रविवार, मई 31, 2020

प्रकृति-प्रेम: राम सहोदर


खुद को समझदार कहते ही कहते तू।
बना रहा बेवकूफ पागल आवारा है।।
गलती तू करता रहा कभी सोचा नहीं तूने।
आबादी को रोका नहीं पाया पौबारा।।
संख्या बढ़ाया तूने प्रकृति तो है दोषी नहीं।
ऐश है कीन्हा तूने पौधों को रुलाया है।।
उद्योग व कारखाना स्वारथ में कीन्हें निर्मित।
केमिकल का गन्दा नाली नदी में बहाया है।।
पानी प्रदूषित कीन्हां जल चर बिनष्ट हुए।
इन्हीं के दुर्गंध से वायु भी नशाया है।।
रेलगाड़ी मोटरकार हित में बनाया अपने।
उड़ेल रहे धुआं आसमान मंडराया है।।
समय रहते सोच मानव अभी कुछ ही बिगड़ा है।
पेड़ लगाय प्रदूषण रोको निज परहित समाया है।।
प्रकृति को सहोदर मान रक्षा करो नित्य प्रति।
केमिकल उपयोग को न्यूनतम करबाया है।।
प्रतिकूल जलवायु उपयोग होगा तभी।
प्राणवायु शुद्धि वाले वृक्षों को लगाया है।।
दुर्गन्ध नाली रोको नदी जल को बचाना है।
सलिल न प्रदूषित हो जन कल्याण समाया है।।
रचनाकार:
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शुक्रवार, मई 29, 2020

ऋतु चक्र में बदलाव: राम सहोदर


विधिना ने कीन्हीं रचना सृष्टि को विचार के।
धूप-छाँव सर्दी-गर्मी ऋतुएं समान हों॥
पैदा कीन्हा प्राणी जीव सूक्ष्म से विशाल तक।
कोई घटे न कोई बढे संतुलन समान हो॥
मांसाहारी, शाकाहारी चाराहारी पैदा कीन्हें।
आपस में समतुल्य रहें प्रकृति का वितान हो॥
समतल से पठार तक नदियाँ पहाड़ कीन्हें।
चारा कहीं जंगल कहीं खेत और मैदान हों॥
संतुलित बनाया जग को विधि ने विधान से।
मानव को है अकल दीन्हा खुद ही परेशान हो॥
औद्योगीकरण शहरीकरण स्पर्धाकरण होड़ में।
संतुलन बिगाड़ा तूने न विधि के विधि का मान हो॥
अंधाधुंध काटे पेड़ जीवों का शिकार किया।
ब्रह्मा की बिगाड़ी रचना समता का अवसान हो॥
ऋतुचक्र बदल दिया तनातनी होड़ में।
मौसम अनिश्चित हुए न समय में चालान हो॥
ओजोन परत क्षीण हुआ प्रदूषण के विस्तार में।
गर्मी बढे हिमालय पिछले जग भी अंतर्ध्यान हो॥
संतुलन बनायें अभी भी विधि के विधान से।
कहे सहोदर पौधा रोपो प्रदूषण का निदान हो॥
रचनाकार:
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मितव्ययिता:संतुलन एवम समभाव: जनार्दन

मितव्ययिता:संतुलन एवम समभाव

विवाह मानव समाज की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा प्रकृति की वंशवृद्धि की स्वाभाविक व्यवस्था को बनाये रखा जाता है. हालाँकि समाजविदों की इसकी अन्य परिभाषाएँ भी हो सकती हैं. किन्तु विवाह संपन्न कराने के तौर-तरीकों का खर्चीला हो जाना समाज को चिंतित करता है. कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है. इस बात को चरितार्थ किया है खण्डवा मध्यप्रदेश के समाज सेवियों ने. जिसमें उन्होंने लॉकडाउन की परिस्थतियों में सादगी के साथ करीब एक सैकड़ा से अधिक विवाहों को मितव्ययी तरीकों से संपन्न कराया गया है. दावा किया गया है कि यदि यही विवाह परम्परागत तरीकों से किये जाते तो करोड़ों रूपये खर्च किये जाते. खंडवा, एमपी  के लोगों ने बहुत ही अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है। बचपन में मुझे भी स्काउट गाइड में प्रशिक्षण प्राप्त करने का मौका मिला , एवम् वहीं से मितव्यई जीवन की नींव पड़ी।

