गुरुवार, जुलाई 01, 2021

शिक्षा का उद्देश्य- शिक्षा विषय पर बहुत ही सुन्दर आलेख : राम सहोदर पटेल



शिक्षा का उद्देश्य 

शिक्षा उस कल्पवृक्ष  की भांति है जो जीवान्त तक मनवांछित फल प्रदान करता रहता है। शिक्षा से जीवन की सारी मनोकामनाएं सम्पूर्णता का प्राप्त करती है। शिक्षा नहीं तो कुछ नहीं, इसके बिना जीवन का अस्तित्व नहीं, मानवीयता का एहसास नहीं, समाज और देश का उत्कर्ष नही, राजनैतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक आभास नहीं, इतिहास का ज्ञान नहीं यानी शिक्षा के बिना मानवीय जीवन निस्सार तथा मूल्यहीन है।
आहार, आवास और वस्त्र के बाद शिक्षा ही मानव की आवश्यक आवश्यकता है जिसके बिना वह पग भर भी सफलतापूर्वक नहीं चल सकता। धन तो अनपढ़ भी कमा सकता है, अमीर बन सकता है, ऊॅंचा महल खड़ा कर सकता है किन्तु इस धन में स्थायित्व नहीं है। उस धन के कम जाने, गुम हो जाने और चोरी हो जाने का खतरा प्रायः बना रहता है। धन से इंसान शक्तिशाली नहीं बन सकता वह पावरफुल बनता है शिक्षा से। शस्त्र जब तक चलेगा तब तक सुरक्षा देगा लेकिन शास्त्र हमेशा तक सुरक्षित रखेगा। धन को यदि ज्ञान में बदल दिया जाय तो इंसान की शक्ति कभी कम नहीं हो सकती। ज्ञान इंसान का वह कवच है जो जीवन की हर कठिनाई में हमेशा उसका संरक्षण करता है।
शिक्षा जीवन के लिये होना चाहिए। जीवनयापन के लिये नहीं। क्या यह सही है कि आधुनिक शिक्षा हमें जीवित रहने के लिये सहायक है? अरे! जीवन  तो पशु-पक्षी, चींटी-मटा, मक्खी-मच्छर सारे प्राणी जीवन जीते हैं। जीवन जीने के लिये शिक्षा नहीं होनी चाहिये। हमारी शिक्षा जीवन के लिये होनी चाहिए, यही शिक्षा का सार है। इसके लिये शिक्षा के मूलतत्व को पहचानना होगा। मन की एकाग्रता शिक्षा का सार है, तथ्यों को एकत्र करना नहीं।
एक धोबी अनेक रइसों के घर का कपड़ा धेाता हैं धोबी को कपड़ा देते समय लोग कापी में नोट करते हैं कि कितने नग कपड़े आज धोबी को दिया और जब धोबी कपड़ा वापस करने आता है तब काॅपी से मिलान करके सारे कपड़े वापस लेते हैं। किन्तु धोबी अनेक लोगों के कपड़े लेकर जाता है और किसी के कपड़ों को वह नोट नहीं करता। फिर भी वह सही सलामत कपड़ें धोकर इस्त्री  करके सभी के कपड़ें पूरे-पूरे वापस करता है। यह धोबी का सामान्य ज्ञान है जो जन्म से ही तुम्हारे पास भी है। इसके लिये शिक्षा अनिवार्य नहीं है। हम शिक्षित होकर भी धोबी के उस ज्ञान को नहीं पा रहे हैं।
शिक्षा का अंतिम उद्देश्य चरित्र है। चरित्र के बिना शिक्षा व्यर्थ है। चरित्र भी वह है जो सीमारहित हो। चरित्र हमारे व्यवहार में, हमारी वाणी में, हमारे कार्यों में, खेल में और हमारे शब्दों में होना चाहिए। अब बात आती है कि हम चरित्र का चुनाव कैसे करें? साधारण सी बात है हम एक किलो चावल पकाने के लिये उपयुक्त बर्तन का चुनाव करते हैं। बर्तन न तो छोटा हो, न ही बड़ा। यहाॅं विवेक लगाना पड़ता है अनुकूल पात्र, अग्नि और पानी चाहिए होता है। इसी प्रकार चरित्र का चुनाव भी समय परिस्थिति के अनुसार अनुकूल ही होगा। हमारे क्रियाकलाप आचार-विचार चाल-चलन और वार्तालाप से किसी प्रकार का किसी को रंचमात्र भी दुख न पहुंचे। ऐसा ही हमारा चरित्र होना वांछित है।
