सिपाही
इस देश और दुनिया में जब भी होती दिखे तबाही,
रोम-रोम कहता है मेरा, मैं भी बन जाऊं सिपाही।
कितने वीर सपूतों ने आजादी हमें दिलानी चाही,
इन्हें स्मरण कर लगता है कि मैं भी बन जाऊं सिपाही।।
मेरा भी तन-मन-धन इस धरती पर न्यौछावर है,
अंधेरों में यह दुनिया दिखती कितनी भयावह है।
मैंने भी इन अंधेरों में एक दीप जलानी चाही,
रोम रोम कहता है मेरा, मैं भी बन जाऊं सिपाही ।।
लड़ते रहते वह अड़-अड़ कर, जलते रहते वह तप-तप कर,
ले सौगंध इस मिट्टी की रक्षा करते वह सीमा पर।
फिर दिया बलिदान लहू का, मगर एक भी आंच ना आने पाई,
कहता है पुलकित रक्त मेरा मैं भी बन जाऊं सिपाही।।
इन वीर सपूतों-शेरों ने एक दहाड ऐसा मारा था,
शासन करते गोरों के घर बच्चा-बच्चा घबराया था।
जब किया शत्रु संघार सभी ने उनकी ना एक चलने पाई,
तब विजय तिलक कर वीरो संग हम सब ने आजादी पाई।
कर स्मरण यह लगता है,
आजाद हिंद की सेवा में मैं भी बन जाऊं सिपाही।।
जिस दिन मैं लड़ जाऊंगा, पत्थर बन अड़ जाऊंगा,
इस देशधर्म की रक्षा खातिर हंसते-हंसते मर जाऊंगा।
होकर मिट्टी में दफन मेरी, यह रूह बनेगी इसकी गवाही,
फक्र से मैं यह कहता हूं कि सबसे आगे रहता है हरेक सिपाही।
रोम-रोम कहता है मेरा, मैं भी बन जाऊं सिपाही,
मैं भी बन जाऊं सिपाही।।
जय हिंद, जय भारत।
रचना:सतीश कुमार सोनी
जैतहरी, जिला-अनूपपुर (मध्य प्रदेश)
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बहुत अच्छी कविता सर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर।
जवाब देंहटाएंNYC lines sir
जवाब देंहटाएंthanks chotu
हटाएंNice Sir ji...
जवाब देंहटाएंthanks Bharat..
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