आओ मटरू बैठो ना
कान न मेरी ऐंठो ना
तू बंदर है बड़ा शैतान
तेरे दुकान में क्या-क्या सामान
कभी लचकना, कभी
कूदना
फिर पेडों में छिपकर बैठना
ठण्ड से तेरे दाँत हैं किटकिटाते
फिर कम्बल तू मेरे हो माँगते हो
मैं कम्बल ना दूँगा तुझको
तुम मटरू हो बड़ा शैतान
अब बंद कर लो अपनी दुकान।
चल सोनू भाई मेले
खूब खायेंगे केले
केले होंगे सस्ते
मेले पहुँचेगे हँसते
सोनू तुम धीरे चलना
कहीं मैं न थक जाऊँ
फुल्की, चाट, मटर और पापड़ के ठेले
उसपे कूद लगाऊँ
तुमको दूगाँ एक रूपइया
मैं लूगाँ दस
तुम पोपों लेना
मैं लूँगा बस
बस की चाभी
लगाओ तो भागी
पहुँची वो दिल्ली
दिल्ली की बिल्ली
उड़ाई मेरी खिल्ली
हाँ, उड़ाई मेरी खिल्ली।।
बाल कविता: रजनीश "रैन"
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