प्राचीनकाल में ऋषिमुनि गुरुकुल में शिक्षा प्रदान करते थे। तब शिक्षार्थी को गुरुकुल (आश्रम)  में ही रहना पड़ता था और गुरु के साथ में रखकर आवश्यकतानुसार दिन-रात कुछ न कुछ ज्ञान देते ही रहते थे। तब असीमित ज्ञान था, पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ् आचार-विचार और संस्कारों की शिक्षा दी जाती थी। जब शिक्षार्थी को बहुमुखी शिक्षा, संस्कार तथा व्यवहार की शिक्षा प्राप्त होती थी। इस प्रकार विद्यार्थी को उच्चतम शिक्षा प्राप्त होती थी।
आधुनिक शिक्षा शिक्षित होने तक ही सीमित है जिसमें व्यवहारिकता नहीं हैं वर्तमान शिक्षा केवल किताबी ज्ञान है अर्थात केवल सतही ज्ञान है जो हर क्षण परिवर्तित होता रहता है। हमें चाहिए कि हम एजूकेयर ज्ञान को विकसित करें जो हमारे अंदर से उत्पन्न होने वाली जागरूकता या चेतना है। एजूकेयर हमें व्यवहारिक ज्ञान देता है। हमें सामान्य ज्ञान तक पहुँचाना चाहिए। जहाॅं हम  सत्य और असत्य के भेद को समझ पाते हैं और सदाचरण को समझ पाते हैं तथा व्यवहारिक ज्ञान को भी समझ पाते हैं।
व्यवहारिक ज्ञान जीवन के साथ मजबूती से सबद्ध होता है। वो हृदय जो करुणापूर्ण हो हमें शांति, पवित्रता और व्यापक तथा उदार सोच रखने की स्थिति तक ले जाता है। ज्ञानी लोगों में बुरी आदतें नहीं होनी चाहिए। किसी को भी बुरे कार्यों  में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। अन्यथा वे शिक्षित कहलाने योग्य नहीं है। 
अक्सर मनुष्य बिगड़ जाते हैं क्योंकि वे पूर्णतः किताबी ज्ञान पर निर्भर होते हैं। यह किताबी ज्ञान तभी तक मदद करता है जब तक स्मरण शक्ति रहती है। किताबी ज्ञान परीक्षा हाल तक का साथी है। परीक्षा उपरान्त सिर खाली। क्योंकि किताबी ज्ञान को विवेकपूर्ण ज्ञान में विकसित करने का हमें अवसर ही नहीं दिया जाता। और हम जीवन पर्यन्त अधूरे रह जाते हैं।
किताबी ज्ञान को विवेक की इस स्थिति तक पहुंचाने के लिये सामान्य ज्ञान आवश्यक है। सामान्य ज्ञान में सरल बुद्धिमता होती है। सामान्य ज्ञान और सामान्य समझ को एक साथ उपयोग में लिया जाता है तब सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किया जा सकता है । जिससे लोकहित, समाजहित तथा देशहित होता है। स्वार्थपरता तिरस्कृत होती  है।
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रचना
राम सहोदर पटेल, शिक्षक
ग्राम-सनौसी, तहसील-जयसिंहनगर थाना ब्योहारी जिला-शहडोल मध्यप्रदेश
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