मंगलवार, जून 30, 2020

पावस का आगमन: सुरेन्द्र कुमार पटेल

पावस का आगमन
धरा पर नाचने लगे  जब  तेज तपन
लौ-लपट का  पहनकर आभासी वसन
पवन बिछाने लगे जब पावक-सा शयन
धरा पर तब होता है पावस का आगमन।

सागर हिय मिलने धरा से जाये मचल
कहने भाव सागरजल जब जाये उछल
तापांतर का वेग  सह नहीं पाता गगन
धरा पर तब होता है पावस का आगमन।

कृषकों का देह गिरने लगे बनकर तरल
तपन बन जाये जब जीवों के लिए गरल
मुरझाने लगें जब धरा के श्रृंगार वन-सुमन
धरा पर तब होता है पावस का आगमन।

बीज नवांकुर बनने हो जाएँ जब विकल
पौध-प्रसूता लालायित हो जब धरा सकल
लौटाना हो जब प्रकृति को धरा का यौवन
धरा पर तब होता है पावस का आगमन।

करने भीषण ग्रीष्म का वीभत्स रूप हरण
हर जीर्णता धरा का पहनाने हरित वसन
रखना हो मोर, पपीहा और दादुर का मन
धरा पर तब होता है पावस का आगमन।

(सर्वाधिकार सुरक्षित,मौलिक एवं स्वरचित)

©सुरेन्द्र कुमार पटेल

ब्योहारी, जिला-शहडोल (मध्यप्रदेश)
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कुदरत का करिश्मा: बी एस कुशराम


रचनाकार--- बी एस कुशराम बड़ी तुम्मी
शहर--- अनूपपुर (मध्य प्रदेश)
दिनांक--- 30 जून 2020
दिन--- मंगलवार
विषय--- कुदरत का करिश्मा
विधा--- कविता
     🙏 कुदरत का करिश्मा🙏
वरदान है मानव के लिए,देखो करिश्मा कुदरत का।
अभिशाप भी है जग के लिए,ये तो करिश्मा कुदरत का।।
   अस्तित्व को बचाए रखें, वरदान साबित होगा,
   गर करोगे छेड़छाड़,अभिशाप होगा कुदरत का।
   वरदान है मानव के लिए----------

पूजा करें कुदरत का, यश गान करें शोहरत का,
फल मिलेगा पक्ष में, मौका न होगा शिकायत का।
वरदान है मानव के लिए-----------
   हम ऐसा करें उपक्रम, पर्यावरण सुधारें हम,
   समाज देश उन्नत करें, विकास हो भारत का।
   वरदान है मानव के लिए---------
प्रकृति से न करें खिलवाड़, प्रगति का लगाके आड़,
   
   असर विपरीत पड़ेगा, एहसान मानो कुदरत का।
   अभिशाप भी है जग लिए----------
    बिन मांगे सब कुछ देता, हमसे कुछ भी नहीं लेता,
   संरक्षण व संवर्धन करें, सम्मान करें कुदरत का।
   वरदान है मानव के लिए-----------
कुशराम का है ये कथन, वृक्ष लगाएं सभी जन,
कुदरत ही से जीवन है, समझो करिश्मा कुदरत का।
वरदान है मानव के लिए,देखो करिश्मा कुदरत का।।
अभिशाप भी है जग के लिए, ये तो करिश्मा कुदरत का।।
            सधन्यवाद
बी. एस. कुशराम बड़ी तुम्मी,
जिला अनूपपुर (मध्यम प्रदेश)

सोमवार, जून 29, 2020

यह जांच का विषय है


यह जांच का विषय है

यदि पृष्ठभूमि हो सरल और सहज
तो किसी आरोपी पर आरोप तय है।
पृष्ठभूमि हो जरा-सी गम्भीर उसकी
तो कहते यह जांच का विषय है।

