बुधवार, सितंबर 25, 2019

हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था:सुरेन्द्र कुमार पटेल का आलेख

गांवों का चाल-चलन शहर का अनुगामी होता है परन्तु पिछले कुछ वर्षों से गांवों के चाल-ढाल में अचानक परिवर्तन आ गया है। गांव के लोग अब सब्जियाँ शहर से खरीद कर ले जाते हैं जिसमें लौकी, भिंडी, आलू, प्याज, कद्दू, करेला आदि सब्जियाँ शामिल हैं। सब्जी के  मसाले जैसे लहसुन, धनिया, मिर्च, आदि भी लोग  बाजार से खरीदते हैं। पहले लोग  तिथि-त्योहारों में पकवान आदि बनाने के लिए कुछ खास सामग्री  ही बाजार से खरीदते थे, अब अधिकांश सामग्री बाजार से खरीदी जाती है। 

इसे दो तरीकों से देखा जा सकता है। एक तो यह माना जा सकता है कि गांव की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है और गांवों में भी प्रतिव्यक्ति आय बढ़ी है। दूसरा यह कि गाँव पहले की अपेक्षा शहरों पर अधिक निर्भर हो गए हैं। दोनों अंशतः सत्य हैं। यातायात एवं संचार के अभाव में पहले लोगों की आय का स्रोत केवल कृषि थी। अब यातायात की सुविधा के कारण लोग नजदीकी शहरों में  काम करके  भी आय बना लेते हैं।

लोगों की निर्भरता अब शहरों एवं बाजारों पर अधिक बढ़ गयी है और इस प्रकार गाँव की अर्थव्यवस्था देश की अर्थव्यवस्था से सीधे-सीधे जुड़ गई है। किसान के पास बेचने के लायक जो कुछ होता है, वह तुरंत बाजार में बेंच देता है और खरीदने लायक जो चीजें होती हैं वह समझता है कि जब जरूरत होगी तब वह बाजार से खरीद लेगा। इससे गाँवों की बफर स्टॉक की विशेषता ख़त्म हो  गई है। उपज का नकद दाम प्राप्त करने के लालच में किसान तुरन्त फसल बेचता है जिससे एक ओर सरकार की भंडारण की समस्या बढ़ती है  तो दूसरी ओर दलाल सक्रिय  हो जाते हैं। आए दिन अनाज गोदामों के कुप्रबंध के कारण अनाजों के नष्ट होने की खबरें समाचार पत्रों में छपती रहती हैं। इसका दुष्प्रभाव तब सामने आएगा जब देश किसी आपात स्थिति से गुजरेगा। 

विश्व की अर्थव्यवस्था कई बार मंदी के दौर से गुजरी किन्तु भारत पर उसका  प्रभाव नहीं पड़ा। इसके पीछे जो महत्वपूर्ण कारक था वह गाँव की आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था ही थी। इसमें विशेष रूप से गाँव की महिलाओं की घरेलू अर्थव्यवस्था का काफी योगदान था। प्रत्येक परिवार में जरूरत की चीजें कम से कम एक वर्ष और कुछ घरों में एक से अधिक वर्षों के लिए संग्रह कर रखी जातीं थीं। इनमें खाद्यान्न की सामग्री चावल, ज्वार, बाजरा, जौ आदि शामिल थी। इसी प्रकार बहुत प्रकार की सब्जियां जिसमें सूखे टमाटर, बैगन, गोभी शामिल हैं सुखाकर रख ली जातीं थीं जो उस समय उपयोग की जाती थी जब वर्षा के पश्चात  खेतों में फसल लेना संभव नहीं होता था। गाँव के प्रत्येक घर में अनाज की कोठरी आजकल के सरकारी गोदामों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थीं। गाँव की यह अर्थव्यवस्था ग्रामीण परिवारों को आत्मनिर्भर बनाता था। इस व्यवस्था से गाँव  देश की मंदी के प्रभाव से अछूते रहते थे। किन्तु जिस प्रकार से डिजिटल दुनिया में कैशलेस इकॉनोमी को बढ़ावा दिया जा रहा है उसी प्रकार किसानों  के घर भी अब अनाज भंडारण मुक्त हो रहे हैं। 

