान आदि दौरी(साड़ी,राशन,सब्जी आदि) आती थी,उत्सव का माहौल होता था।अब सब कुछ परिवर्तित हो गया है।पहले नाच वाले बाहर से आते थे,खाना घर की महिलाएं व पुरुष मिलकर बनाते थे।अब पूरा घर परिवार के लोग नाचते हैं, बाबर्ची खाना पकाते हैं। पहले लोग सायकिल से जाकर नाते- रिश्तेदारी तथा काम भी कर आते थे ।इसी बहाने उनकी मेहनत भी हो जाती थी,श्रम उत्पादक था।आज कार या मोटरसाइकिल से जिम में हजारों रूपये खर्च करके एक ही स्थान पर खड़ी  आधुनिक सायकिल पर घंटों पसीना बहाते हैं।पहले क्या था कि एक गमछा लेकर नदी या पोखरे की ओर चले जाते थे ।इसी बहाने टहलान भी हो जाती थी वहां ही नीम या बबूल की दातून किया,नहाया-धोया और सिर पर धोती या गमछा रखा,घर चले आए।आज कल इज्जत घर स्नानघर दोनों घर में ही है।कई लोग तो वही स्लीपर पूरे घर में पहनकर चलते हैं,क्योंकि इज्जतघर से आए हैं, नहा धोकर,भोजन की थाली पर पालथी मार बैठ गए।पहले बिना हाथ-पैर धोये आप मझेरियां(रसोई)पर नहीं जा सकते थे।जूता चप्पल पहनकर कोई घर के अंदर नहीं जा सकता था।बाहर धुलकर खड़ाऊं रखा रहता था,वही पहनकर खाना खाने जाते थे।आधुनिकता मे बहुत सी चीजें गायब होती जा रही हैं।पहले आजा - आजी,बाबा- बूढ़ी का का घर में बहुत ही कद्र व फिक्र होती थी,अब---------।समय के साथ बदलाव जरूरी है लेकिन हमें अपनी संस्कृति व संस्कार को सहेजने की भी जरूरत है।किसी ने क्या खूब कहा है कि हम चांद पर तो पहुंच गए लेकिन धरती पर रहना नहीं सीख पाए। कोविड ने जरूर जिंदगी का कुछ फलसफा हमें पढ़ाया है, दुःख और पीड़ा की गहन  अनुभूति के साथ संवेदनशीलता,सहकारिता,मेल- जोल बढ़ाने और प्रकृति की ओर रुख करने की नई सीख मिली है।

जोहार धरती मां!जोहार प्रकृति!

डा ओ पी चौधरी

समन्वयक, अवध परिषद, उत्तर प्रदेश;

सम्प्रति, एसोसिएट प्रोफेसर,मनोविज्ञान विभाग,श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी।

मो 9415694678

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बुधवार, जून 16, 2021

हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श -रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)

आलेख : हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श

-रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)



 

        स्त्री मायने ’’माँ’’। माँ से ही इस सृष्टि का सृजन हुआ है। माँ ही इस भूमण्डल को स्पंदित करती है। माँ के ममतामयी रूप को साहित्य प्रतिबिंबित करता है; साथ ही स्त्री की हृदय विदारक पीड़ा का प्रतिबिंबन भी साहित्य में मिलता है।

सृष्टि विधायक, भूमण्डल का हे जननि! हृदय तुझे है समर्पित।

 ममता की धागों से बुनती हमको, जीवन का कण-कण है अर्पित।।

साहित्य और समाज दोनों एक-दूसरें के संपूरक हैं। साहित्य समाज को चित्रित करता है और समाज साहित्य को चित्रण करने की शक्ति प्रदान करता है।

