बुधवार, जनवरी 27, 2021

बाबा तेरी शान ना मिटने दूंगी : नेहा त्रिपाठी( Netri) नैनीताल, उत्तराखंड


बाबा तेरी शान ना मिटने दूंगी
     मां तेरे संस्कारों को कभी ना भूलूंगी
     भाई के सपनों की खातिर 
     अपनी खुशियों का गला मैं घोट दूंगी।
                 मां तेरे आंखों में आए आंसू
                 ये मुझ से सहन नहीं होगा
                 दो पल तू आराम से बैठ सके इसलिए
                 चूल्हे में रोटियां मैं सेंक लूंगी।
तू चाहे डांटे मुझे या
हर पल मुझे सताये
राखी पर प्यार का धागा बांध 
मैं अपनी उम्र भी तेरे नाम करना चाहूंगी।
             बाबा तेरे कदमों की आहट सुन
             मैं झटपट चाय बना लाऊंगी
             परेशानी की एक शिकन भी 
             आए तुम्हारे चेहरे पर
             ये मैं कभी ना देखना चाहूंगी।
बस एक विनती मां,बाबा मेरी ये तुमसे है
तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा मैं हूं
मुझे खुद से दूर तुम कभी ना करना।
                मुझे एक कोना ही दे देना घर का
                मगर मेरी विदाई ना करना
                बस उस कोने में बैठ मैं तुमको
                मुस्कुराता देख खुश हो लूंगी।
मगर ना भेजना मुझे
पराये घर तुम
जहां मैं तुम्हारी एक
झलक पाने को भी तरस उठूंगी।
              और अगर दस्तूर है यही जग का कि
               बेटी कलेजे का टुकड़ा नहीं 
               धन है पराया तो बाबा
               सौदा करना मेरा उस हाथों में
               जहां मेरी भी कद्र होगी।
मैं सह लूंगी तंज सारे 
चूल्हे में रोटियां भी मैं सेंक लूंगी
तुम्हारे संस्कारों पर मैं
आंच कभी ना आने दूंगी।
                बस एक उपकार मुझ पर बाबा
                तुम इतना कर देना कि
                ढूंढ़ देना ऐसा रिश्ता मेरे लिए
                जहां भले ही हजारों दुःख मुझे मिले
                या ख्वाहिशें मुझे अपनी मारनी भी पड़े।
मगर ढूंढ़ना ऐसा घर मेरे लिए
जहां मेरे तुमसे मिलने पर
कोई पाबंदी ना होगी।।
//रचना//
नेहा त्रिपाठी( Netri)
नैनीताल,
उत्तराखंड
 
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जाके पांव न फटे बिवाई, का जाने ते पीर पराई- ओम प्रकाश चौधरी