एक इंच भी  सरकारी जमीन पर
गरीब का हो दखल तो हटना तय है।
बड़े-बड़े शहरों में बड़े आशियाने बने
है सरकारी यह जांच का विषय है।

मामूली धाराओं के आरोप में
सलाखों के पीछे पहुंचना तय है।
संगीन अपराध-आरोपी संसद पहुँचकर
कह जाते यह जांच का विषय है।

पूरे न हों कागजात गाड़ियों के तो
चालान कटना सरकारी निश्चय है।
ले-देकर निपटाने के मामले पर,
चुप रहना यह जांच का विषय है।

इतिहास के पन्नों से लिया है हिसाब,
उस पर हो रहा खूब अभिनय है।
वर्तमान के बिगड़ते भूगोल पर चुप,
बिगड़ा भूगोल यह जांच का विषय है।

छोटी-छोटी मछलियां जाल में फँसीं,
बड़ों का जाल से निकलना विस्मय है।
ऐसे अजूबे जाल को बनाया किसने
ज्ञानी कहते यह  जांच का विषय है।

मृतक  खोद जाते कागदों पर ताल,
वही पीते पानी हमें तो भूतों का भय है।
भूतों को दिया है राशन-पानी जो,
है उनका संसार यह जांच का विषय है।

क्यों नहीं रख पाते वे वोटरों का मान,
क्यों अब पार्टी से अलग उनका लय है।
कितने में  बिके हैं  उनके  लिखे गीत,
लिखेंगे गीत और यह जांच का विषय है।

जब भी सही दिशा में हो रही हो जाँच,
जाँच पर जाँच बिठाना बिल्कुल तय है।
हो जाता है रातों रात ट्रांसफर भला क्यों,
है ऐसी प्रथा क्यों यह जांच का विषय है।

कविता तो होती है कोमलांगी सदा ही,
प्रतिकार-प्रहार  तो  इस पर अनय है।
है यह समाज के बिंब का सूक्ष्म प्रतिबिम्ब ही
हमने देखा या नहीं यह जांच का विषय है।
              (मौलिक एवं स्वरचित)
©® सुरेन्द्र कुमार पटेल
ब्यौहारी, जिला-शहडोल
(मध्यप्रदेश) 

आषाढ़ का पानी(कविता)

आषाढ़ का पानी
ये आषाढ़ का पानी है,
घनघोर बरसता है हरदम।
बादल रोज घुमड़ता है,
पुरजोर गरजता है हरदम।।
चिड़ियों का कलरव लगता है,
जैसे बजता हो सरगम।
बिजली भी तेज कड़कती,
तेज चमकती है हरदम।।
झूमे गायें तृण-लताएं,
पवन शोर मचाये हरदम।
आजादी उत्सव के दिन,
सब लहरायेंगे परचम।।
विपथ न हों पर्वत से,
बहती नदियाँ; ये झरना।
धरती रहे खुशहाल सदा,
पेड़ लगाते ही रहना।।
नभ मंडल में इंद्रधनुष,
विखराये अपना रंग।
नदियाँ भी उफनाती है,
बरखा रानी के संग।।
लेकर बादल; पानी को,
सूरज का लाज बचाये।
ये बारिस के मौसम में,
वन-उपवन ताज लगाये।।
खुशियां लाती वसुधा पर,
ये आषाढ़ का पानी।
बसुधा भी हरियाली लाती,
प्रेम प्रगाढ़ की बानी।।
धरती अपनी प्यास बुझाकर,
नदियों की सत्कार करे।
पानी बरसे आषाढ़ माह का,
जीवों पर उपकार करे।।
बीज अंकुरित हो जाते हैं,
पाकर आषाढ़ का पानी।
कृषक मगन हो जाते हैं,
पाकर आषाढ़ का पानी।।
©®डी.ए.प्रकाश खांडेकर
शासकीय कन्या शिक्षा परिसर            
पुष्पराजगढ़,अनूपपुर (म.प्र.)

