विधिना ने कीन्हीं रचना सृष्टि को विचार के।
धूप-छाँव सर्दी-गर्मी ऋतुएं समान हों॥
पैदा कीन्हा प्राणी जीव सूक्ष्म से विशाल तक।
कोई घटे न कोई बढे संतुलन समान हो॥
मांसाहारी, शाकाहारी चाराहारी पैदा कीन्हें।
आपस में समतुल्य रहें प्रकृति का वितान हो॥
समतल से पठार तक नदियाँ पहाड़ कीन्हें।
चारा कहीं जंगल कहीं खेत और मैदान हों॥
संतुलित बनाया जग को विधि ने विधान से।
मानव को है अकल दीन्हा खुद ही परेशान हो॥
औद्योगीकरण शहरीकरण स्पर्धाकरण होड़ में।
संतुलन बिगाड़ा तूने न विधि के विधि का मान हो॥
अंधाधुंध काटे पेड़ जीवों का शिकार किया।
ब्रह्मा की बिगाड़ी रचना समता का अवसान हो॥
ऋतुचक्र बदल दिया तनातनी होड़ में।
मौसम अनिश्चित हुए न समय में चालान हो॥
ओजोन परत क्षीण हुआ प्रदूषण के विस्तार में।
गर्मी बढे हिमालय पिछले जग भी अंतर्ध्यान हो॥
संतुलन बनायें अभी भी विधि के विधान से।
कहे सहोदर पौधा रोपो प्रदूषण का निदान हो॥
रचनाकार:
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