जाके पांव न फटे बिवाई, का जाने ते पीर पराई(कहानी)- ओम प्रकाश चौधरी   

 आज कुछ मित्र हमारे विभाग में आ गए बोले चौधरी साहब ठंड बहुत है,हीटर या ब्लोअर नहीं रखे हैं। कैसे इतनी ठंडक में कार्य कर रहे हैं? मैंने कहा कि मैं ठेठ गांव वाला जो ठहरा, मूलत: किसान हूं,कैसे भी रहने का अभ्यस्त हूं।असली ठंड देखनी हो तो हमारे गाँव में चलें, मैं इस कड़कड़ाती ठंढ की एक झलक दिखाता हूं।विगत कई दिनों से हाड़ कॅपा देने वाली कड़ाके की ठंढ पड़ रही है ।शहर और बड़े-बड़े महानगरों में,क्या कस्बों में भी रहने वाले लोग हीटर,गर्म हवा देने वाला ब्लोअर चलाकर रजाई और कंबल में दुबककर आराम से रात में सो रहे हैं और 26 - 27 नवंबर,2020 की रात से 60 से भी अधिक दिनों से लगातार दिल्ली सीमा पर चल रहे किसान आंदोलन से लेकर ट्रंप - बाइडेन व देश-विदेश की चर्चा करने में मशगूल हैं।दिन में ऑफिस में भी हीटर आदि लगाए हुए हैं।दूसरी ओर भारत की एक बहुत बड़ी आबादी जो गावों में रहती है और उनका जीवन यापन खेती - किसानी पर ही आश्रित है।आज भी उनमें से एक तबका ऐसा है जो कि फटे-पुराने चद्दर/कंबल को ओढकर इस कड़ाके की ठंढ में भी रात भर जागकर भोर तक खेतों में गेहूं की सिंचाई कर रहा है,मिट्टी में पाहा मुठियाने के वक्त वर्फ़ जैसा ठंडा पानी हाथ की अंगुलियों को सुन्न कर देता है,संज्ञा शून्य हो जाती हैं, फिर आग जलाकर सेंकने के बाद ही उंगुलिया सीधी होती हैं, फिर गीली होकर वैसी ही हो जाती हैं,यह क्रम रात में कई बार दुहराना पड़ता है।उसकी मजबूरी है,क्योंकि रात में ही अक्सर बिजली आती है।इतने के बाद भी जब फसल थोड़ी तैयार होने लगती है तो छुट्टा पशु और नील गाय(सियार, साही,जंगली सुअर भी कभी कभार आ ही जाते हैं) पूरी फसल बर्बाद कर देते हैं।किसान दिन भर व रात में जागकर इन छुट्टा जानवरों से अपनी फसल की रक्षा के लिए तत्पर रहता है, फिर भी फसल चर ही जाते हैं।इसका अनुभव मुझे भी है घर (गांव)जाने पर रतजगा करना ही पड़ता है,अभी 23 जनवरी की रात 9.30 बजे बिस्तर में घुसकर अपने मित्र डॉ अनिल जी से बात कर ही रहा था कि सामने जौ के खेत में छुट्टा जानवरों का झुंड टूट पड़ा, मैंने मित्र से कहा कि फोन रखा जाय अब साड़ भागने जायेगे, बोले इतने ठंड में, मैंने कहा जी सर , और लाठी उठाकर भतीजे शिशिर को लेकर चल पड़ा, यह रोज की बात है, में तो केवल एक रात की बात कर रहा हूं।मेरे तो घर के बिल्कुल सामने ही खेत है,परन्तु विगत तीन वर्षों से मटर और अरहर की एक फली भी मिलनी मुश्किल हो जाती है।यही हाल मेरे ही नहीं लगभग सभी गांवों का है, कहीं - कहीं पर तो रखवाली के लिए युवाओं की टीम बनी हुई है।कौन कहता है कि बेरोजगारी है, दिन में खेत में काम, रात में जानवरों को भगाने का काम।इन सब कष्टों और मुसीबतों को झेलते हुए जब किसी तरह बची - खुची फसल तैयार होती है और कटाई के पश्चात खेत - खलिहान से घर आ जाती है,तो शुरू होता है उसे बेचने के लिए जद्दो- जेहाद।सरकारी क्रय केंद्रों पर अनाज बेचना कितना बड़ा काम है,इसका उल्लेख भुक्तभोगी ही कर सकता है।