अचानक आज शाम को राम निहोर काका की याद आ गई, आए भी क्यों न, शाम को वर्षों तक किस्सा सुनाते जो आए थे।एक थे राजा, एक थी रानी(प्रायःराजा ब्रिज व रानी सारंगा
के किस्से) से शुरू होकर,
राजमहल से जंगल
तक की सैर कराते थे,मिलन,विरह,श्रृंगार, करुण,वीर सभी रसों से सराबोर कर देते थे।कभी - कभी
आकाश विचरण भी करा देते थे,
नदी पार करा
देते थे,चारपाई पर लेटे - लेटे ही। मैं और बड़े भाई -
कम -बचपन से आज तक के जिगरी दोस्त डॉ सेवाराम चौधरी (अवकाश प्राप्त वरिष्ठ जेल
अधीक्षक)हुंकारी भरते - भरते कब सो जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था,
मानों काका हम
लोगों को सुलाने ही आते थे।आज राम निहोर काका चिर निद्रा में चिर शांति के लिए
विलीन हो गए हैं,उनकी याद में आंख का कोना गीला हो जाना
स्वाभाविक है।उन्हें परमात्मा शांति दें व अपने श्री चरणों में स्थान।हम लोग उसी
मैनुद्दीनपुर (जलालपुर,अम्बेडकरनगर,उत्तर प्रदेश)गांव से शहर आ गए और लॉकडाउन की सामयिक भाषा में प्रवासी हो
गए।प्राथमिक विद्यालय में तख्ती(लकड़ी की पट्टी), घरिया (मिट्टी की)में खड़िया मिट्टी,सेंठा की कलम,
कांख में बोरी
दबाए,जिसपर बैठकर विद्यालय में पढ़ते थे, विद्यार्थी की पहचान होती थी।ऐसे ही गांवों
में रहकर उसी टूटे-फूटे कच्चे या झोपड़ियों में चलने वाले प्राथमिक विद्यालयों में
पढ-लिखकर बहुत से लोग बड़े - बड़े ओहदों पर,तहसीलदार,पुलिस अधिकारी, कलक्टर,अध्यापक, गवर्नर बन गये ।यहां तक तो ठीक रहा लेकिन वे शहर में गये तो वहीं बस गये।यदि
ज्यादा पढाई कर लिया तो विदेश में जाकर बस गए,लेकिन माता - पिता को गाँव में छोड़कर।शहर में बसने वालों की अपने
मोहल्ले/कॉलोनी में ही कोई पहचान नहीं बन पाई। गाँव में तो टोला क्या पूरे दस
किलोमीटर तक तो आज भी कुछ लोगों की पहचान बनी हुई है।लोग एक दूसरे के दुःख - सुख
में बढ़ चढ़कर केवल भाग ही नहीं लेते हैं अपितु पूरा सहयोग भी करते हैं ।जहां तक
पहचान की बात है तो लोग किसी के घर का रास्ता पूछते थे कि भैया,दादा,चाचा हमें फलाने गाँव में अमुक के घर जाना है, रास्ता किधर से है?लोग तुरंत बता देते थे और आव भगत करने के बाद
ही जाने देते थे ,कई बार पहुंचा भी देते थे।इतना ही नहीं यदि
काफी रात हो गयी रहती थी तो अपने घर पर ही रोक लेते थे।गाँव में कोई भूखा नहीं
सोता था।आज भी कमोबेश यही हाल है।इसी आस और उम्मीद से कोरोना काल में लॉकडाउन के
कारण शहरों से जहां उनकी रोजी थी,वह छूट जाने के
बाद अपने गांव की ओर रुख किए,और अपने माटी के
लाल को गांव ने सिर माथे लिया,किसी को निराश
नहीं किया।मुझे याद है किसी के यहां कोई रिश्तेदार आ जाता था तो जो कुछ नहीं रहता
था वो पास - पड़ोस से मांगकर उनकी सारी जरूरतें पूरी की जाती थीं,प्रायः यह कार्य घर की बुजुर्ग महिलाएं करती
थी।आज भी गाँव का कोई व्यक्ति तीर्थ यात्रा पर या पितृपक्ष में गया (बिहार),श्राद्ध कर्म हेतु जाता है तो सभी लोग कुछ