हाइकु (भारत में कविता की नयी विधा): अविनाश सिंह


1. हाइकु:-पिताजी संबंधित
*******************
पेड़ की छाया
उसके फल-फूल
होते हैं पिता।

धूप में छांंव
गागर में सागर
होते हैं पिता।

उठाये बोझ
जिम्मेदारी से दबे
होते हैं पिता।

घर की खुशी
मंदिर के देवता
होते हैं पिता।

पिता हमारे
है चाँद और तारे
लगते न्यारे।

पिता महान
दे वो जीवन दान
करो सम्मान।

पिता का प्यार
न दिखता हमेशा
है एक जैसा।

मुश्किल कार्य
हो जाते है आसान
पिता के साथ।

घर की नींव
भोजन का निवाला
जुटाये पिता।

पिता का रूप
अदृश्य महक सी
चारों तरफ।

पिता दुलारे
करे मार्गप्रशस्त
गुरु समान।

पिता की डाँट
सफलता का राज
रखना ध्यान।

घर की शान
रखे सभी का ध्यान
करो सम्मान।

2. *हाइकु:-हार या जीत*💐
********************
हार या जीत
सिक्के के दो पहलू
ना करो भेद।

हार या जीत
होते मन के भ्रम
भरे अहम।

हार या जीत
कर्म के होते फल
कम या ज्यादा।

जीत या हार
जीवन के दो मंत्र
रहो तैयार।

हार या जीत
गाड़ी-चक्का समान
उलट फेर।

हार या जीत
सावधानी से चुनो
आगे को बढ़ो।

हार या जीत
परिवर्तन शील
नही अडिग।

हार या जीत
न मिले लगातार
करो संघर्ष।

हार या जीत
मिलेगा एक दिन
मान या ठान।

हार या जीत
दे गम या अहम
रहना दूर।

हार या जीत
देगा दुख या सुख
पहले उठ।

हार या जीत
है दीपक के रूप
देता प्रकाश।

©अविनाश सिंह, नई दिल्ली।
8010017450 

रविवार, जून 28, 2020

गुरु दक्षिणा(कहानी): राम सहोदर


    मथुरा निकट के ही शहर के एक कंपनी में मैनेजर था वह प्रतिदिन घर से अप डाउन किया करता था और दोपहर के भोजन के लिए साथ  टिफिन लेकर जाया करता था सुबह 9:00 बजे घर से निकल जाता और शाम 5:00 बजे तक ड्यूटी करने के बाद छः  7:00 बजे तक घर आ जाता और घर आते ही मां के सामने बडबडाने लगता क्या किया पिताजी ने? शिक्षक की नौकरी करते जीवन बिता दिया लेकिन न तो कोई ठिकाने का घर बनवाया और न ही अच्छा खासा जागीर ही बनाया जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके बस वही पुरानी झोपड़ी का घर और प्रत्येक माह खरीद कर खाना जवाब में मां कहती- बेटा क्या यही कम है कि तुम्हारा और तुम्हारे दोनों बहनों का लालन-पालन किया; पढ़ाया लिखाया फिर तुम यह भी जानते हो कि तुम्हारे दादा अधेड़ अवस्था में ही तुम्हारी दोनों बुआ की शादी का भार छोड़कर स्वर्ग सिधार गए तुम्हारे पिता ने अपने वेतन के भरोसे पर ही अपनी दोनों बहनों का विवाह किया साथ ही भाई की भी तीन लड़कियों के विवाह में भी पूरा सहयोग दिया फिर तुम्हारी सोचो कि वेतन भी तो कम ही मिलता है मथुरा मां के जवाब से खुश नहीं हुआ और वह गर्म होकर कहने लगा यही तो मैं भी कह रहा हूं कि यही पूरे परिवार का ठेका लिए हैं सारा वेतन परिवार वालों के योगदान में बिता दिया और उसका परिणाम यह मिला कि आज हम जहां भी जाते हैं वहां शर्मिंदा होना पड़ता है आने-जाने के लिए न कोई गाड़ी है न रहने के लिए ठिकाने का घर जिसमें किसी को बुला कर बैठा सकें मां बेटा की उलाहना चुपचाप सुनती रहती और सेवकराम के घर आते ही दोनों का संवाद भी रुक जाता मां बेटे का संवाद प्रतिदिन इसी विषय को लेकर चलता रहता मां बेटे को समझाने की कोशिश करती किंतु बेटे का गुस्सा अपने पिता पर बना ही रहता पिता की ईमानदारी और उपकारी कार्यकलाप से मथुरा हमेशा खिन्न रहता