साहित्य विभिन्न भाव-चित्रों का संकलन है जिसे साहित्य समाज से ही सोखता है। हिन्दी साहित्य में स्त्री की शक्ति और उसका गुणगान भली-भाँति की गई है। साहित्य स्त्री विमर्श के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करती है; उसके सामाजिक पहलुओं, आर्थिक पक्षों,धार्मिक आचार-विचारों,गृहस्थी पक्षों आदि का प्रकटीकरण करता है। जब तक साहित्य स्त्री पक्षों का स्पंदन नहीं करता तब तक साहित्य का संचित कोष अधूरा ही होता है।

            साहित्य में स्त्री कहीं दुखः से रोती नजर आती है, कहीं शक्ति से भरी मिसाल तो कहीं बेबस और लाचार; यह सब समाज का ही प्रतिफल है जिसे साहित्य में बखूबी उकेरा गया है। 

रोती है बिलखती है, पीड़ा उसकी कसकती है।

कलयुगी समाज अब भी न समझा, स्त्री से घर-द्वार महकती है।।

साहित्य में स्त्री के सम्मान, शक्ति और उसके गौरव का गुणगान बड़ा ही मनोरम स्वरूप में चित्रित किया गया है। जब-जब समाज रोया है तब-तब साहित्य समाज के आँसू अपने भाव-कोष से सींचता आया है। जब-जब समाज पथभ्रमित हुआ है तब-तब साहित्य धु्रवतारा बन जीवन-मार्ग प्रशस्त करता है।

साहित्य में समाज के करूणामयी पुकार और उसके संवृद्धि का चित्रण मिलता है। साहित्य बस समाज का दामन पकड़े अपने को पोषित करता आया है।

साहित्य स्त्री के लिए ‘‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’’, कहीं ‘‘खूब लड़ी मर्दानी झाँसी वाली रानी’’ तो कहीं ‘‘ अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेमबेलि बोइ’’ के रूप में याद दिलाता है और समस्त नारीमण्डल को जगाता है। साहित्य स्त्री के लिए शक्ति और सम्मान जुटाता है और इससे स्त्री ऊर्जा सोखती है।

      आज नारी शक्तिहीन नहीं, वह समाज के संग आगे बढ़ता साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराया है। हिन्दी साहित्य में स्त्री को ‘‘ जगमग दीप’’ की संज्ञा अनायास नहीं दी गई है; उसके सृजन-शक्ति और समर्पण-सद्भाव के बूते ही उसे उत्कृष्ट माना गया है। साहित्य समाज में नारी के प्रति मधुभरी गीत भी व्यंजित किये हैं-

नारी तू षक्ति विधायक, ममता की फुलवारी है।

तू मंगलकरणी पुष्पलता, तू जगमण्डल विस्तारी है।।

साहित्य ग्रामीण समाज की नारी और शहरी समाज की नारी का भी विभेदन करता है। वह समाज में समानता का पाठ का प्रसारण करता है। गाँवों में नारियाँ अशिक्षा से ग्रसित अपने को कुंठित पाते हैं तब साहित्य उन्हें जगाता हुआ शिक्षा का प्रसाद बाँटता है और नित आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।

साहित्य ग्रामीण परिवेश में जीवन जीती नारियों का उद्घाटन बड़े ही अनोखे ढ़ग से करता है। वह नारी के मानसिक संकीर्णता, घूँघट में छुपे रहना, डर से जुड़े रहना आदि कमियों को उजागर करता है।

साहित्य-सर्जक अपनी रचनाशीलता में नारी पक्ष का उद्घाटन निश्चित तौर पर करते हैं। उसे अपनी कृतियों में ‘‘पात्र’’ धारण अवश्य कराते हैं; सद्गति और गबन जैसी अमर कृतिया इसके द्योतक हैं।

         साहित्य में स्त्रियों के गीत-गुंजन जैसे- कजलियाँ, सोहर, बधावा, मंगलाचरण आदि का हृदयस्पर्शी सम्मोहन मिलता है तो कहीं प्रातःकाल जात चलाने की मधुरस धुन मिलता है। स्त्रियाँ बरसाती गीत गाते हुए धान की कलमी से खेत में मक्खन समान मिट्टी से बनी किताबों में अपने मन के गीत लिखने में माहिर होते हैं। साहित्य में fस्त्रयों के मथानी चलाने का हृदयस्पर्शी धुन भी स्थापित है। यूँ कहें कि स्त्रियों के अनेक कलाकृतियों से साहित्य भरपूरित है-