रूपये देकर सहयोग करते हैं।किसी की मृत्यु हो जाती है तो लकड़ी व अनेक कफन लोग तो
उनके मृत शरीर पर चढा देते हैं ।कोई गरीब है तो उसकी पूरी क्रिया- कर्म में सहयोग
करते हैं।आदमी क्या जानवरों के मरने पर भी दुआर करने जाते थे।हमने अपनी मां को
देखा था,
एक दिन सामने के
गांव (साईं समसपुर)से आते देखकर मां से पूछ लिया, तो बताया कि निन्नू बाबा (स्व.राजा राम सिंह) की गाय मर गई थी, वहीं से आ रहे हैं।पहले तो शादी के समय भी
सबके घर से खटिया,बिछौना, बर्तन अन्य आवश्यक चीजें मांगकर आ जाती थी(अपने गांव में बिस्तर व खटिया
बटोरने व बांटने का कार्य मेरे जिम्मे आता था)।पूरे गाँव के व पास - पड़ोस के गांव
के लोग मिलकर भोजन बनाते थे,व अन्य कार्य कर
लेते थे।पुरुष आटा गूंथने का काम बखूबी कर लेते थे,औरते अपना-अपना चौका - बेलना लेकर पूड़ी या रोटी बेलने आती थीं। नाउन इस मौके
पर सभी के पैरों में महावर लगाती थी और नेग लेती थी। महिलाएं अवसर के अनुकूल गीत
गाकर सारे काम बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ करती थी, पूरे कार्य एक दूसरे के सहयोग से ही हो जाया
करता था।उड़द - चावल छूने की साईत पंडितजी से पूछी जाती थी।फिर गांव भर की
गृहलक्ष्मियां अनाज की सफाई में जुट जाती थी।सप्ताह व्यापी गीत गाए जाते थे। सब
कुछ एक दूसरे के साथ मिलकर किया जाता था। आज भी लाख दुश्मनी आपस में हो फिर भी एक
दूसरे के सुख-दुःख में उसके दरवाजे पर जाते हैं।गन्ने की पताई और सरपत की मड़ई भी
उसके लिये राजमहल है,हालांकि अब गावों में भी लगभग सभी के घर
पक्के हो गए हैं,
कुछ शौकीन लोग
कसेहरी का छप्पर रखते हैं,बैठने के लिए।शादी-विवाह,मरनी में आज भी दूध-दही लोग पहुंचा जाते हैं।
किन्तु समाज में परिवर्तन बहुत द्रुतगति से हो रहा है।यह सब कार्य अब ठेकेदारी पर
होने लगा।तम्बू - कनात,
डेरा वाले अब
टेंट व्यवसाई हो गए,
कैटरर्स अब अपनी
पैठ बना लिए हैं,पानी का भी व्यवसाय हो गया है,जार में आने लगा,जो पहले बिल्कुल ही मुफ्त था।पूरे कूंएं में
केवड़ा डाल दिया जाता था,उसी से पानी निकालकर कूंडें (मिट्टी का पका
हुआ बड़ा घड़ा)में रख दिया जाता था, जो पीने के काम आता था।अब तो अधिकतर शादियां बारात घर से होने लगी।कुछ वर्षों
बाद बांस और सरपत का मांडव,
मूंज का बंधन
धरोहर हो जाएगी,
हर्श और हेंगा(पाटा),लकड़ी के सुग्गे आदि बच्चे पूछेंगे कि यह
क्या होता था।आधुनिकता हमारी संस्कृति को, सभ्यता को,
रीति - रिवाज को, परम्परा को,सेवाभाव को,
धरोहर को निगलती
जा रही है।
समय के साथ बहुत परिवर्तन हमारे गांव भी देख
रहे हैं,
गंवई संस्कृति
में अब शहरों की कल्चर आ गई, परदेशियो(जो लोग गांव से शहर चले गए, उन्हें संबोधित किया जाता है) के माध्यम से, लेकिन अधकचरी - न पूरा शहरी न पूरा देहाती। धीरे - धीरे गांव की सूरत और सीरत
दोनों बदल गए,
बिजली की