   एक दिन मथुरा की मां ने सेवकराम से कहा- आज बेटा टिफिन लेकर नहीं गया उसके समय में भोजन तैयार नहीं हो पाया था इसलिए भोजन भी नहीं किया है आप उसी रास्ते से ड्यूटी पर जाते हैं तो टिफिन लेते जाइए बेटे को टिफिन देकर आप अपने स्कूल चले जाइए सेवकराम टिफिन लेकर कंपनी पहुंचे तब कंपनी के मेन गेट पर ही वाचमैन ने रोक दिया और बोला- आप यहीं रुक जाइये। अभी आप अंदर नहीं जा सकते सेवक राम ने कहा- देखो मैं जल्दी में हूं, टिफिन का डिब्बा अपने बेटे को देकर तुरंत आ जाऊंगा मुझे जाने दो वॉचमैन बोला - नहीं, आज कंपनी के संचालक महोदय आए हुए हैं जब तक वे नहीं चले जाते तब तक कोई भी अंदर नहीं जा सकता आपको इंतजार करना पड़ेगा तब तक आप यहीं बैठिये। सेवकराम चुपचाप वहीं पर बैठ गए बिना टिफिन दिए जा भी तो नहीं सकते थे
    कुछ समय बाद वाचमैन ने सेवकराम से कहा- अब आप यहां से भी हट कर वहां दूर बैठ जाइए क्योंकि संचालक महोदय जी आ रहे हैं आपको यहां पर देखेंगे तो मुझे डांट पड़ेगी सेवकराम और दूर जाकर बैठ गए कुछ ही क्षण में कंपनी के अंदर से एक कार आई और गेट पर आकर रुक गई बात यह थी कि कंपनी का मैनेजर (मथुरा) संचालक महोदय को गेट तक छोड़ने आया था। अब मथुरा (मैनेजर) कार से नीचे उतरा और संचालक महोदय को विदा करते हुए सलामी दे रहा था। तभी सेवकराम मथुरा को देख पास आ गया। पिता को सीधे-सादे पोशाक में देख मथुरा शर्मिंदगी महसूस कर मुंह फेर लिया और मन ही मन गुस्सा किया कि कहीं पिताजी संचालक के सामने न आ जाएं।  
     हुआ कुछ ऐसा ही सेवकराम तो संचालक के पास नहीं गए किंतु संचालक की दृष्टि उन पर पड़ गई और वे कार से नीचे उतर आए और सेवकराम की ओर बढ़े यह देख मैनेजर (मथुरा) निकट आ गया संचालक ने सेवकराम के पास पहुंचकर आदर पूर्वक चरण छुए और दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे-सर! आपने मुझे पहचाना मैं वही मनोज सिंह हूं जिसे आपने 10वीं, 11वीं और 12वीं में पढ़ाया था सर आप के आशीर्वाद से ही मैं आज इस मुकाम तक पहुंच पाया वैसे मैं बहुत ही बिगड़ा हुआ शैतान था उदंड नंबर वन था मेरे पिताजी मुझसे बहुत परेशान थे उन्होंने आपके पास आकर बहुत निवेदन किया था फिर भी आप मुझे ट्यूशन पढ़ाने को तैयार नहीं थे किंतु मेरे पिताजी के बार-बार निवेदन करने पर आपने मुझे पढ़ाना मंजूर किया था पिताश्री आपको ट्यूशन का फीस दे रहे थे लेकिन आपने बिना फीस लिए ही पढ़ाया था आपने साफ शब्दों में जवाब दिया था कि मैं ज्ञान बेचता   मुझ पर आपका भारी एहसान है
      फिर कंपनी के कार्यालय में ले गए और आराम से बैठकर काफी देर तक संचालक अपने गुरु का हाल समाचार पूछते रहे और बोले- गुरु जी, क्या आप अभी उसी घर में रह रहे हैं या घर बदल गया गुरुजी बोले-बेटा वही है मेरा आवास। उसे छोड़कर कहां जाऊंगा संचालक कहने लगे- आपने उस वक्त मेरे पिताजी से बिना शुल्क के लिए ही मुझे ज्ञान दिया था लेकिन अब मैं गुरु दक्षिणा देकर आप से उऋण होना चाहता हूं कृपा कर मुझे ऋण से मुक्त कर दीजिए सेवकराम कहने लगे-बेटा कोई ऋण नहीं है तुम पर मैंने तो अपना फर्ज निभाया था जो मेरा कार्य था वही किया था इतनी बातचीत होने के बाद संचालक चले गए और सेवकराम भी  देकर अपने गंतव्य को चले गए
       -गुरु जी यह छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए सेवक राम ने पेपर पढ़ा जिसमें मनोज सिंह ने शहर में बना हुआ सुंदर सुसज्जित बंगला गुरु जी के नाम कर दिया था और विधिवत स्टांप पेपर पर लिख दिया था गुरुजी कुछ कहते इसके पहले ही मनोज सिंह ने गुरु जी के पैर पकड़कर विनम्र निवेदन किया कि गुरु जी अब इसे आप इंकार ना कीजिए मैं आपका एहसान नहीं चुका सकता आपके ऋण  से कभी मुक्त नहीं हो सकता कृपा कर यह तुच्छ भेंट स्वीकार कर लीजिए अंततः  सेवकराम को स्वीकारना ही पड़ा
     यह देख बेटा मथुरा पिता के चरणों में गिर पड़ा और भावुक होकर पिताजी से माफी मांगने लगा और बोला-पिताश्री आज मुझे मालूम हो गया कि आपने क्या कमाया है मैं आपका बेटा बनकर धन्य हो गया आपके कारण मेरा कंपनी में वेतन भी बढ़ गया और सम्मान भी अब मैं सब कुछ पा गया 

