मथुरा निकट
के ही शहर के एक कंपनी में मैनेजर था। वह
प्रतिदिन घर से अप डाउन किया करता था और दोपहर के भोजन के लिए साथ टिफिन लेकर
जाया करता था सुबह 9:00 बजे घर से
निकल जाता और शाम 5:00 बजे तक
ड्यूटी करने के बाद छः 7:00 बजे तक घर
आ जाता और घर आते ही मां के सामने बडबडाने लगता। क्या किया पिताजी ने? शिक्षक की
नौकरी करते जीवन बिता दिया लेकिन न तो कोई ठिकाने का घर बनवाया और न ही अच्छा खासा
जागीर ही बनाया जिससे परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हो सके। बस वही पुरानी झोपड़ी का घर और प्रत्येक माह खरीद कर खाना। जवाब में मां कहती- बेटा क्या
यही कम है कि तुम्हारा और तुम्हारे दोनों बहनों का लालन-पालन किया; पढ़ाया लिखाया। फिर तुम
यह भी जानते हो कि तुम्हारे दादा अधेड़ अवस्था में ही तुम्हारी दोनों बुआ की शादी का भार छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। तुम्हारे पिता ने अपने वेतन के भरोसे पर ही अपनी दोनों बहनों का विवाह किया। साथ ही भाई की भी तीन
लड़कियों के विवाह में भी पूरा सहयोग दिया। फिर
तुम्हारी। सोचो कि
वेतन भी तो कम ही मिलता है। मथुरा मां
के जवाब से खुश नहीं हुआ और वह गर्म होकर कहने लगा यही तो मैं भी कह रहा हूं कि
यही पूरे परिवार का ठेका लिए हैं। सारा वेतन
परिवार वालों के योगदान में बिता दिया और उसका परिणाम यह मिला कि आज हम जहां भी
जाते हैं वहां शर्मिंदा होना पड़ता है। आने-जाने के लिए न कोई गाड़ी है न रहने के लिए ठिकाने का घर जिसमें किसी को बुला कर बैठा सकें। मां बेटा की उलाहना
चुपचाप सुनती रहती और सेवकराम के घर आते ही दोनों का संवाद भी रुक जाता। मां बेटे का संवाद प्रतिदिन इसी विषय को लेकर चलता रहता मां
बेटे को समझाने की कोशिश करती किंतु बेटे का गुस्सा
अपने पिता पर बना ही रहता। पिता की ईमानदारी और उपकारी कार्यकलाप से मथुरा हमेशा खिन्न रहता।
एक दिन मथुरा की मां ने सेवकराम
से कहा- आज बेटा टिफिन लेकर नहीं गया। उसके समय में भोजन तैयार नहीं हो पाया था इसलिए भोजन भी नहीं
किया है। आप उसी
रास्ते से ड्यूटी पर जाते हैं तो टिफिन लेते जाइए। बेटे को टिफिन देकर आप अपने स्कूल चले जाइए। सेवकराम टिफिन लेकर कंपनी पहुंचे तब कंपनी के मेन गेट पर ही वाचमैन ने रोक दिया और बोला- आप यहीं
रुक जाइये। अभी आप अंदर नहीं जा सकते। सेवक राम ने कहा- देखो मैं
जल्दी में हूं, टिफिन का
डिब्बा अपने बेटे को देकर तुरंत आ जाऊंगा। मुझे जाने
दो। वॉचमैन बोला - नहीं, आज कंपनी
के संचालक महोदय आए हुए हैं। जब तक वे नहीं चले जाते तब तक कोई भी अंदर
नहीं जा सकता। आपको इंतजार करना पड़ेगा। तब तक आप यहीं बैठिये। सेवकराम
चुपचाप वहीं पर बैठ गए। बिना
टिफिन दिए जा भी तो नहीं
सकते थे।
कुछ समय बाद वाचमैन ने सेवकराम से कहा- अब आप
यहां से भी हट कर वहां दूर बैठ जाइए क्योंकि संचालक महोदय जी आ रहे हैं आपको यहां
पर देखेंगे तो मुझे डांट पड़ेगी। सेवकराम
और दूर जाकर बैठ गए कुछ ही क्षण में कंपनी के अंदर से एक कार आई और गेट पर आकर रुक