चकाचौंध,आवागमन हेतु सड़कें, मोटर कार, बाइक सभी कुछ तो बदल गया, हीरा - मोती की जगह,
महेंद्रा,एस्कॉर्ट, सोनालिका,आयशर ने ले लिया।रहट, पुरवट, कूड़- बरहा,
सैर,ढेकुली, बेड़ी सब गायब,हजारों लीटर प्रति घंटे पानी उगलती बड़ी -
बड़ी बिजली से चलने वाली मोटरें, इंजन सभी सुलभ हैं।खाने - पहनने, रहन - सहन का ढंग,बसावट सभी कुछ बदल गया।अब वहां भी इंसान की
इंसानियत से नहीं बल्कि उसका कद उसके पद,धन और वैभव से जा रहा है।सामाजिक सरोकारों से हम अलग - थलग होते जा रहे हैं,सहयोग की भावना कमतर होती जा रही है।भौतिकता
की बढ़ती चाहत,
औद्योगिक विकास, परिवर्तित समाज ने हमारी छद्म आवश्यकताओं को
बढ़ा दिया है।दिखावा व प्रदर्शन की भावना बलवती हो गई है,इसी चक्कर में कितने लोग कर्ज के दर्द में
डूब जा रहे हैं।जबकि इतिहास साक्षी है कि बड़े - बड़े वीर और योद्धा गांवो से ही
निकले हैं।गांवो की संस्कृति का आज भी कोई जवाब नहीं।
गावों में अधिकतर आबादी खेती - किसानी से
जुड़ी हुई है।किन्तु अब वर्तमान समय में खेती करने वाले कम होते जा रहे हैं।कारण
समय और श्रम अधिक है,
आय उतनी नहीं
है।फिर भी पुरखों की जमीन है उससे बहुत ही अधिक लगाव है।फिर धरती को माता मानने
वाले हम लोग,
अभी भी अपने
गांव - जवार से इतना ही जुड़ाव रखते हैं,जो वहां के लोगों का है,और उतना ही
प्यार हम लोगों को भी मिलता है।'जननी जन्मभूमि,,,,,,गरीयसी ' और जन्म-भूमि का मोह ,
अपने गांव के
माटी की सोंधी महक जिसमें लोट - पोट व लपेटकर हम बड़े हुए, उसे कैसे भूल सकते हैं।वो पेड़, वो रास्ते,वो तालाब,पोखर,वो कुएं,वो नदी, वो बाग - बगीचे,वो पगडंडी,खोर,डगर, पैंडा,
बैठनी, वो बरगद और नीम की छांव सभी अभी भी उतना ही
आकर्षित करते हैं,जितने पहले थे,अब बात दीगर है कि चकबंदी के बाद से सभी गावों में चकरोड बन जाने से रास्ते
परिवर्तित हो गए,
और उसके किनारे
घूर दिखाई देने लगे।इतने के बावजूद भी अभी वहां अपनापन है, लगाव है, जुड़ाव है,संवेदना है, सहकार है,सहृदयता है,सदभाव है,सहयोग है।गांधीजी कहते थे कि भारत की आत्मा
गांवों में बसती है,
वास्तव में वह
सही ही है।हमारे लिए हमारी जन्मभूमि का पवित्र आंचल सबसे सुंदर है।वैसे मैने भ्रमण
बहुत कम किया है,
लेकिन जहां भी
गया जगह रमणीक थी,
आनंद आया,होटल,अतिथि गृह आरामदायक रहे ,किन्तु जो मज़ा
अपने गांव में और खाने का आनंद जगदेव बाबू (अस्ताबाद )की कुटी में है, वह अन्यत्र नहीं मिल सका।जब हम घर - द्वार से
दूर कहीं परदेश में या अन्य किसी शहर में होते है तो अपना गांव - जवार स्वप्न
सरीखा हमारे हृदय में समाया रहता है।भारत के विकास का पथ गांवो,खेतों - खलिहानों और किसानों से ही प्रशस्त
होगा। जोहार प्रकृति,
जोहार किसान!
डॉ ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष
मनोविज्ञान
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी
मो:9415694678
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