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नीलगगन (कविता): मनोज कुमार चंद्रवंशी

नील      गगन       में    उन्मुक्त,
विचरण   तुच्छ   कीट    पतंगा।
पावस      ऋतु     में    सुरचाप,
निज  छटा   बिखेरता   बहुरंगा॥

नीलांबर    परिधान      विस्तृत,
अखिल  ब्रह्मांड   के चहुँ  ओर।
नीलगगन     अति      रमणीय,
नहीं  दृष्टिपात  नभ   की  छोर॥

शशि    उदित   नील  गगन  में,
चारू  सितारे  झिलमिला  उठे।
मोतियों  से  परिपूर्ण   नीलांबर,
धवल  सुप्त नक्षत्र फिर से उठे॥

नील पट  आच्छादित गगन  में,
मानो   नवविवाहिता   सादृश्य।
व्योम,  नक्षत्र  नभ  के  श्रृंगार,
अति  सुन्दर  नभ  छवि  दृश्य॥

नभ   में     उदित     तारागण,
रवि  रश्मि से हो जाते अदृश्य।
रजनी  के   शुभ  आगमन पर,
तारों   का    झिलमिल   दृश्य॥

नभ  में  उदित  भोर  का तारा,
चित्  समाविष्ट आभामंडल में।
दृष्टिगोचर  सप्तर्षी  तारकगण,
अटल  ध्रुव तारा नभ मंडल में॥