कम खर्च में अपना जीवन यापन एवम् सामाजिक समारोह के  हमेशा से पक्ष धर रहे हैं हम लोग, किन्तु जब इस सिद्धांत को कार्य में  तब्दील करने का वक्त आता है, तब कुछ लोग हिम्मत दिखाते हैं एवम् कुछ लोग पीछे हट जाते हैं ।

किसी भी वस्तु या सेवा का प्रचार - प्रसार  करने के लिए जिस प्रकार उद्योगपतियों द्वारानामी गिरामी व्यक्तियों को सामने रखा जाता है , ठीक उसी प्रकार , मिताव्यिता का प्रचार प्रसार एवम् अनुकरण करने हेतु समाज/ देश में प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्तियों को आगे आने की जरूरत है।

ऐसा करने से न सिर्फ समाज एवम् राष्ट्र में एक संतुलन एवम् समभाव स्थापित होगा , अपितु साधन संपन्न समूह, अपनी व्यक्तिगत बचत से मानवता के नव निर्माण में सहयोगी भूमिका निभा पाएंगे 🙏

 मनसा - वाचा - कर्मणा के क्रमिक सिद्धांत के अनुसार संतुलन एवम् समभाव स्थापित करने के लिए पहले अपने मन को तैयार करना है , उसके बाद हर मंच में, हर फोरम में इन सद गुणों की  चर्चा करके एक Eco System तैयार करना है, फिर आप पाएंगे कि अपने मनो भावों को कार्य में तब्दील करने में आसानी होगी।  ऐसा करके , आप और हम , जीवन में अनेक सकारात्मक एवम् नकारात्मक तनावों से मुक्त हो सकते हैं।

विश्वास मानिए, संतुलन एवं समभाव स्थापित करने के लिए बढ़ें हुए ये  कदम , एक बेहतर मानवता के निर्माण में सहायक हो रहे हैं । 🙏

जय 🇮🇳हिन्द , जय 🌍 मानवता

जनार्दन 29 मई 2020

नवी मुंबई
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गुरुवार, मई 28, 2020

प्रकृति-राग:-रजनीश (हिंदी प्रतिष्ठा)





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बुधवार, मई 27, 2020

किसान पिता और पुत्र: बी एस कुशराम


किसान पिता और पुत्र

परदेश न जा लल्ला, कमाबै यहाँ गल्ला। परदेश न जा....
परदेश जा हूँ दादा, पैसा कमाहॅूं ज्यादा। परदेश जा हूँ...--

खुद के जमीन है, दो हर के बरदा।
हर जोते खातिर, हम दो जन मरदा॥

कोऊ नहीं निठल्ला, परदेश न जा..--

संगी संगबारी सब, जाथे बहुत जन।
वहाॅं रहिके कमाबो हम बहुत सा धन॥

या मोर है इरादा, परदेश जा हॅूं दादा....................

घर के चिराग तै, एकै ठन पुत्तर।
वहाॅं कुछ हो जाई, ता का देहूँ उत्तर॥

लई देहूॅं चांदी छल्ला, परदेश न जा लल्ला...........

वहाॅं कमाहूॅं औ लेहूॅं मोबाइल।
तोर निता जाकिट औ अम्मां के पायल॥

फोन करहॅूं दादा, परदेश जा के दादा.........

फोन से बात भइस, यहाॅं फैले कोरोना।
लाॅकडाउन लागू है, घर से निकरोना॥

काम बंद दादा, पैसा नहीं ज्यादा। परदेश जाके.........