केवल भंडारण मुक्त होने की समस्या नहीं है, बल्कि घरों में उपयोग आने वाली कई चीजों को उगाया ही नहीं जाता। जिस प्रकार पैक्ड खाने का प्रचलन बढ़ा है वैसे ही अब घरों को सब्जी-भाजी उगाने के झंझट से मुक्त रखा जा रहा  है।  उसके स्थान पर  हर रोज झोले में बाजार से सब्जी लटकाकर लाने का प्रचलन बढ़ रहा है। इससे आने वाले दिनों में नये प्रकार की समस्याएं  पैदा होंगी, जिसकी कोई कल्पना नहीं कर रहा है। बाजार मांग और पूर्ति के सिद्धांत पर कार्य करता है। जब सब्जी की मांग का दबाव बाजार पर होगा तो निःसंदेह सब्जियों का उत्पादन व्यावसायिक तौर पर किया जाएगा। किन्तु यह निश्चित है कि ऐसा उत्पादन लोगों के  स्वास्थ्य  से समझौता करके ही किया जायेगा। जबकि यदि इतनी ही सब्जियाँ अलग-अलग लोगों द्वारा  उगाई जाती  तो उत्पादन का दबाव कम होता। जिससे  मंहगाई और गुणवत्ता दोनों पर नियंत्रण रहता। 

कुपोषण देश की बहुत बड़ी समस्या है। इसे ग्रामीण परिवेश में प्रचलित पुरानी अर्थव्यवस्था से ठीक किया जा सकता है। केवल दाल, चावल से संतुलित पोषण प्राप्त नहीं होता। गाँव में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के अनाजों के मिश्रण से सत्तू बनाया जा सकता है और बच्चों और बड़ों को उसका नियमित सेवन करना चाहिए। इसी प्रकार गाँवों के समीप पाए जाने वन फल तेंदू आदि  को सुखाकर पूरक पोषण आहार बनाया जा सकता है। महुआ बहुत अधिक पौष्टिक माना जाता है। पहले इसके लड्डू बनाये जाते थे। नाश्ता के रूप में यही लडडू उपयोग किया जाता था। इसी प्रकार तिल के लड्डू घरों में आम बात थी। अब भी इसका उपयोग किया जाना चाहिए। ऐसा करना आज अतिशयोक्ति लग सकता है किन्तु इन्हीं उपायों ने अकाल जैसी भयावह स्थिति से ग्रामीणों का जीवन बचाया है।

गाँवों को भोजन और रोजगार दोनों में ही आत्मनिर्भर  होना जरूरी है। गांव आत्मनिर्भर होंगे तभी देश का विकास संभव है। गांवों में पल रही विशाल जनसंख्या को रोजगार और भोजन दोनों ही केवल सरकारी सहयोग से दे पाना सम्भव नहीं है। ऐसा वातावरण तैयार किया जाना चाहिए जिसमें रोजगार और भोजन दोनों गांव में उपलब्ध हों  रोजगार के लिए लोगों का शहरों की ओर पलायन स्वाभाविक है परंतु इसके बाद जो लोग गांव में रहते हैं, उनका  गांव की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में उपयोग किया जाना चाहिए। गावों में अच्छी सड़कें हों, बिजली और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ हों, यह सरकार की जिम्मेदारी है।  परन्तु गाँव के लोग आत्मनिर्भर कैसे रहें, इसकी चिंता सरकार  के साथ ग्रामीणों को भी करनी होगी। प्रत्येक परिवार को वर्ष भर उपयोग में आने वाली मूलभूत चीजों का संग्रहण करना अतिआवश्यक है तभी वह देश की आपात स्थिति केप्रभाव से स्वयं को मुक्त रख सकेगा।  