नीलगगन  प्रकृति  का  प्रताप,
उद्घोष  ऋषियों  के  वाणी से।
सकल जग कंपित हो उठता है,
अकस्मात   आकाशवाणी   से॥

नील  गगन  की सुंदरता  न्यारी,
विश्व व्यापक जग  चिर स्थायी।
अटल,     अद्वितीय,    अनुपम,
नभ में  अंतरिक्ष  वैभव समायी॥

                  स्वरचित
          मनोज कुमार चंद्रवंशी
पुष्पराजगढ़ जिला अनूपपुर (म0प्र0)
रचना दिनाँक - २५|०६|२०२०

फिर बाद में: रजनीश (हिन्दी प्रतिष्ठा)



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शुक्रवार, जून 26, 2020

आती है न याद :जागेश्वर सिंह


आती है न याद 

जब नींद नही आती
और बीत जाता है ,
रात का तीसरा भी पहर
लोरी गाकर सुलाने वाली
मेरी माँ ,मुझे याद आती है

जब साथ खाना खाते
रोटी कम पड़  जाता है न ,
बचपने मे अपने हिस्से की रोटी देकर
भुखे रह जाने वाली
मेरी माँ, मुझे याद आती है।

जब चलते चलते लड़खड़ा जाता हूँ न ,
हाथ पकड़ कर चलना सिखाने वाली
मेरी माँ ,मुझे याद आती है।

भयानकता का डर और
अकेलेपन का साया जब सताती है न ,
वो अपने आँचल में छुपा लेने वाली
मेरी माँ ,मुझे याद आती है।

जब बाजार का भाव  बढ़ जाता है
जरुरत ही भर का  समान खरीदने में
 पैसा कम पड़ जाता है न ,
हर शौक पुरा करने वाले
मेरे पापा ,मुझे  याद आते हैं

कम नंबर आने पर
मन जब उदास हो जाता है न
मेरी हर नाकामयाबियों  में
  "फिर कोशिश करो"कहकर
सांत्वना देने वाले
मेरे पापा ,मुझे याद आते हैं।

जब कोई चीज नही दिखता
और बहुत ढुँढने पर भी नही मिलता है न
मेरी हर गलती पर दांट  देने वाले
मेरे बड़े भैया ,मुझे याद आते हैं।

जब किसी से तंग आकर
चिढ जाता हूँ
बातों में बहक सा जाता हूँ न ,
तब मेरी हर बात को
मजाक समझ कर भुल जाने वाले
मेरे मंझले भैया, मुझे याद आते हैं।

जब बात बात पर दोस्तों से झड़प हो जाती है।
हर बात पर लड़ने वाली
और फिर मान जाने वाली
मेरी बहन ,मुझे याद आती है।

जब कभी घुम-घामकर आने पर
कुछ खाने का मन करता है न ,
बाजार के हर मेले से मेरे लिए जलेबियाँ लाने वाली
मेरी दादी, मुझे याद आती है ।

जब कभी धुंधलके में
गली में ठेले वाला 'आम लेलो'
गुहारता है न
मेरे लिए हर शाम कुछ न कुछ ले आने वाले
मेरे बाबा ,मुझे याद आते हैं।

जब साथ चलते-चलते
थक जाता हूँ और बैठ जाता हूँ मन मारकर
बचपने में कंधे में
बिठाकर ले जाने वाले
मेरे बाबा ,मुझे याद आते हैं

जब कभी भुख से तर मैं
रसोडे में कुछ खोजता हूँ न ,
मेरे लिए खाना बचा देने वाली
मेरी चाची ,मुझे याद आती हैं।

जब कभी क्रिकेट देखते हुए लाईट गोल हो जाती है
स्कोर न जान पाने पर बेचैन हो जाता हूँ न
वो स्कोर  के साथ क्रिकेट की चर्चा  करने वाले
मेरे चाचा मुझे याद आते हैं।