बाप के कहना तो माने तै नहीं।
लौट कइसे आबे, तै ठहर जा वहीं॥

अब का करिहे लल्ला, न देहीं कोऊ धेल्ला। परदेश माहीं....

मा-बाप के कहना, तोही मान ले चाही।
कुशरामकहे सुख चैन मिलत घर माहीं॥

अब घर आ जा लल्ला, घर मां हवे गल्ला। परदेश छोड़....
समझ गयो दादा, पलटगे मोर इरादा। परदेश जाके .....
बी एस कुशराम
प्रभारी प्राचार्य, हाई स्कूल बड़ी तुम्मी

विकासखंड-पुष्पराजगढ़जिला-अनूपपुर
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जीवन का दीपक बुझा नहीं है (कविता): मनोज कुमार

"जीवन का दीपक बुझा नहीं है"

जीत   पर्यंत  तक  लौ दीपक  का,
प्रज्वलित   है   निज   अतरंग   में ।
निमिष    मात्र     अविराम    नहीं,
अति उद्वेग  समाविष्ट  अंतर्द्वंद  में ॥

इस वीर बसंतों की समर  भूमि में,
जंग  हेतु अपना कमर तैयार करो।
हृदय  से   निज  ममत्व,  मोह का,
अब  अति   शीघ्र  परित्याग  करो॥ 

चाहे   मेघ  की   तीव्र   गर्जना  हो,
या   अति   तीक्ष्ण   चले    बयार।
विजय     की    जंग     उमंग   में,
पराक्रमी,  शौर्य,  वीर  हो   तैयार॥

योद्धाओं   की   इस   रणभूमि   में,
प्रतिद्वंदी   का  बज  चुका   दुदुंभी।
प्रविष्ट कोरोना सैन्य सकल महि में,
अब  स्वयं   कमर  कसा  प्रतिद्वंदी॥

हृदय  में   आदम्य   समाविष्ट   कर,
अब   धीर,     वीर     संघर्ष    करो।
निज  कायरता  को  परित्याग  कर,
इस    जीवन    में   उत्कर्ष    करो॥

जीवन  दीपक प्रदीप्त  कर उर   में,
अंतःपटल में नवजोश सृजन  करो।
अब   बुज दिल   को  उद्दीप्त   कर,
सर्व वसुधा जनार्दन के कसक हरो॥

विश्व  विक्षिप्त   है  इस   समर   से,
निज   अंतः करण    में   क्रोध   है।
इस   मन   में    अति    ग्लानि   है,
किंचित   न   आमोद - प्रमोद    है॥

निज  निकेतन  से  बहिर्गमन   कर,
जीवन  में  नव   उच्च  श्वास  भर।
इस   प्रतिकूल   परिस्थितियों    में,
सकल  उर्वी  जीव  के  क्लेश  हर॥

कामयाब  हो   इस   महा  जंग  में,
घट   नूतन   अरमान  सृजन  कर।
एकदिन विश्व विजय होगा भारत,
भारत का तत्क्षण विजयगान कर॥

        स्वरचित एवं मौलिक
        मनोज कुमार चंद्रवंशी
     जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश

पर्यावरण महोत्सव पर दो कविताएं: राम सहोदर


.....1....
वन बिन जीवन है बेकार।
वन ही जीवन मरण है वन ही, वन ही प्राणाधार।
वन बिन कुछ भी नहीं है प्यारे, जीवन का पतवार।।
वन ही घर है वन ही फल है, वर्षा का आधार।
वन के ही बल श्वास चलत हैं, वन मुक्ति का द्वार।।
वन संरक्षण, भू संरक्षण, जल संरक्षण सार।
पर्यावरण प्रदूषण न कर, न कर अत्याचार।।
कहैं सहोदर वन उत्सव में शपथ करो दो चार।