हमारे पड़ोस के गांव के एक किसान 3 रात और 4 दिन धान क्रय केंद्र पर रहे, तब कहीं जाकर धान बेच पाए। इसी में उनकी गेहूं की बुवाई में भी विलंब हुआ,और गन्ने की पर्ची भी घायल हो गई। मैं तो इस बार लगातार धान बेचने हेतु 5 नवंबर,2020 से लगा हुआ था, कि क्रय केंद्र कहीं नजदीक में स्थापित हो जाय, क्योंकि अभी जो सरकारी क्रय केंद्र है वह 12 किमी की दूरी पर है।फिर धान बेचने के फिर में पड़ा,जिला प्रशासन से सरकार तक पत्र लिखकर निवेदन किया,लेकिन सफलता नहीं मिली।अंत में थक - हारकर बिचौलियों को ही औने - पौने भाव पर खतौनी, पासबुक, आधार की प्रति देकर बेचना ही पड़ा।रुपया खाते में आएगा, आंकड़ा प्रस्तुत कर सरकार और सरकारी अधिकारी खुश होंगे कि इतने किसानों के खाते में ,इतनी धनराशि आई, लेकिन यह हम किसान ही समझ पाते हैं कि वास्तव में हमें मिला कितना,यह दर्द वही महसूस कर सकता है ,जिसने भुक्ता हो।किसानों को तो ऐसा ही जीवन व्यतीत करते हुए पूरा जीवन बीत जाता है।बच्चों की पढाई - लिखाई,इलाज,कपड़ा - लत्ता के लिए, उसके पास कुछ रहता ही नहीं है।ऐसे ही नहीं लोग किसानी छोड़ शहरों के तरफ भाग रहे हैं, गांव उजड़ रहे हैं,उसके पीछे सरकार की नीतियां भी हैं।बिहार प्रदेश में केंद्र सरकार की सहयोगी पार्टी जनता दल यूनाइटेड की सरकार है, उस दल के प्रधान महासचिव के सी त्यागी जी ने अभी 24 जनवरी को लखनऊ में माननीय मुख्यमंत्री योगी जी से मिलकर "किसान आंदोलन को जायज ठहराया और कहा कि केवल 18 से 20 प्रतिशत की खरीद ही एम एस पी से होती है।इसके बाद की सारी खरीद बाज़ार के हवाले है।वहां की लूट से किसानों को कैसे बचाया जाए, यह भी ध्यान देने की बात है"(हिन्दुस्तान, 25 जनवरी,2021)। ऊपर से यह किसान बिल जिसे किसान लागू ही नहीं होने देना चाहता है, और सरकार है कि उस पर जबरदस्ती थोप रही है, जो हम किसान लेना नहीं चाहते वह जबरदस्ती दे रही है। कड़ाके की ठंड में भी किसान सड़क पर डटे हैं, 78 किसानों की बलि इस आंदोलन को चढ़ चुकी है,अभी आगे क्या होगा अनिश्चितता के गर्भ में छिपा हुआ है,बड़ा दर्द है,मंजर खौफनाक है, अन्नदाता बेहाल है। शशि शेखर जी लिखते हैं कि हर रोज दो से ढाई हजार धरती - पुत्र अपनी मिट्टी छोड़कर दूर - दराज के शहरों में मजदूरी के लिए बाध्य हो रहे हैं।अगर मौजूदा व्यवस्था इतनी ही कारगर है, तो फिर हमारे गांव उजड़ते क्यों चले गए?(हिन्दुस्तान,17 जनवरी,2021)।लेकिन धरती पुत्रों का धैर्य काबिले तारीफ है,दर्जनों बार की वार्ता का दौर विफल रहा, आगे अभी फिर होगी।बड़े - बड़े भवनों,ऊँची-ऊँची इमारतों में रहने वाले लोग क्या जाने कि गाँव में रहने वाले लोग कैसे अपना गुजर-बसर करते हैं,जिनका एक मात्र पेशा कृषि ही है।यह कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है - "जाके पाँव न फटे बिवाई का जाने ते पीर पराई"।जोहार किसान!जोहार प्रकृति!
//रचना//
ओम प्रकाश चौधरी 
ग्राम - मैनुद्दीनपुर,जलालपुर, अम्बेडकरनगर
मो : 9415694678
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मंगलवार, जनवरी 26, 2021

