आलेख
: हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श
-रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)
स्त्री मायने ’’माँ’’। माँ से ही इस सृष्टि का सृजन हुआ है। माँ ही
इस भूमण्डल को स्पंदित करती है। माँ के ममतामयी रूप को साहित्य प्रतिबिंबित करता
है; साथ ही स्त्री की हृदय विदारक पीड़ा का
प्रतिबिंबन भी साहित्य में मिलता है।
सृष्टि विधायक, भूमण्डल का हे जननि! हृदय तुझे है समर्पित।
ममता की धागों से बुनती हमको, जीवन का कण-कण है अर्पित।।
साहित्य और समाज दोनों एक-दूसरें के संपूरक
हैं। साहित्य समाज को चित्रित करता है और समाज साहित्य को चित्रण करने की शक्ति
प्रदान करता है।
साहित्य विभिन्न भाव-चित्रों का संकलन है जिसे
साहित्य समाज से ही सोखता है। हिन्दी साहित्य में स्त्री की शक्ति और उसका गुणगान
भली-भाँति की गई है। साहित्य स्त्री विमर्श के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करती है; उसके
सामाजिक पहलुओं, आर्थिक पक्षों,धार्मिक आचार-विचारों,गृहस्थी
पक्षों आदि का प्रकटीकरण करता है। जब तक साहित्य स्त्री पक्षों का स्पंदन नहीं
करता तब तक साहित्य का संचित कोष अधूरा ही होता है।
साहित्य में स्त्री कहीं दुखः से रोती नजर आती है, कहीं
शक्ति से भरी मिसाल तो कहीं बेबस और लाचार;
यह सब समाज का ही प्रतिफल है जिसे
साहित्य में बखूबी उकेरा गया है।
रोती है बिलखती है, पीड़ा
उसकी कसकती है।
कलयुगी समाज अब भी न समझा, स्त्री
से घर-द्वार महकती है।।
साहित्य में स्त्री के सम्मान, शक्ति
और उसके गौरव का गुणगान बड़ा ही मनोरम स्वरूप में चित्रित किया गया है। जब-जब समाज
रोया है तब-तब साहित्य समाज के आँसू अपने भाव-कोष से सींचता आया है। जब-जब समाज
पथभ्रमित हुआ है तब-तब साहित्य धु्रवतारा बन जीवन-मार्ग प्रशस्त करता है।
साहित्य में समाज के करूणामयी पुकार और उसके
संवृद्धि का चित्रण मिलता है। साहित्य बस समाज का दामन पकड़े अपने को पोषित करता
आया है।
साहित्य स्त्री के लिए ‘‘अबला
जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी’’, कहीं ‘‘खूब लड़ी मर्दानी झाँसी वाली रानी’’ तो
कहीं ‘‘ अँसुवन जल सींचि-सींचि प्रेमबेलि बोइ’’ के
रूप में याद दिलाता है और समस्त नारीमण्डल को जगाता है। साहित्य स्त्री के लिए
शक्ति और सम्मान जुटाता है और इससे स्त्री ऊर्जा सोखती है।
आज नारी शक्तिहीन नहीं, वह समाज के संग आगे बढ़ता साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराया है। हिन्दी साहित्य में स्त्री को ‘‘ जगमग दीप’’ की संज्ञा अनायास नहीं दी गई है; उसके सृजन-शक्ति और समर्पण-सद्भाव के बूते ही उसे उत्कृष्ट माना गया है। साहित्य समाज में नारी के प्रति मधुभरी गीत भी व्यंजित किये हैं-
नारी तू षक्ति विधायक, ममता की फुलवारी है।
तू
मंगलकरणी पुष्पलता, तू जगमण्डल विस्तारी है।।
साहित्य ग्रामीण समाज की नारी और शहरी समाज की
नारी का भी विभेदन करता है। वह समाज में समानता का पाठ का प्रसारण करता है। गाँवों
में नारियाँ अशिक्षा से ग्रसित अपने को कुंठित पाते हैं तब साहित्य उन्हें जगाता
हुआ शिक्षा का प्रसाद बाँटता है और नित आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
साहित्य ग्रामीण परिवेश में जीवन जीती नारियों
का उद्घाटन बड़े ही अनोखे ढ़ग से करता है। वह नारी के मानसिक संकीर्णता, घूँघट
में छुपे रहना, डर से जुड़े रहना आदि कमियों को उजागर करता है।