पेड़ लगाना, वृक्ष बचाना कर धरती से प्यार।।

                   ....2...
मानव स्वारथ से लिपटानी।
स्वारथ में ही लीन रहत है परमारथ न जानी।
स्वारथ पैर कुल्हाड़ी निज पर मार करे नादानी।।
उपयुक्त सलाह जो देना चाहे करता आनाकानी।
समझाने पर देत सफाई न छोड़े मनमानी
।।
आपन दोष पराए मढ़कर, बोले चिकनी बानी।
रखे सहोदर भाव न तरु से फिर पीछे पछतानी।।
रचनाकार:-
राम सहोदर पटेल
स. शिक्षक, शा. हाईस्कूल नगनौड़ी
निवास ग्राम-सनौसी, तहसील-जयसिंहनगर, जिला-शहडोल मध्यप्रदेश
........................................................

मंगलवार, मई 26, 2020

बाबूजी सच कहूँ: कोमल चंद


बाबूजी सच कहूं

           1

अन्न उगाते हम
भूखे भी हम
बांध बनाए हम
प्यासे भी हम।

        2

स्कूल बनाए हम
अनपढ़ भी हम
कपास उगाते हम
नंगे भी हम।

        3

मकान बनाए हम
बेघर भी हम
अस्पताल बनाए हम
मरते भी हम। 

         4        

हमनें अपना दुख कह दिया
तुम्हारे महलों में हमारे चिन्ह 
फिर भी हम तुमसे भिन्न ...
 हमारा हिस्सा .....
हमें लौटा जाओ,
कहीं ऐसा ना हो,
इस धरा में अकेले रह जाओ।

             5

सोचता हूं चला जाऊं बचपन में
बनाकर टोलियां खूब खेलू खेल,
जो हमारा हक छीनते हैं,
उन्हें भेज दूं जेल।

             6

सोनू,मोनू, दीनू, दुखिया,
सब होंगे अधिकारी
बिजली-पानी राशन
आवास योजना.....
सबकी होगी इंक्वायरी
नहीं बचेंगे शोषणकारी।

             7

ना रहेगी अंधेर नगरी,
ना होगा चौपट राज,
फांसी का फंदा नया बनेगा,
अपराधी उसमें जरूर चढ़ेगा।

                8

फर्जी योजना बंद करेंगे,
जनहित के काम करेंगे।
भूखा,नंगा, घर बिन आटा,
उसको कहां मिलेगा डाटा।

              9

 यह योजना बेकार,
 इसको बंद करेंगे।
 बचपन है खुशहाल,
 वहीं हम राज करेंगे।

              10

शोषण करने वालों को,
कभी ना हम माफ करेंगे।
............................
कोमल चंद कुशवाहा
शोधार्थी हिंदी
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
मोबाइल 7610103589
.................................

मानवता: नव चेतना - नव वर्गीकरण: जनार्दन

मानवता: नव चेतना -  नव वर्गीकरण

पिछला एक वर्ष , परिवार के साथ बड़े ही आनंद से बीता है। जब साथ में मां भी रहे, घर में डेढ़ दो साल का अबोध बच्चा हो, तो आनंद की कल्पना करना आसान है। मायानगरी में कई महीने बीतने के बाद ऐसा संयोग बना (बेटी के स्कूल में और मेरी ऑफिस में छुट्टी एक साथ) कि इस बार की होली, रीवा में मनाई जाए। सभी लोग साथ में रीवा आ गए। मां कुछ समय बड़े भैया के पास बिताने की इच्छा से गांव चली गईं , मैडम बच्चो के साथ मायके। मै अपनी सीमित छुट्टियां पूरी करके, अपनी बेरोजगारी दूर करने 15 मार्च को मुंबई वापस पहुंच गया। एक हफ्ते बाद लॉक डॉउन की शुरुआत हो गई। आदेश मिला - स्टेचू । तब से 70 दिन हो गए हैं- मरीजों की संख्या गिनते गिनते। अनुभवी लोग कहते हैं, *समय की धारा जब अनुकूल न हो तो अपनी योजना बनाएं , लेकिन रुककर नहीं, धारा में बहते बहते* ।
 खूब समय मिला, खुद से संवाद का, स्वयं से साक्षत्कार का एवम् मानवता की सेवा में सहयोगी बनने का , पिछले 60-65 दिनो मे शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो, जिसमे सेवा में सहयोग करने का अवसर न मिला हो। संभवतः इसीलिए एक नई बात समझ में आई। नव चेतना से जन्मे , नव वर्गी वर्गीकरण के विचार आप सब को समर्पित है 🙏