भारत देश हमारा (कविता) : शोभा तिवारी उत्तराखण्ड



💐💐आप सभी को 72 वें  गणतंत्र दिवस की हार्दिक  शुभकामनाएं और बधाई💐💐
   जय हिंद,जय भारत
भारत देश हमारा
 
भारत देश हमारा,
हमें जान से है प्यारा

कल-कल करती गंगा, यमुना 
इसी के गुण गाती है। 
हमारी इस पुण्य धरा में 
अपनी गुंजार  सुनाती है। 
फक्र  से अपना परिचय देते 
हम तो हिंदुस्तानी हैं। 
रंग लाती हर कुबार्नी  यहाँ  पर
विकसित होता राष्ट्र हमारा
भारत देश हमारा, 
हमें जान से है प्यारा 

प्रहरी बना हिमालय बैठा, 
धरा सोने की गागर है।
चरणों को भारत माता के 
धोता हर पल सागर है।
माह छब्बीस को हम सब मिलकर  
गणतंत्र दिवस मनाते हैं। 
फहरा के तिरंगा प्यारा  
गीत ख़ुशी के गाते हैं।  
सत्य, अहिंसा, शांति  बाँटता,
ये तो  तिरंगा प्यारा   
भारत देश हमारा,
हमें  जान से है प्यारा   

गणतंत्र दिवस के इस शुभ दिन
एक नया सूरज आया। 
नव परिधान बसंती रंग का 
भारत  मां को पहनाया।
संविधान, आजादी वाला 
इस दिन हमने पाया।
इस दिन ही दुनिया में भारत 
नव गणतंत्र बन आया। 
रहें कहीं  भी हम, 
काम सभी कर सकते हैं।
पंचायत से एम पी तक 
हम चुनाव लड़ सकते हैं।
दुनिया में सबसे न्यारा 
आंखों का यह है तारा  
भारत देश हमारा,
हमें जान से है प्यारा

क्या करना, क्या नहीं करना 
संविधान यह बतलाता है। 
ऊँच-नीच का भेदभाव ना करना  
संविधान यह सिखाता है।
लेकिन संविधान को पढ़कर 
मानवता को तुम जान लो। 
अधिकार के साथ ही कर्तव्य 
अपने पहचान लो। 
लोकतंत्र जिसकी पहचान, 
देश गणतंत्र हमारा है 
भारत देश हमारा 
हमें जान से प्यारा है 
।।धन्यवाद।। 
//रचना//
शोभा तिवारी ✍
काशीपुर उत्तराखंड 😊

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सोमवार, जनवरी 25, 2021

प्रकृति : एक अनमोल उपहार (कविता) : शोभा तिवारी

           प्रकृति: एक अनमोल उपहार
                     शोभा तिवारी
कुदरत का दिया हुआ यह अनमोल उपहार है,
प्रकृति की खूबसूरती से सजा ये संसार है।
रंग-बिरंगे फूलों से छाई हुई बहार है ,
इनकी खुशबू से महका सब का द्वार है।

बारिश की पहली बूँदें जब धरती को छूती हैं ,
चारों तरफ फैली हरियाली पेड-पत्तियाँ झूमती है।
भोर भई जब सूरज की किरणें चमकती  हैं ,
धरती के माथे पर मानो बिंदिया सी सजती हैं।

नदियों में ना कोई सीमाएं हैं,
मस्त मगन सी बहती जाती हैं।
धाराओं की शोर सराहें ,
जैसै कोई गीत सुनाती हैं।
पर्वत की चोटी से छुता आसमां हैं
चारो तरफ अपनी शान फैलने  का
देता ये संदेश हैं।
धरती की खूबसूरती को
बर्फ़ और बादलों ने बढाया ।
कुदरत ने क्या यह अनमोल
उपहार बनाया ।
लगता  हैं  प्रकृति की खूबसूरती को
अपने  हाथों  से  सजाया ।
आओं इसकी रक्षा  में हम भी 
हाथ बढायें,
इस अनमोल उपहार को सुंदर स्वच्छ
बनायें।

//रचना//
शोभा तिवारी✍
उत्तराखंड
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मतदाता दिवस 25 जनवरी (कविता) : बी एस कुशराम




















































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गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या (कविता) : बी एस कुशराम








