रविवार, जून 21, 2020

मानव की इच्छाशक्ति: इंजी. प्रदीप



मानव की इच्छाशक्ति

वो जो बीज बनके अंकुरित हुआ
पुष्प की तरह पल्लवित हुआ
था कभी ज़मीन पर
फिर शिखर को उसने छुआ।

अनभिज्ञ था, अज्ञान था
उसको ना कोई भान था
घनघोर अमावस की रात का
प्रतिकार कर, वो प्रकाश हुआ।

न चैन था, न आराम था
उसको कहां विश्राम था
नाप कर धरती का कोना
आ गया चांद पर, आसमां को लांघता हुआ।

कोई कभी, उसको कहीं
रोकता पर्वत भी यदि
काट कर वो बह गया
कभी नदी का प्रारम्भ वो, अंततः सागर हुआ।

लोरियाँ सुनकर सोता था जो कभी
छोटी सी एक बात पर आंखभर रोता था जो कभी
देश की सीमा का वही पहरेदार अब
वीरता की मिशाल बनता, शत्रु का सीना चीरता हुआ।


पालता है वो स्वप्न को जागते हुए रात को
अपनी हृदय में, इच्छा, प्रबल जज्बात को
क्षीण भी वही और महान भी वही हुआ
जिसने है जीता स्वयं को, अंत का वही विजेता हुआ।

©इंजी. प्रदीप
नागपुर, महाराष्ट्र।
21 जून 2020

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