बुद्धिजीवियों ने विश्व का वर्गीकरण  कई रूपों में किया है, उनमें से प्रमुख वर्गीकरण हैं :  देशों के आधार पर (राजनीतिक सत्ता- लगभग 200 देश), धर्मो के आधार पर (धार्मिक सत्ता- लगभग 10), आर्थिक आधार पर ( उच्च , मध्यम & निम्न - एवम् मध्यम वर्ग में भी उच्च मध्यम & निम्न मध्यम वर्ग इत्यादि) । फिर हर धर्म में कई संप्रदाय / जातियां / वर्ग मौजूद हैं ।

दुनिया के वर्गीकरण का एक और तरीका भी है:  *किसी भी  क्षण दुनिया को दो भागो में बांट सकते हैं* -
1. साधन संपन्न समूह ( *साधन समूह* ) एवम् 2. जरूरत मंद ( *जरूरत समूह* )
इन दोनों भागों में समाहित इंसानों की संख्या, एवम् इंसान , हर पल परिवर्तन शील हैं। अर्थात जो व्यक्ति सुबह साधन समूह में है, हो सकता है, दोपहर होते होते जरूरत मंद बन जाए, खुद को जरूरत समूह में पाए।  कभी कभी ये संक्रमण और भी कम समय में हो जाता है। आइये एक उदाहरण से बात समझने का प्रयास करते हैं:  रमेश भाई रोज सुबह अपनी बाइक लेकर मित्तल साहब की कार साफ करने जाते हैं। 1 मार्च  को भी कार साफ की,  500 रुपए का नोट (महीने की पगार)  लिया  और  निकल लिए अगली कार की ओर। एक घंटे बाद, मित्तल साहब और उनका ड्राइवर एयरपोर्ट के लिए रवाना हुए,  लेकिन किस्मत खराब थी, कार बीच रास्ते में बिगड़ गई, समय बहुत कम बचा है, फ्लाइट छूटने की नौबत आ गई। कुछ को हाथ दिया पर कोई रुका नहीं।  मित्तल साहब खुद को कोशने लगे कि थोड़ा और पहले निकलते तो मार्जिन रहता, काश! ये गाड़ी बेचकर नई ले ली होती.... कई संचारी भाव आते - जाते रहे, ऐसा लगने लगा  कि आज फ्लाइट जरूर छूट जाएगी, उनकी दशा बिल्कुल जरूरतमंद वाली हो गई।
संयोग से रमेश भाई, काम पूरा करने के बाद उसी हाइवे से लौट रहे थे तो मित्तल साहब की कार देखकर रुक गए, सारी बात समझने के बाद, मित्तल साहब को बाइक से एयरपोर्ट छोड़ा। मित्तल साहब ने बड़े कृतज्ञता के भाव से रमेश भाई को धन्यवाद दिया , ड्राइवर को फोन पर समझा दिया कि कार ठीक करवा के घर में छोड़ दे। इस कहानी में दोनों पात्र एक दूसरे के पूरक हैं ।
ठीक ऐसे ही जैसे मकान एवम् उसमे रहने वाले  लोग एक दूसरे के पूरक हैं, भोजन एवम् भूख एक दूसरे की पूरक हैं :ठीक वैसे ही साधन एवम् जरूरत एक दूसरे की नितांत पूरक हैं, अर्थात साधन समूह एवम जरूरत समूह भी एक दूसरे के पूरक हैं। मेरी अन्तर्मन कहता है कि सदियों पूर्व दोनों समूह , बड़े ही समभाव से रहते रहे होंगे।  इनमे याचक व दाता का भाव नहीं रहा होगा। 
दोस्तों,
जरूरत मंदी के कई आयाम होते हैं, सतही तौर पर मै सिर्फ भौतिक वस्तुओं के जरूरत मंद को ही असली जरूरत मंद समझता था, किन्तु लॉक डॉउन में 70 दिनो से 3 कमरों वाले घर में रहने के बाद , कुछ आयामों में खुद को जरूरत मंद महसूस कर रहा हूं, ठीक मित्तल साहब की तरह। आज पूरी दुनिया मे करोड़ों बुजुर्ग (आर्थिक रूप से सम्पन्न होने के बावजूद) , जरूरत मंद की जिंदगी बिता रहे हैं, नजर दौड़ाइये, अनेक मिल जाएंगे।