साहित्य-सर्जक अपनी रचनाशीलता में नारी पक्ष का
उद्घाटन निश्चित तौर पर करते हैं। उसे अपनी कृतियों में ‘‘पात्र’’ धारण
अवश्य कराते हैं; सद्गति और गबन जैसी अमर कृतिया इसके द्योतक
हैं।
साहित्य में स्त्रियों के गीत-गुंजन जैसे- कजलियाँ, सोहर, बधावा, मंगलाचरण आदि का हृदयस्पर्शी सम्मोहन मिलता है तो कहीं प्रातःकाल जात चलाने की मधुरस धुन मिलता है। स्त्रियाँ बरसाती गीत गाते हुए धान की कलमी से खेत में मक्खन समान मिट्टी से बनी किताबों में अपने मन के गीत लिखने में माहिर होते हैं। साहित्य में fस्त्रयों के मथानी चलाने का हृदयस्पर्शी धुन भी स्थापित है। यूँ कहें कि स्त्रियों के अनेक कलाकृतियों से साहित्य भरपूरित है-
आओ जी गाएँ मंगल बधाई....।
बधावा लेके आये मोर ....।
सो जा लल्ला
लोरी.......।
तुझे सूरज कहूँ या
चंदा.....।
आदि स्त्री काव्य-गुंजन से साहित्य फलता-फूलता
आया है। साहित्य स्त्री के शक्ति रूप का बखान इस प्रकार करता है-
तू शक्ति, अमरता
का प्रखण्ड प्रवेग
तू सृष्टि विस्तारी।
कला रंग से रँगी हुई तू
प्रेरक और
व्यवहारी।।
साहित्य में समाज का प्रकटन भली-भँति मिलता है।
कभी स्त्री पक्ष का उद्घाटन तो कभी प्रकृति प़क्ष का। आज की बढ़ती आधुनिकता में भी
नारियाँ अशिक्षित हैं,मन में रूढ़वादिता के कपट अब भी नहीं खुले; तब
साहित्य शिक्षा और सद्भाव का मसाल लिए आगे आता है ऐसी स्थितियों से निबटने में मदद
करता है। स्त्रियों को नई राह दिखाने में मदद करता है साथ ही नई गीतों का
चित्रांकन भी करता है।
आज ग्रामीण परिवेश में नारी
गृहस्थी में व्यस्त केवल चौका-चूल्हा तक ही जैसे सीमित है; वह
रूढ़वादिता का चादर ओढ़े अपने को संकीर्ण बनाकर जीने में लगी हुई है; तब
ऐसे में ही साहिय उन्हें शिक्षा की नई धुन देकर आगे उठाने का प्रयास करता है।
साहित्य में नारी का टोकरी में फल बेंचने, फूलों
की माला बेंचने, बाँस के बर्तन बनाने, सूत
कातने,कपड़ों में कढ़ाई-बुनाई करने का भाव चत्र अंकित
है। साहित्य स्त्रियों के ऐसे ही कर्म-निपुणता का बयान करते हुए धन्य हुआ है।
साहित्य नारी को विजयमाला और पुष्पगुच्छ भेंट
करता है तो उनके लिए कहीं नवगीत बुनता है। नारी के अटूट साहस, कर्म-तल्लीनता
और उसके निर्भयता को दिखाता आया है। इस तरह हिन्दी साहित्य में स्त्री सदैव
स्मरणीय, पूजनीय,
जीवन-प्रेरक और नवगीत बुनाने वाली मानी
जाती है।
हे माँ माटी रजकण तेरे हो मेरे मस्तक,
हे जननि! मेरे तू जीवन का सुन्दरतम् हर्षक
हृदय समर्पण जीवन अर्पण तू सृष्टि विधायक अवतारी
तेरे से जग आलोकित होता तू जीवन सबका विस्तारी
नित रोली-चंदन भेंट है
तुझको तू जीवन-निर्मात्री है
पग तेरे मैं देख चलूँ, तू
जीवन सबको दात्री है
तू रोती, जग
रोता, ये कैसी जीवनशाला है?
जनकर सबको बड़ा किया, भेंट तुझे विजयमाला है
ना पाकर तुझको साहित्य-समाज है रोता, धरती भी व्याकुल हो जाती है
माँ यह सब देख तब अपने
पुत्रों को, अँचरा तर ढाँक दूध पिलाती है।।
इस तरह साहित्य और समाज के मध्य स्त्री अनेक
भावांशों को प्रतिबिंबति करती हुई अविस्मरणीय है। विभिन्न कलाकृतियों की उपज
स्त्री को ही मानी गई है। साहित्य में समाज,
समाज में कलाएँ, कलाओं
में रंग,रंगों में प्रकृति आदि का समुच्चय सदैव से बनी
है।
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साहित्य के पन्नों से
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