शासकीय सेवक बने,
कर्मरत रहे सदा।
मान रख शपथ की,
सुपथ चले सदा।
देश भक्ति में बहे,
राष्ट्रीय भावना रही।
नित्य राष्ट्र के समृद्धि
की कामना की।
शासन के नियम की,
सजा थाल अर्चना रही।
भिज्ञता से अनभिज्ञ हो,
गोपनीयता नहीं कही।
हो नियुक्ति पद का,
या हो गैर पद कर्तव्यता।
आराम गेह त्याग,
दिखाई है तत्परता।
दल-दल की बनी,
सत्ता में मोह न रहा।
किसी की जीत या
हार का हर्ष-क्षोभ न रहा।
जिसकी भी रही सत्ता,
शासन में दिखाई निष्ठा।
श्रम का पारिश्रमिक लिया,
शेष ग्रहण किया न, विष्ठा।
तप्त रक्त जब रहा,
तब भी सेवा भाव था।
पारिश्रमिक यद्यपि अल्प,
सुख-साधनों का अभाव था।
तय समय प्रस्थान का,
आगमन का नियत रहा।
भले ही हाल तब ठीक
न स्वास्थ्य का रहा।
सत्कर्म कर आचरण,
कर्मप्रेम स्वभाव बना।
सेवक के जनकार्य से
शासन का प्रभाव घना।
नियम-नीति शासन के,
पहुंचाए बन श्रंखला।
आलोचनाओं से डरे नहीं,
कर्मरत रहे मन लगा।
एक ही आयश्रोत से,
चल रही आजीविका।
परन्तु नई पेंशन नीति से,
बदल जाएगी भूमिका।
नई पेंशन नीति का,
आ गया है उदाहरण।
इस नीति ने छीन ली,
वृद्धों का वृद्धाचरण।
पेंशन राशि देख ली,
यह इतना अधिक अल्प है।
सेवा निवृत्त पश्चात
वृद्धाश्रम ही एक मात्र विकल्प है।
तब तक हम पर आश्रित
बने रहे जो कुटुम्ब जन।
अलभ्य ही रहेगा
कुटुम्बियों को जल-अन्न।
उपहार कर्मठता का,
निश्चित है कि ये मिले।
यदि हम आज अपने
होंठ इसी तरह रहे सिले।
शुरू हो चुके हैं,
ऐसे दिनों के सिलसिले।
मिलकर प्रयास हम करें
बुढ़ापे में चेहरे रहें खिले।
-सुरेन्द्र कुमार पटेल
अति सुंदर विचार
जवाब देंहटाएंनIce
जवाब देंहटाएं👌👌
जवाब देंहटाएं