मंगलवार, जून 01, 2021

हुजूर वह भी एक जमाना था;जब समाज घड़ी,रेडियो और साइकिल का दीवाना था: डॉ ओ पी चौधरी



हुजूर वह भी एक जमाना था;जब समाज घड़ी,रेडियो और साइकिल का दीवाना था।
                         जनाब क्या जमाना था उस समय जब लोग घड़ी,रेडियो और साइकिल को स्टेटस सिंबल मानते थे, बहुत चलन था,हमारी पीढ़ी जानती है।दाऊ काका(स्मृतिशेष रामदया वर्मा,हमारे ताऊ जी) उसे घड़ी,साइकिल और बच्चा कहकर अपने व्यंगात्मक शैली का इजहार करते थे।अक्सर लोग बाएँ हाथ की कलाई में घड़ी बांधते थे।कुछ लोग जो काफी शौकीन थे वे लोग दाहिने हाथ की कलाई में घड़ी का फीता बांधते थे,किसी की घड़ी में चेन लगी हो तो क्या कहना।ऐसे शौकीन लोग प्रायः टेरीलीन की पैंट - शर्ट पहनते थे।कुछ लोग सफेद धोती व कलकतिहा कमीज पहनते थे।इतना ही नहीं धोती का एक कोना या तो हाथ में लेकर चलते थे या फिर कमीज के पाकेट में डाले रहते थे।ऐसे लोग शौकीन मिजाज हुआ करते थे और अपनी जिंदादिली के लिए जाने जाते थे।जिधर से निकलते थे बरबस ही लोग एक नजर देखते थे,और इतना ही नहीं, बकायदे उन पर चर्चा भी करते थे।क्या समय था साहब,घड़ी तो कमबख्त उसवक्त काम लोगों के पास हुआ करती थी लेकिन वक्त बहुत हुआ करता था लोगों के पास।सुबह खेत में,दोपहर दालान या मड़हे में आराम,फिर काम या नतैती में जाना, नहीं तो शाम को फिर किसी के पास बैठना,खेती - बाड़ी,गाय - गोरु,बैल की चर्चा।यदि किसी के यहां कोई नातेदार आया है तो गांव में निः संकोच भ्रमण।इतना ही नहीं हमारे गांव का ही एक पुरवा है साईंपुर समसपुर वहां के बाबू सभापति सिंह के यहां गुरूदीन मामा आते थे वे हमारे यहां भी आ जाया करते थे,हम सभी मामा से गीत सुनते थे।जाने कहां गए अब वो दिन, वह स्नेह,अपनापन, मान - सम्मान।एक घटना का जिक्र और करना चाहूंगा। मुझे हाई स्कूल में अध्ययन के दौरान अपने ननिहाल करौंदी,जलालपुर में रहने का मौका मिला,पूरे गांव में ननिहाल,चाहे जिसके घर पहुंच जाया करता था,सभी जगह नाना - नानी, मामा - मामी,भैया- भाभी। हालचाल लेने में केवल माता - पिता ही धुरी में नहीं रहते थे बल्कि बैल,गाय,भैंस,फसलें भी हुआ करती थीं।बहुत विस्तृत दायरा होता था।शाम को लगभग सभी किशोर व युवक एकत्र होते थे,व्यायाम किया करते थे, गजयी मामा की देख रेख में,उनकी अनुपस्थिति में अच्छेलाल भैया यह जिम्मेदार संभालते थे।अब वह सामाजिक ताना- बाना बिखरता जा रहा है।मैं फिर अपने मूल बात घड़ी पर आता हूं।उस समय एक टेबल वॉच होती थी जिसमे सुबह 4 बजे का अलार्म लगाकर सोते थे,बजते ही उठना होता था, पढ़ने का समय हो जाया करता था।विद्यालय में,सरकारी कार्यालयों में दीवाल घड़ी, दीवार पर टँगी रहती थी।समय के अनुरूप वह उतनी बार टन- टन की आवाज करती थी।बहुत से लोग घरों की बैठक में भी  लगाए रहते थे।गांधी जी एक गोल घड़ी रखते थे।जिसे वे अपने कमर से नीचे धोती में ही लटकाये रहते थे ।उन दिनों बहुत से लोग कलाई घड़ी या गोल घड़ी समय देखने के लिए अपने पास रखते थे।उन दिनों समाचार, गाने, नाटक आदि सुनने के लिए लोग रेडियो रखते थे, इसमें कई- कई बैण्ड के रेडियो हुआ करते थे।लोग सिलोन,विविध भारती,बीबीसी लंदन बड़े शौक से सुनते थे।जब एशियाड का आयोजन दिल्ली में 1982 में हुआ तो लोग दिल्ली मॉडल पॉकेट रेडियो का उपयोग ज्यादा करने लगे क्योंकि वह आसानी से कहीं ले जाया जा सकता था।