कहीं जाते हुए ,दोस्तों के कंधो पर हाथ रखते हुए
पड़ोस में रहने वाला
मेरा दोस्त , मुझे याद आता है।

बनते ,बिगड़ते सपनों में
गिरते ,सँभलते ,जुझते ,भागते
थक हार कर जब घर लौटता हूँ
सिलसिलों और यादों  के कारवाँ  में
पल-पल का सारा दर्द  बाँट लेने वाली
मेरी याद ,मुझे याद आती है।

जागेश्वर सिंह
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गुरुवार, जून 25, 2020

बादलों से सीख : राम सहोदर

ये बादल वर्षा करने के लिए आए या धमकाने।
दमकती दामिनी दमखम कलेजा दहला देती है॥

तपन ग्रीष्म मिटाकर प्यास धरणी की मिटाती है।
कि वसुधा बेकरारी ब्रेक कर खुशियां जो देती है॥

ये बादल सीख देते हैं ये वर्षा शीत देती है। 
क्षितिज सौंदर्य देता है, प्रकृति सभी जीवों को सेती है॥

कृषक को चैन देती है, धरा को धैर्य देती है।
फसल सुख शांति देती है, सकल उपकार देती है॥

न छोटा है कोई माने, बड़ा का भेद न जाने।
बराबर सबको देती है बराबर सबसे लेती है॥

ये बारिद हमसे कहते हैं बराबर जीव हैं सारे।
ना नीचा जग में है कोई ना ऊंचा मान देती है॥

छिपा जो वृष्टि छाया में, उसे बिल्कुल ना ये जाने।
मगर यह छल कपट से दूर निज दामन में लेती है॥

हरी धरती, हरे पौधे, हरे मैदान हरियाली। 
हरे अरण्य में खग मृग सभी, खुशियां समेटी हैं॥

खुशी से मोर नाचे हैं, खुशी दादुर भी गाते हैं।
जलद ये नभ सजाते हैं, खुशी डीजे बजाते हैं॥

बिजलियां चमचमाती हैं, चमक चिंदी गिराते हैं।
मगन मदमस्त हो तटिनी, मधुर कल कल की गाते हैं॥

खुशी चहुँ ओर छाई है रितू पावस के आने से।
खुश है सहोदर अंकुरन अब बीज देती है॥



रचनाकार: राम सहोदर पटेल,
शिक्षक, शा. हाईस्कूल नगनौड़ी, तहसील-जयसिंहनगर जिला-शहडोल मध्यप्रदेश

वर्तमान का चलचित्र: सुरेन्द्र कुमार पटेल


वर्तमान का चलचित्र



एक के बाद एक जब कई सुखद या दुःखद घटनाएं,
हमारे मन-मस्तिष्क से होकर तीव्रगति से गुजर जाएं।
जैसे चलचित्र तेजी से आंखों को छूकर निकल जाए,
हमने क्या देखा, आसान नहीं है वह पकड़ में आये।

हमें याद रहता है हमारा भी दुःख अगले दुख तक,
कोई दुख, दुख देता है हमें मात्र वहीं तक रुककर।
यही मनोवैज्ञानिक प्रयोग जनमन पर किया जाता है,
गतदुख निवारण हेतु गत से बड़ा दुःख दिया जाता है।

नितनवीन समाचारों ने तत्क्षणता का स्वाद चखाया है,
कल के छोटे दुख को आज के बड़े दुख ने मिटाया है।
पुरा स्मरण शक्ति को आज की दुःखद खबर हड़प रही है,
वर्त हो रहा अतीत, अतीत को झांकने की तड़प नहीं है।

आप स्वयं देश के गत कुछ दिनों के गंभीर संकटों को लें,
फिर एक-एक घटना की परतों को मस्तिष्क में खंगालें।
आपके मनोमस्तिष्क में वही घटनायें स्थान बनाती हैं,
जो घटनाएं आपके समाचार पत्र के कोनों में समाती हैं।