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सोमवार, जनवरी 18, 2021

लौट चलें अब अपने गांव, जहां मिले खुशियों की छांव - डॉ ओ पी चौधरी


                  अचानक आज शाम को राम निहोर काका की याद आ गई, आए भी क्यों न, शाम को वर्षों तक किस्सा सुनाते जो आए थे।एक थे राजा, एक थी रानी(प्रायःराजा ब्रिज व रानी सारंगा के किस्से) से शुरू होकर, राजमहल से जंगल तक की सैर कराते थे,मिलन,विरह,श्रृंगार, करुण,वीर सभी रसों से सराबोर कर देते थे।कभी - कभी आकाश विचरण भी करा देते थे, नदी पार करा देते थे,चारपाई पर लेटे - लेटे ही। मैं और बड़े भाई - कम -बचपन से आज तक के जिगरी दोस्त डॉ सेवाराम चौधरी (अवकाश प्राप्त वरिष्ठ जेल अधीक्षक)हुंकारी भरते - भरते कब सो जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था, मानों काका हम लोगों को सुलाने ही आते थे।आज राम निहोर काका चिर निद्रा में चिर शांति के लिए विलीन हो गए हैं,उनकी याद में आंख का कोना गीला हो जाना स्वाभाविक है।उन्हें परमात्मा शांति दें व अपने श्री चरणों में स्थान।हम लोग उसी मैनुद्दीनपुर (जलालपुर,अम्बेडकरनगर,उत्तर प्रदेश)गांव से शहर आ गए और लॉकडाउन की सामयिक भाषा में प्रवासी हो गए।प्राथमिक विद्यालय में तख्ती(लकड़ी की पट्टी), घरिया (मिट्टी की)में खड़िया मिट्टी,सेंठा की कलम, कांख में बोरी दबाए,जिसपर बैठकर विद्यालय में पढ़ते थे, विद्यार्थी की पहचान होती थी।ऐसे ही गांवों में रहकर उसी टूटे-फूटे कच्चे या झोपड़ियों में चलने वाले प्राथमिक विद्यालयों में पढ-लिखकर बहुत से लोग बड़े - बड़े ओहदों पर,तहसीलदार,पुलिस अधिकारी, कलक्टर,अध्यापक, गवर्नर बन गये ।यहां तक तो ठीक रहा लेकिन वे शहर में गये तो वहीं बस गये।यदि ज्यादा पढाई कर लिया तो विदेश में जाकर बस गए,लेकिन माता - पिता को गाँव में छोड़कर।शहर में बसने वालों की अपने मोहल्ले/कॉलोनी में ही कोई पहचान नहीं बन पाई। गाँव में तो टोला क्या पूरे दस किलोमीटर तक तो आज भी कुछ लोगों की पहचान बनी हुई है।लोग एक दूसरे के दुःख - सुख में बढ़ चढ़कर केवल भाग ही नहीं लेते हैं अपितु पूरा सहयोग भी करते हैं ।जहां तक पहचान की बात है तो लोग किसी के घर का रास्ता पूछते थे कि भैया,दादा,चाचा हमें फलाने गाँव में अमुक के घर जाना है, रास्ता किधर से है?लोग तुरंत बता देते थे और आव भगत करने के बाद ही जाने देते थे ,कई बार पहुंचा भी देते थे।इतना ही नहीं यदि काफी रात हो गयी रहती थी तो अपने घर पर ही रोक लेते थे।गाँव में कोई भूखा नहीं सोता था।आज भी कमोबेश यही हाल है।इसी आस और उम्मीद से कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण शहरों से जहां उनकी रोजी थी,वह छूट जाने के बाद अपने गांव की ओर रुख किए,और अपने माटी के लाल को गांव ने सिर माथे लिया,किसी को निराश नहीं किया।मुझे याद है किसी के यहां कोई रिश्तेदार आ जाता था तो जो कुछ नहीं रहता था वो पास - पड़ोस से मांगकर उनकी सारी जरूरतें पूरी की जाती थीं,प्रायः यह कार्य घर की बुजुर्ग महिलाएं करती थी।आज भी गाँव का कोई व्यक्ति तीर्थ यात्रा पर या पितृपक्ष में गया (बिहार),श्राद्ध कर्म हेतु जाता है तो सभी लोग कुछ रूपये देकर सहयोग करते हैं।किसी की मृत्यु हो जाती है तो लकड़ी व अनेक कफन लोग तो उनके मृत शरीर पर चढा देते हैं ।कोई गरीब है तो उसकी पूरी क्रिया- कर्म में सहयोग करते हैं।आदमी क्या जानवरों के मरने पर भी दुआर करने जाते थे।हमने अपनी मां को देखा था, एक दिन सामने के गांव (साईं समसपुर)से आते देखकर मां से पूछ लिया, तो बताया कि निन्नू बाबा (स्व.राजा राम सिंह) की गाय मर गई थी, वहीं से आ रहे हैं।पहले तो शादी के समय भी सबके घर से खटिया,बिछौना, बर्तन अन्य आवश्यक चीजें मांगकर आ जाती थी(अपने गांव में बिस्तर व खटिया बटोरने व बांटने का कार्य मेरे जिम्मे आता था)।पूरे गाँव के व पास - पड़ोस के गांव के लोग मिलकर भोजन बनाते थे,व अन्य कार्य कर लेते थे।पुरुष आटा गूंथने का काम बखूबी कर लेते थे,औरते अपना-अपना चौका - बेलना लेकर पूड़ी या रोटी बेलने आती थीं। नाउन इस मौके पर सभी के पैरों में महावर लगाती थी और नेग लेती थी। महिलाएं अवसर के अनुकूल गीत गाकर सारे काम बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ करती थी, पूरे कार्य एक दूसरे के सहयोग से ही हो जाया करता था।उड़द - चावल छूने की साईत पंडितजी से पूछी जाती थी।फिर गांव भर की गृहलक्ष्मियां अनाज की सफाई में जुट जाती थी।सप्ताह व्यापी गीत गाए जाते थे। सब कुछ एक दूसरे के साथ मिलकर किया जाता था। आज भी लाख दुश्मनी आपस में हो फिर भी एक दूसरे के सुख-दुःख में उसके दरवाजे पर जाते हैं।गन्ने की पताई और सरपत की मड़ई भी उसके लिये राजमहल है,हालांकि अब गावों में भी लगभग सभी के घर पक्के हो गए हैं, कुछ शौकीन लोग कसेहरी का छप्पर रखते हैं,बैठने के लिए।शादी-विवाह,मरनी में आज भी दूध-दही लोग पहुंचा जाते हैं। किन्तु समाज में परिवर्तन बहुत द्रुतगति से हो रहा है।यह सब कार्य अब ठेकेदारी पर होने लगा।तम्बू - कनात, डेरा वाले अब टेंट व्यवसाई हो गए, कैटरर्स अब अपनी पैठ बना लिए हैं,पानी का भी व्यवसाय हो गया है,जार में आने लगा,जो पहले बिल्कुल ही मुफ्त था।पूरे कूंएं में केवड़ा डाल दिया जाता था,उसी से पानी निकालकर कूंडें (मिट्टी का पका हुआ बड़ा घड़ा)में रख दिया जाता था, जो पीने के काम आता था।अब तो अधिकतर शादियां बारात घर से होने लगी।कुछ वर्षों बाद बांस और सरपत का मांडव, मूंज का बंधन धरोहर हो जाएगी, हर्श और हेंगा(पाटा),लकड़ी के सुग्गे आदि बच्चे पूछेंगे कि यह क्या होता था।आधुनिकता हमारी संस्कृति को, सभ्यता को, रीति - रिवाज को, परम्परा को,सेवाभाव को, धरोहर को निगलती जा रही है।

