ग्रीष्म ऋतु
ऋतु राजन्त के आई है, पाली बड़े दिनन की।प्रभाव सविता का सह न जाई, दिक दिगंत से।।
ज्वाला की लपट में, झुलस रही सृष्टि अब।
अंगारों की वृष्टि हुई, सूरज की दृष्टि से।।
ज्येष्ठ ने कीन्हीं चढ़ाई, कर सवारी कर्क से।
जल रही भूतल तबा सी, ग्रीष्म अग्नि वृष्टि से।।
है चल रहा सन सन मारुत, गर्म लू प्रचंड से
न रुक रही तन से पसीना, बह रही जल वृष्टि से।।
आभा दमकती सूर्य की, ज्यों पैनी तलवार से।
कूप, वापी, सर हैं सरिता, शोषित तेरे संधान से।।
व्याकुल हुए हैं जीव सारे, आश्रय तलाशें शीत की।
पंखा या कूलर दम हैं तोड़े, हत प्रभ हैं अग्निबाण से।।
प्राण प्राणी तिलमिलाए, न तन पे अम्बर धार जाए।
रज बवंडर की तबाही, मारुत करे तूफान से।।
आक्रांत यह करता है निशदिन, तीव्र तापाघात से।
विद्युत भी गुल हो जाय जब,आफत बढ़े विकराल से।।
जून के जुनून ने जारि डारी, ज्वाला के जुलाप से।
कसमसाहट सह न जाय, मानो है ये भूचाल से।।
शीतलता नदारद हो गयी, विकराल ज्वाला जाल से।
सर, सरिता सरोवर जलन लागे, सागर है जलती धुंधू से।।
लागी आस कब जाएगी त्रास, मुक्ति मिले हालात से।
कहता सहोदर धैर्य धारो, वर्षा हो वर्षा मास से।।
©राम सहोदर पटेल
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