इस प्रक्रिया से देख लें मस्तिष्क की संचित स्मृति को,
यहाँ देखा जाता है मानव-मस्तिष्क की इसी विकृति को।
सड़कों का चीत्कार, निर्भया पर अत्याचार भूल जाता है,
आत्महत्या पर होता विमर्श, कोई फांसी पर झूल जाता है।

देश की समस्याओं पर अनगिनत सवाल उभरते हैं सदा,
वे सवाल किसी और सवाल के बाद बचते हैं यदा कदा।
उन लोगों ने इसीलिए मानव मस्तिष्क को अस्त्र बनाया है, 
दुर्बलताओं का ले लाभ सदा गोल-गोल उन्होंने घुमाया है।

उत्तरदायित्व पर अनुत्तरदायी उत्तर वे देते ही रहते हैं,
जब तक आप एक की पूंछ पकड़ें वे दूसरा फेंक देते हैं।
बेरोजगारी पर उभरे सवालों का उत्तर बढ़ी हुई मंहगाई है, 
मंहगाई का उत्तर जातीय हिंसा या फिर धार्मिक लड़ाई है।

और, शेषांश कार्य सोशलमीडिया पूरा कर ही देता है,
इच्छित-अनिच्छित पल-पल के समाचार रख देता है।
समग्र विश्लेषण, निष्कर्ष तक पहुंचना जटिल हो गया,
वर्तमान के चलचित्र को रोकना अब मुश्किल हो गया।

मस्तिष्क-स्मृति कोष में संवेदनाओं के फोल्डर रखे जाएं,
वर्तमान के चलचित्र को अतीत से जोड़कर परखे जाएं।
वर्तमान के भुलावे में अतीत के फोल्डर यदि मिटा देंगे,
मृत्यु का दुःख भूलना, एक नयी मृत्यु देकर सिखा देंगे।

                           (मौलिक एवं स्वरचित)



©® सुरेन्द्र कुमार पटेल
ब्यौहारी, जिला-शहडोल
(मध्यप्रदेश)
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तकदीर की लिखावट: बी एस कुशराम


तकदीर की लिखावट
ये कहा जाता है कि, विधि लिखता तकदीर।
जो वह मस्तक लिख दिया, वही अटल तहरीर॥
   कोई रहे सुख चैन से, मिले किसी को पीर।
   कोई ठहाका हंस रहे, किसी के लुट रहे है चीर॥
खाने के लाले किसी को, कोई बन रहे अमीर।
कोई तो कृष गात रहे, कोई पुष्ट    शरीर॥
   किसी को प्रिय रांझा मिले, मिले किसी को  हीर।
   किसी को रोटी ना मिले,किसी को हलवा खीर॥
कोई डुबक डुबक मरे,किसी को मिल गया तीर।
किसी को पीने जल नहीं, कोई बहाए नीर॥
   कोई रंक के रंक रहे, कोई रंक से   वजीर।
   किसी की रहे बादशाहत, बन रहे कोई फकीर॥  
    कोई जुल्मी स्वच्छंद घूमे, कोई बंधे जंजीर।
    कोई निठल्ला खुश रहे,आफत में श्रमवीर॥
    विधि-विधान बनायके, वह लिखता तकदीर।
   जिसके हक में जो मिला, यही तो है तकदीर॥
समय चक्र यह घूमता, तनिक तो रखिए धीर।
लाचारी का भाव छोड़,बनके रहें गंभीर॥
   इसीलिए कुशराम कहें, स्वयं गढ़े तकदीर।
   सुचारु श्रम करते रहें, बदलेगा  तकदीर॥
                सधन्यवाद

©बी एस कुशराम, बड़ी तुम्मी, पुष्पराजगढ़ जिला अनूपपुर 
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