मेरे खेत मेरी फसल
मेरे खेत मेरी फसल
मेरे जीवन के सहचर
मुझसे बाते करते हो सस्वर
जब सीचता हूँ तुमको
रोज लगाते हो गले मुझको
मेरे आने से हो जाते हो हर्षित
चले जाने से क्या होता हैं मन कर्षित
तभी तो आते ही हँसने से लग जाते
जाते ही तुम झुक से जाते
तुम्हारा मेरी ओर निहुरना जैसे
बिछुड़न में प्रेमिका को जाता देख
हाथ बढ़कर प्रेमी जाता है झुक
कभी जो तुम उदास हो जाते हो
रुखे रुखे से नजर आते हो
सच कहता हूँ
तुम्हारी इस दशा से व्याकुल होकर
ऊपर दृष्टि जमाकर
माँगता हूँ
आकाश के सूर्य से तुम्हारे लिए थोड़ा रहम
कभी की ,जब हवा की मंद गति
हो जाती है अचानक तीव्र
आँधी देख हो जाते हो भयभीत
मगर मेरी तरह तुम भी भीतर से हर्षाते हो ना
बारिश की पहली बूँद जब तुम पर गिरती है
मस्ती में मेरे पैर डोलते; तुम्हारे हाथ डोलते
मैं करता हूँ तुम्हारा पोषण
तुम करते मेरा रक्षण
कीट पतंगो से होते हो जब तुम आहत
मैं घबराता तुम्हें देते हुए कीटनाशक
पर सच में इससे तुम्हारे घाव भर जाते हैं
फिर तुम भी तो मेरी सब से हंस हंस के बतियाते हो ना
और कैसा कहूँ तुम तो मेरे इस बात के भी हो साक्षी
की जबकि आती है छत पर पड़ोसन
उसे निहारता हूँ तुम्हारी ओट से छुपकर
हो तुम इस साक्षी इस बात के भी
की घास निकालते हुए
हम दोनों ही सुनते हैं
उसकी आवाज हो जाती है
और भी तेज और स्पष्ट
तुम्हारे साथ गूजर रहा
मेरा क्षण-क्षण
क्या शाम क्या सुबह
दिन दुपहरी; फिर अंजोरी और अन्धियारी रात
कभी हिलाती है तुम्हें पछुआ; कभी पूरबी बहार
पर शायद तुम्हें भी चिढ़ हैं मेरी तरह उत्तरी बयार से
पर हे ! किसान के संरक्षक
मैं यहाँ रहूँ या ना रहूँ
मेरे बाद भी तुम यूँ ही
मेरे भावी का तुम पोषण करना
मैं तुम्हारे खिलखिलानेपन को
इस हर्षित धरती-तन को
और तुम्हारे हरियालेपन को
मैं हमेशा अपने स्मृति पटल पर बसाए रखना चाहता हूँ
चाहें फिर किसी रोज प्रलय क्युँ ना आये
मेरा तुमसे साथ क्यूँ ना छूट जाये
तुम मुझमें मेरी उम्मीद सी बन
आशा का दीपक जलाए रखना
~जागेश्वर सिंह
# ज़ख़्मी
[इस ब्लॉग में रचना प्रकाशन हेतु कृपया हमें 📳 akbs980@gmail.com पर इमेल करें अथवा ✆ 8982161035 नंबर पर व्हाट्सप करें, कृपया देखें-नियमावली]
मेरे खेत मेरी फसल
मेरे जीवन के सहचर
मुझसे बाते करते हो सस्वर
जब सीचता हूँ तुमको
रोज लगाते हो गले मुझको
मेरे आने से हो जाते हो हर्षित
चले जाने से क्या होता हैं मन कर्षित
तभी तो आते ही हँसने से लग जाते
जाते ही तुम झुक से जाते
तुम्हारा मेरी ओर निहुरना जैसे
बिछुड़न में प्रेमिका को जाता देख
हाथ बढ़कर प्रेमी जाता है झुक
कभी जो तुम उदास हो जाते हो
रुखे रुखे से नजर आते हो
सच कहता हूँ
तुम्हारी इस दशा से व्याकुल होकर
ऊपर दृष्टि जमाकर
माँगता हूँ
आकाश के सूर्य से तुम्हारे लिए थोड़ा रहम
कभी की ,जब हवा की मंद गति
हो जाती है अचानक तीव्र
आँधी देख हो जाते हो भयभीत
मगर मेरी तरह तुम भी भीतर से हर्षाते हो ना
बारिश की पहली बूँद जब तुम पर गिरती है
मस्ती में मेरे पैर डोलते; तुम्हारे हाथ डोलते
मैं करता हूँ तुम्हारा पोषण
तुम करते मेरा रक्षण
कीट पतंगो से होते हो जब तुम आहत
मैं घबराता तुम्हें देते हुए कीटनाशक
पर सच में इससे तुम्हारे घाव भर जाते हैं
फिर तुम भी तो मेरी सब से हंस हंस के बतियाते हो ना
और कैसा कहूँ तुम तो मेरे इस बात के भी हो साक्षी
की जबकि आती है छत पर पड़ोसन
उसे निहारता हूँ तुम्हारी ओट से छुपकर
हो तुम इस साक्षी इस बात के भी
की घास निकालते हुए
हम दोनों ही सुनते हैं
उसकी आवाज हो जाती है
और भी तेज और स्पष्ट
तुम्हारे साथ गूजर रहा
मेरा क्षण-क्षण
क्या शाम क्या सुबह
दिन दुपहरी; फिर अंजोरी और अन्धियारी रात
कभी हिलाती है तुम्हें पछुआ; कभी पूरबी बहार
पर शायद तुम्हें भी चिढ़ हैं मेरी तरह उत्तरी बयार से
पर हे ! किसान के संरक्षक
मैं यहाँ रहूँ या ना रहूँ
मेरे बाद भी तुम यूँ ही
मेरे भावी का तुम पोषण करना
मैं तुम्हारे खिलखिलानेपन को
इस हर्षित धरती-तन को
और तुम्हारे हरियालेपन को
मैं हमेशा अपने स्मृति पटल पर बसाए रखना चाहता हूँ
चाहें फिर किसी रोज प्रलय क्युँ ना आये
मेरा तुमसे साथ क्यूँ ना छूट जाये
तुम मुझमें मेरी उम्मीद सी बन
आशा का दीपक जलाए रखना
~जागेश्वर सिंह
# ज़ख़्मी
[इस ब्लॉग में रचना प्रकाशन हेतु कृपया हमें 📳 akbs980@gmail.com पर इमेल करें अथवा ✆ 8982161035 नंबर पर व्हाट्सप करें, कृपया देखें-नियमावली]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
कृपया रचना के संबंध अपनी टिप्पणी यहाँ दर्ज करें.