गई। बात यह थी कि कंपनी का मैनेजर (मथुरा) संचालक
महोदय को गेट तक छोड़ने आया था। अब मथुरा (मैनेजर) कार से
नीचे उतरा और संचालक
महोदय को विदा करते हुए सलामी दे रहा था। तभी सेवकराम
मथुरा को देख पास आ गया। पिता को
सीधे-सादे पोशाक में देख मथुरा
शर्मिंदगी महसूस कर मुंह फेर लिया और मन ही मन गुस्सा किया कि कहीं पिताजी संचालक के सामने न आ जाएं।
हुआ कुछ ऐसा ही। सेवकराम तो संचालक के पास नहीं गए किंतु संचालक की दृष्टि उन
पर पड़ गई और वे कार से नीचे उतर आए और सेवकराम की ओर बढ़े। यह देख मैनेजर (मथुरा) निकट आ गया। संचालक ने सेवकराम के
पास पहुंचकर आदर पूर्वक चरण छुए और दोनों हाथ जोड़कर कहने लगे-सर! आपने मुझे
पहचाना। मैं वही मनोज सिंह हूं जिसे आपने
10वीं, 11वीं और 12वीं में पढ़ाया था। सर आप के
आशीर्वाद से ही मैं आज इस मुकाम तक पहुंच पाया। वैसे मैं बहुत ही बिगड़ा हुआ शैतान था। उदंड नंबर वन था। मेरे
पिताजी मुझसे बहुत परेशान थे। उन्होंने
आपके पास आकर बहुत निवेदन किया था फिर भी आप मुझे ट्यूशन पढ़ाने को तैयार नहीं थे
किंतु मेरे पिताजी के बार-बार निवेदन
करने पर आपने मुझे पढ़ाना मंजूर किया था। पिताश्री आपको ट्यूशन का फीस दे रहे थे लेकिन आपने बिना फीस लिए ही
पढ़ाया था। आपने साफ
शब्दों में जवाब दिया था कि मैं ज्ञान बेचता । मुझ पर
आपका भारी एहसान है।
फिर कंपनी के कार्यालय में ले गए
और आराम से बैठकर काफी देर तक संचालक अपने गुरु का हाल समाचार पूछते रहे। और बोले- गुरु जी, क्या आप
अभी उसी घर में रह रहे हैं या घर बदल गया। गुरुजी बोले-बेटा वही
है मेरा आवास। उसे
छोड़कर कहां जाऊंगा। संचालक
कहने लगे- आपने उस वक्त मेरे पिताजी से बिना
शुल्क के लिए ही मुझे ज्ञान दिया था लेकिन अब मैं गुरु दक्षिणा देकर आप से उऋण
होना चाहता हूं। कृपा कर मुझे ऋण से मुक्त कर दीजिए। सेवकराम कहने लगे-बेटा कोई
ऋण नहीं है तुम पर। मैंने तो
अपना फर्ज निभाया था। जो मेरा
कार्य था वही किया था। इतनी
बातचीत होने के बाद संचालक चले गए और सेवकराम भी देकर अपने गंतव्य को चले गए।
-गुरु जी यह छोटी सी भेंट स्वीकार कीजिए। सेवक राम ने पेपर पढ़ा जिसमें मनोज सिंह ने शहर में बना हुआ
सुंदर सुसज्जित बंगला गुरु जी के नाम कर दिया था और विधिवत
स्टांप पेपर पर लिख दिया था। गुरुजी
कुछ कहते इसके पहले ही मनोज सिंह ने गुरु जी के पैर पकड़कर विनम्र निवेदन किया कि
गुरु जी अब इसे आप इंकार ना कीजिए। मैं आपका
एहसान नहीं चुका सकता। आपके ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकता। कृपा कर यह तुच्छ भेंट स्वीकार कर लीजिए। अंततः सेवकराम को
स्वीकारना ही पड़ा।
यह देख बेटा मथुरा पिता के चरणों
में गिर पड़ा और भावुक होकर पिताजी से माफी मांगने लगा और बोला-पिताश्री आज मुझे मालूम हो गया कि आपने क्या कमाया है। मैं आपका बेटा बनकर धन्य हो गया। आपके कारण मेरा कंपनी में वेतन भी बढ़ गया और सम्मान भी। अब मैं सब कुछ पा गया।
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