        समय के साथ बहुत परिवर्तन हमारे गांव भी देख रहे हैं, गंवई संस्कृति में अब शहरों की कल्चर आ गई, परदेशियो(जो लोग गांव से शहर चले गए, उन्हें संबोधित किया जाता है) के माध्यम से, लेकिन अधकचरी - न पूरा शहरी न पूरा देहाती। धीरे - धीरे गांव की सूरत और सीरत दोनों बदल गए, बिजली की चकाचौंध,आवागमन हेतु सड़कें, मोटर कार, बाइक सभी कुछ तो बदल गया, हीरा - मोती की जगह, महेंद्रा,एस्कॉर्ट, सोनालिका,आयशर ने ले लिया।रहट, पुरवट, कूड़- बरहा, सैर,ढेकुली, बेड़ी सब गायब,हजारों लीटर प्रति घंटे पानी उगलती बड़ी - बड़ी बिजली से चलने वाली मोटरें, इंजन सभी सुलभ हैं।खाने - पहनने, रहन - सहन का ढंग,बसावट सभी कुछ बदल गया।अब वहां भी इंसान की इंसानियत से नहीं बल्कि उसका कद उसके पद,धन और वैभव से जा रहा है।सामाजिक सरोकारों से हम अलग - थलग होते जा रहे हैं,सहयोग की भावना कमतर होती जा रही है।भौतिकता की बढ़ती चाहत, औद्योगिक विकास, परिवर्तित समाज ने हमारी छद्म आवश्यकताओं को बढ़ा दिया है।दिखावा व प्रदर्शन की भावना बलवती हो गई है,इसी चक्कर में कितने लोग कर्ज के दर्द में डूब जा रहे हैं।जबकि इतिहास साक्षी है कि बड़े - बड़े वीर और योद्धा गांवो से ही निकले हैं।गांवो की संस्कृति का आज भी कोई जवाब नहीं।