लोगों को चाहिए कि जब सब्जियों का अधिक उत्पादन हो तब वह इसे अच्छी तरह सुखाकर रख लें और सब्जी की अनुपलब्धता के समय इसका उपयोग करें। बाजार में उपलब्ध सोयाबीन की बड़ी इसी का उदाहरण है। इसमें कोई पुरातन पंथी होने जैसी बात नहीं है। हम आप सब सोयाबीन की बड़ी बाजार से खरीदते ही हैं। किंतु जब तक कोई सामग्री कंपनियों के द्वारा अच्छे लेबल में पैक होकर बाजार में  नहीं आती, उसका प्रयोग करने में संकोच होता है, पुरातन पंथी ही लगता है। टमाटर का रस  बाजार में मिलता है जिसका सभी उपयोग करते हैं। आप अपने घर में मक्के का लाई फोड़कर कब खाए थे, याद नहीं होगा क्योंकि इस संस्कृति से हम आप बहुत दूर निकल आए हैं। हाँ, बाजार में पॉपकॉर्न के रूप में इसे अपने बच्चों को शान के साथ खिलाना याद हो सकता है।  कैथा का चूर्ण, बेर का चूर्ण, आम का चूर्ण आदि जो ग्रामीण परिवेश के लिए न केवल पूरक खाद्यान्न सामग्री थीं बल्कि बहुत अच्छी औषधि भी थे, इनका संग्रहण गांव से लुप्त हो रहा है।


यह बात कहना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन परिवारों की आय सीमित है, वह भी बाजार का अंधानुकरण कर रहे हैं। वह बहुत मुश्किल से कमाए हुए पैसों से सब्जी खरीद रहे हैं। कोई आम ग्रामीण यदि सब्जी के लिए बाजार पर निर्भर हो गया तब तो वह सब्जी खा ही नहीं सकता। सब्जी की कीमतें तो शेयर बाजार की तरह उछाल मारती हैं। अतः जरूरी है कि गाँव का आदमी और गाँव दोनों ही आत्मनिर्भर हों। आदमी के आत्मनिर्भर होने का तात्पर्य है कि वह स्वयं सब्जी उगाये और गाँव के आत्मनिर्भर होने का तात्पर्य है कि उस गाँव के उपयोग के लिए पर्याप्त मात्र में खाद्यान्न व सब्जी का उत्पादन उसी गाँव में  होता हो।


 भारत में 2/3 से अधिक जनसंख्या गाँवों में निवास करती  है। यदि देश में कोई  आपात स्थिति पैदा होती है  तो इस विशाल समुदाय को सरकारी मदद से खाद्यान्न उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती होगी। युद्ध, बाढ़, अकाल, सूखा, भूकंप आदि स्थितियों में भारत अपेक्षाकृत तब तक ही स्वयं को मजबूत मान सकता है जब तक कि गाँव और गाँव की अर्थव्यवस्था मजबूत है। इस प्रकार की विपत्तियों में स्वयं सरकार भी लोगों के मदद की मोहताज हो जाती है। 1962 के  चीनी आक्रमण के बाद उत्पन्न  स्थितियों का सामना करने के लिए ही लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था। यह नारा जितना तब महत्वपूर्ण था, उतना ही अब भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता रोटी की पैदावार खेतों में ही हो सकती  है किसी फैक्ट्री में नहीं। गाँव और ग्रामीण के पास जो कुछ है, वही देश की असली पूंजी है। देश कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जाएगा कि गाँव और ग्रामीणों में स्वयं के साथ शहरी और शहरों को पोषण प्रदान करने की कितनी क्षमता है।
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
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9 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. धन्यवाद प्रदीप जी। हमें आपके टिप्पणियों की प्रतीक्षा होती है।

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    2. बहुत ही उम्दा आलेख ग्रामीण परिवेश के बदलते स्वरूप का वास्तविक चित्रण है।

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  2. किसी ने कहाँ था "भारत कि आत्मा गांव में बसती है" !आज का लेख बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकी गांव समृद्ध कैसे हो व समृद्ध बने रहे विषय पर सटीक वर्णन है !भारत क्षेत्रफल कि दृष्टिकोण से विश्व में सातवा व जनसंख्या कि दृष्टि से दूसरा देश है !एक अरब से अधिक आबादी है जिसका 70% लोग गांव में रहते है !जहाँ से अनवरत पलायन शहर कि ओर हो रहा है !जिसके लिए शहर के संसाधनों पर दबाव बढ़ा जिसके लिए शहर में बेरोजगारी, भुखमरी, कुपोषण, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य पर समस्या प्रत्यक्ष रूप से देख सकते है !धन्यवाद !

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