उन दिनों साइकिल कही आने जाने के लिए मुख्य साधन थी।लोग 40 से 50 किमी की दूरी आसानी से तय कर लेते थे।मैं स्वयं अकबरपुर(हमारे गांव से लगभग 25 किमी की दूरी है)अनेक बार डीजल लेने या अन्य किसी कार्य से गया और आया हूं। एक बार तो पैदल ही लाले बाबा(स्मृतिशेष लालता प्रसाद सिंह) के साथ अकबरपुर से घर आया हूं।अब समय के बदलाव के साथ घड़ी, रेडियो और साइकिल सभी में बदलाव आ गया है।अब फटफटिया का जमाना है।मोबाइल में घड़ी, रेडियो,वीडियो सभी कुछ है,और सभी के हाथ में है। उन दिनों सायकिल का भी बड़ा क्रेज था। गांवों में शादी में साइकिल,घड़ी, रेडियो तीनों जरूर मिलते थे, फाउंटेनपेन भी, कभी कभी साथ में अंगूठी/चेन भी।सायकिल में  हरकुलिश,बीएसए,एटलस बाद में हीरो पहली पसंद हुआ करती थी।रेडियो में फिलिप्स, मर्फी,बुश  और घड़ी में एचएमटी और एचएमटी- तारीख हो तो क्या कहना,फाउंटेनपेन -  कैमलिन का कोई जवाब नहीं था। ।इसके बाद   एटलस,हीरो,बी एस ए,एशिया सायकिल थी। पेन वह भी बढिया वाली फाउन्टेन पेन का चलन।जिस शादी में ये चीजें मिल जाती थी तो वह बढ़िया(दान- दहेज की दृष्टि से)शादी मानी जाती थी। अंगूठी भी पहनने का खूब चलन था। लोग अक्सर सामने वाले पाकेट में पेन लगाकर चलते थे ।जो लोग जरा शौकीन थे वे लोग हरकुलिश सायकिल,हाथ में घड़ी,अंगुली में अंगूठी और पाकेट में कलम और कुछ लोग तो बगल में कांधे में रेडियो भी टांगे रहते थे।उस समय शादी में  खिचड़ी खवाई पर यह पांच चीजें मिल जाती थी तो वह चर्चा का विषय हुआ करती थी गांव - जवार में।तब दूल्हा जोड़ी - जामा या पैन्ट - शर्ट,तौलिया जरूर कंधे पर रखता था।कुछ लोग बाद में खिचड़ी खाते समय सफारी भी पहनते थे।लड़की का पिता प्रायः नई बनियान और धोती (एक कोने में हल्दी लगी रहती थी)में दूर से ही पहचान में आ जाता था।खैर छोड़िए जनाब इन बातों को जब समय बदला तो टेलीविजन, मोटरसाइकिल,फ्रीज,कूलर आदि गैस का सिलेंडर और चूल्हा भी कभी - कभी हुआ करता था; ने  साइकिल,घड़ी,रेडियो को विदा कर अपनी जगह बना लिया।अब तो कल्पनातीत बड़ी-बड़ी कार,फ्लैट,जमीन आदि - आदि और क्या- क्या कह नहीं सकते ,क्योंकि हमारे परिवार ने 10 बेटियां ब्याही, ऐसा कुछ अनुभव हम लोगों का नहीं रहा।यह भी सुना है की कुछ लड़के वाले तो पूरी सामान की सूची ब्रांडेड  कंपनी  का उल्लेख करते हुए लड़की वाले को बिना किसी संकोच के पकड़ा देते हैं।समय के साथ समाज में परिवर्तन आया और हमारी जरूरतें भी परिवर्तित हुई लेकिन बस बदलाव जो नहीं हुआ है वह लोगों के लेन- देन के व्यवहार में,वह बढ़ता ही जा रहा है।दिखावा,बनावटी व्यवहार, आत्मकेंद्रीयता,
 स्वार्थपरता,बढती जा रही है;सामाजिक ताना - बाना छिन्न - भिन्न होता जा रहा है,रिश्ते सिमटते जा रहे हैं,तुरपन की सख्त जरूरत है। कोविड ने एक महामारी के रूप में अपनी भयावहता से हमें आतंकित कर दिया है,लेकिन कुछ हद तक प्रकृति की सीमा का अतिक्रमण करने का एहसास भी मानव को दिलाया है। कोरोना काल में कुछ सकारात्मक परिवर्तन की आस में हमें  आत्म अवलोकन और अपनी प्राथमिकताओं को पुनः परिभाषित करने की जरूरत है।
     
     डा ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर मनोविज्ञान विभाग
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी
मो:9415694678
Email: opcbns@gmail.com
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