मेरा मन कहता है कि दुनियां में ऐसे अनेक संवेदन शील साधन संपन्न इंसान हैं , जो जरूरत मंद की मदद के लिए आगे आना चाहते हैं , किन्तु पिछले कुछ वर्षों में एक अजीब सी बात देखने को मिली है। वो *अजीब बात है: विशेषणों का अनुचित प्रयोग ।* जब भी कोई व्यक्ति/परिवार, परिस्थिति वश, कुछ समय के लिए जरूरत मंद बन जाता है , तो उसके उपर गैर जरूरी विशेषण (धार्मिक/ जातिगत / आर्थिक) चिपका दिए जाते हैं और बात यही से बिगड़ता शुरू हो जाती है। जब कोई हत्या होती है तो सोशल मीडिया में ऐसी खबर बनती है : फलाने गांव में ... दबंगों ने ... जाति/धर्म के लोगों की हत्या की। कभी ऐसा नहीं होता कि अपने आपको हितैषी दिखाने वाले लोग : सोशल मीडिया में परिवार के मुखिया का खाता नंबर दें और ये अपील करें कि इनके परिवार की मदद कीजिए। विश्वास मानिए : अगर बिना विशेषण लगाए, किसी हत्या / लूट की जानकारी दी जाए तो जिस जाति / धर्म के 4 भटके / नासमझ इंसानों ने वह गलत  काम किया होगा, उसी जाति/ धर्म/ वर्ग के 40 लोग जरूरतमंद की मदद के लिए तैयार हो जाएंगे। सोशल मीडिया का सिर्फ इस रूप में प्रयोग हो, तो एक बेहतर मानवता का निर्माण संभव है। 

हमारा विजन है : *एक ऐसे संसार का निर्माण , जिसमें वर्गी करण सिर्फ और सिर्फ साधन एवम् जरूरत के आधार पर हो और दोनों समूहों में समभाव हो* ।

आप सबके साथ मिलकर,  एक बेहतर 🌍मानवता के निर्माण में अपनी भूमिका निभाने को तैयार 🙏