       गावों में अधिकतर आबादी खेती - किसानी से जुड़ी हुई है।किन्तु अब वर्तमान समय में खेती करने वाले कम होते जा रहे हैं।कारण समय और श्रम अधिक है, आय उतनी नहीं है।फिर भी पुरखों की जमीन है उससे बहुत ही अधिक लगाव है।फिर धरती को माता मानने वाले हम लोग, अभी भी अपने गांव - जवार से इतना ही जुड़ाव रखते हैं,जो वहां के लोगों का है,और उतना ही प्यार हम लोगों को भी मिलता है।'जननी जन्मभूमि,,,,,,गरीयसी ' और जन्म-भूमि का मोह , अपने गांव के माटी की सोंधी महक जिसमें लोट - पोट व लपेटकर हम बड़े हुए, उसे कैसे भूल सकते हैं।वो पेड़, वो रास्ते,वो तालाब,पोखर,वो कुएं,वो नदी, वो बाग - बगीचे,वो पगडंडी,खोर,डगर, पैंडा, बैठनी, वो बरगद और नीम की छांव सभी अभी भी उतना ही आकर्षित करते हैं,जितने पहले थे,अब बात दीगर है कि चकबंदी के बाद से सभी गावों में चकरोड बन जाने से रास्ते परिवर्तित हो गए, और उसके किनारे घूर दिखाई देने लगे।इतने के बावजूद भी अभी वहां अपनापन है, लगाव है, जुड़ाव है,संवेदना है, सहकार है,सहृदयता है,सदभाव है,सहयोग है।गांधीजी कहते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, वास्तव में वह सही ही है।हमारे लिए हमारी जन्मभूमि का पवित्र आंचल सबसे सुंदर है।वैसे मैने भ्रमण बहुत कम किया है, लेकिन जहां भी गया जगह रमणीक थी, आनंद आया,होटल,अतिथि गृह आरामदायक रहे ,किन्तु जो मज़ा अपने गांव में और खाने का आनंद जगदेव बाबू (अस्ताबाद )की कुटी में है, वह अन्यत्र नहीं मिल सका।जब हम घर - द्वार से दूर कहीं परदेश में या अन्य किसी शहर में होते है तो अपना गांव - जवार स्वप्न सरीखा हमारे हृदय में समाया रहता है।भारत के विकास का पथ गांवो,खेतों - खलिहानों और किसानों से ही प्रशस्त होगा। जोहार प्रकृति, जोहार किसान!

डॉ ओ पी चौधरी

एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मनोविज्ञान

श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी

मो:9415694678

 

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दुष्प्रवृत्ति (कविता) : राम सहोदर पटेल

 


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गुरुवार, जनवरी 07, 2021

2021 नया वर्ष, नयी आस (कविता) :राम सहोदर पटेल






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