आओ जी गाएँ मंगल बधाई....।

बधावा लेके आये मोर ....।

सो जा लल्ला लोरी.......।

तुझे सूरज कहूँ या चंदा.....।

आदि स्त्री काव्य-गुंजन से साहित्य फलता-फूलता आया है। साहित्य स्त्री के शक्ति रूप का बखान इस प्रकार करता है-

तू शक्ति, अमरता का प्रखण्ड प्रवेग

तू सृष्टि विस्तारी।

कला रंग से रँगी हुई तू

प्रेरक और व्यवहारी।।

साहित्य में समाज का प्रकटन भली-भँति मिलता है। कभी स्त्री पक्ष का उद्घाटन तो कभी प्रकृति प़क्ष का। आज की बढ़ती आधुनिकता में भी नारियाँ अशिक्षित हैं,मन में रूढ़वादिता के कपट अब भी नहीं खुले; तब साहित्य शिक्षा और सद्भाव का मसाल लिए आगे आता है ऐसी स्थितियों से निबटने में मदद करता है। स्त्रियों को नई राह दिखाने में मदद करता है साथ ही नई गीतों का चित्रांकन भी करता है।

                आज ग्रामीण परिवेश में नारी गृहस्थी में व्यस्त केवल चौका-चूल्हा तक ही जैसे सीमित है; वह रूढ़वादिता का चादर ओढ़े अपने को संकीर्ण बनाकर जीने में लगी हुई है; तब ऐसे में ही साहिय उन्हें शिक्षा की नई धुन देकर आगे उठाने का प्रयास करता है।

साहित्य में नारी का टोकरी में फल बेंचने, फूलों की माला बेंचने, बाँस के बर्तन बनाने, सूत कातने,कपड़ों में कढ़ाई-बुनाई करने का भाव चत्र अंकित है। साहित्य स्त्रियों के ऐसे ही कर्म-निपुणता का बयान करते हुए धन्य हुआ है।

साहित्य नारी को विजयमाला और पुष्पगुच्छ भेंट करता है तो उनके लिए कहीं नवगीत बुनता है। नारी के अटूट साहस, कर्म-तल्लीनता और उसके निर्भयता को दिखाता आया है। इस तरह हिन्दी साहित्य में स्त्री सदैव स्मरणीय, पूजनीय, जीवन-प्रेरक और नवगीत बुनाने वाली मानी जाती है।

हे माँ माटी रजकण तेरे हो मेरे मस्तक,

हे जननि! मेरे तू जीवन का सुन्दरतम् हर्षक

हृदय समर्पण जीवन अर्पण तू सृष्टि विधायक अवतारी

तेरे से जग आलोकित होता तू जीवन सबका विस्तारी

नित रोली-चंदन भेंट है तुझको तू जीवन-निर्मात्री है

पग तेरे मैं देख चलूँ, तू जीवन सबको दात्री है

तू रोती, जग रोता, ये कैसी जीवनशाला है?

जनकर सबको बड़ा किया, भेंट तुझे विजयमाला है

ना पाकर तुझको साहित्य-समाज है रोता, धरती भी व्याकुल हो जाती है

माँ यह सब देख तब अपने पुत्रों को, अँचरा तर ढाँक दूध पिलाती है।।

इस तरह साहित्य और समाज के मध्य स्त्री अनेक भावांशों को प्रतिबिंबति करती हुई अविस्मरणीय है। विभिन्न कलाकृतियों की उपज स्त्री को ही मानी गई है। साहित्य में समाज, समाज में कलाएँ, कलाओं में रंग,रंगों में प्रकृति आदि का समुच्चय सदैव से बनी है।

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साहित्य के पन्नों से

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