आलेख-जनार्दन (26 मई 2020)
सीवुड,  नवी मुंबई

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सोमवार, मई 25, 2020

समय की धारा: Ⓒबी एस कुशराम


समय बड़ा बलवान है, यह तो बहुत महान है।
समय की धारा जो अपनाता, वही खरा इंसान है।।
सुख में हंसाता, दुख में रुलाता, समय- समय की बात है।
समय चक्र तो चलता रहता ये तो सदा गतिमान है।।
समय से होता ऋतु परिवर्तन, समय से ही दिन रात है।
बीता समय बहुरि न आता, समय की महिमा महान है।
समय से चलते चंदा सूरज, उदय अस्त पाबंद है।
जीवन चक्र ऐसे ही चलता, जीवन मरण का मान है।।
बालापन, यौवन, बुढ़ापा समय ही तो बताता है।
जीवनपर्यंत नेकी करना, समय का ये ऐलान है।।
समय भला है, समय बुरा है, समय ये देता परिचय है।
समय बढ़ाता, समय घटाता समय ही देता ज्ञान है।।
बुरे समय में ना घबराओ, अच्छे में इतराओ ना।
अच्छा बुरा तो आता ही है, समय चक्र गतिमान है।।
व्यर्थ गंवाओ नहीं समय को, समय के सब पाबंद रहो।
सद प्रयत्न परिश्रम करना, कहते सभी सुजान हैं।।
समय बड़ा अनमोल है, इसका कोई मोल नहीं।
सदुपयोग वक्त का करिए, बन जाएंगे काम है।।
सफलता की कुंजी है ये, तन मन को सब व्यस्त रखो।
कामयाबी मिलके रहेगी, यह कहता 'कुश राम' है।।
समय की धारा जो अपनाता,वही खरा इंसान है।
बी एस कुशराम
प्रभारी प्राचार्य, हाई स्कूल बड़ी तुम्मी
विकासखंड-पुष्पराजगढ़जिला-अनूपपुर
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वनवासी: कोमल चंद

   
 वनवासी

              1

शहर की अफरा-तफरी
लांक डाउन की पाबंदियों
से परेशान होकर
आज मेरा मन जंगली हुआ।

                2

मैंने जंगली गावों में जाकर देखा
आज भी वहा लोग खुशी में मस्त हैं।

                3

जहां सारी दुनिया है मौत के कगार पर 
डूबती उतराती है अंतर्द्वंद के विचार पर
वही वनवासी तेंदूपत्ता तोड़ने
और चिरौंजी बटोरने में व्यस्त हैं।

                4

एक बुजुर्ग से
मैंनें कहा....
आज कल शहरों में महामारी है,
एक दूसरे को छूने से होती है।

              5

उसनें कहा.....
हमारी वनदेवी हमारी रक्षा करती है,
वही सब बीमारियों को दूर करती है,
मैंने पूंछा यह वनदेवी कहां रहती है?

                   6

उसने कहा......
अरे! शहरी बाबू यह कोई मूर्ति नहीं है।
जंगली जड़ी, बूटियां,ही वनदेवी हैं।
हम वनों की रक्षा करते हैं।
वह हमारी रक्षा करते हैं।

                7

 पेड़ जिन्हें हम पूजते हैं।
 वही प्राणवायु देते हैं
 नदियां जिनका पानी 
 बोतल के पानी से शुद्ध है।

              8

 हमारे जंगल की  हवा
 शहरों की हवा से शुद्ध है।
 नि:स्वार्थ भाव वाली
 हमारी वनदेवी है।

              9

वहां मुझे सोन्दर्य दिखा
मैं एक दिन का बनवासी हुआ
पूरे दिन की थकान दूर करने को
आज भी उनकी मांदल सुरक्षित है।

                   10

शहर की चकाचौंध से दूर,
लोक जीवन के रंगों से भरपूर,
मैंने वहां मानवता के संस्कार देखें
जिनके पास रुपए पैसे नहीं 
लोक कल्याण की भावनाएं हैं।

                     11

 उनकी परंपराएं,मान्यताएं
 आज भी जंगलों में सुरक्षित है।
 यही उनकी पूंजी है
जिससे मानव जीवन रक्षित है।

                     12

इन्होंने ही सुरक्षित रखा हुआ है।
हवा, पानी, प्राकृतिक संसाधनों को
शुद्ध हवा और मीठे जल का स्वाद
यह उसी वनदेवी का है, प्रसाद...

                  13

ए जंगली नहीं है।
छल कपट द्वेश इनमें नहीं है।
मन से भोले हैं सरल और विश्वासी हैं।
प्रेम, सौंदर्य, संस्कृति रक्षक,बनवासी।

कोमल चंद कुशवाहा
शोधार्थी हिंदी
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
मोबाइल 7610103589


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