शनिवार, अप्रैल 03, 2021

मृत्युभोज (व्यंग्य आलेख) :रजनीश(हिंदी प्रतिष्ठा)

               

             मृत्युभोज : व्यंग्य आलेख   
              (-रजनीश(हिंदी प्रतिष्ठा)

     जैसे ही सैकड़ों-हजारों की भीड़ को मृत्युभोज का हरा सिग्नल मिला वैसे ही सब अपनी-अपनी दो-दो फिट की जगह अपने नाम रजिस्ट्री कर खाने की तैयारी में जुट गए। खाना परोसा गया। घी-छोले-पनीर आदि सब बाँटे गए। लग ही नहीं रहा था कि हम मृत्युभोज में आये हैं या कोई शाही दावत या फिर देसी मैरिज पार्टी। 
        हाँ सबों ने दबा के गर्दन तक भरा। सब खाने में व्यस्त; किसी को कोई पहचान ही नहीं रहा।ऐसा लग रहा था मानों बहुत दिनों से भूखे हैं। सब अपने-अपने पत्तलों से कबड्डी और कुस्तियाँ लड़ रहे हैं पर किसी ने उस तड़पते-बिलखते परिवार को पुनः जीवन जीने का ढाढ़स नहीं दिलाया। खाए और तुरंत गोल हो लिए।
       भीखू यह सब देखकर मन ही मन रो पड़ा और स्वयं उस टूटे परिवार को अपने निश्छल भावों से धोया और कहा-“सदैव आपके साथ ही हैं, अपने को अकेला मत समझिए।“ लोग इस मृत्युभोज में ऐसे ठहाके मार रहे थे कि जैसे किसी बेहतरीन शादी के उत्सव में आये हों।
       भीखू अपने घर रवानगी के लिए उस व्यथित परिवार से आज्ञा ली और घर की ओर चल दिया। कइयों ने बिना बताए घर जाने के बहाने दारुओं के अड्डों तक जा पहुँचे और पीकर खूब लड़ाई की-“कि हमने पी है।“ भीखू अपने मित्र चीखू से एक दिन बैठक लगाई और मृत्युभोज पर बातें छेड़ दी। चीखू तू ही बता क्या मृत्युभोज समाज के लिए आवश्यक है? इससे वास्तव में क्या-क्या फायदे होते हैं? मुझे तो कुछ ठीक नजर नहीं आता। तब चीखू ने कहा कि सुन भाई एक गरीब अपनी कमाई का कुछ हिस्सा इसमें तो लगा ही देता है। कुछ तो कर्ज माँगकर इस दिखावे को पूरा करते हैं। अगर यह सब नहीं करेंगे तो अपने को छोटा महसूस करेंगे-आई समझ में बात।
      हाँ, आ तो रही है किन्तु क्या इस बारह-तेरह और चौदह दिन के मृत्युभोज  को एक दिन में नहीं समेटा जा सकता? अरे! भाई समेटा जा सकता है लेकिन आज के सामाजिक-गुरिल्ला मानव बमगोला है; तैयार ही नहीं होता। थोड़ी-थोड़ी बातों में तुनुक जाते हैं। यहाँ कोई-कोई तो शराब आदि पीकर भी मृत्युभोज का आनंद लेने आ जाते हैं। जिससे पता चल जाता है कि यह अनपढ़ की ट्राफी लेने में माहिर हैं। भीखू भाई मुझे लगता है कि इस मृत्युभोज को बंद कर देनी चाहिए। चौदह-पंद्रह दिनों के इस दिखावे में क्या आनंद?-कुछ भी नहीं। तड़प तो उनको है जिन्होंने अपनों को खोया है।
          क्या वह परलोकवासी इन पंद्रह दिनों के ढकोसलों से वापस आ सकता है? क्या मतलब इतना सब खर्च करने से। इसके वजाय हम उन मृतक परिवार के साथ तीन-चार दिनों तक स्नान-शुद्धि में जाएँ। लौटकर उस मृतक के फोटो में फूल-रोली-चन्दन चढ़ाकर चुपचाप अपने घर लौट आएँ, यही उचित है।
   उस मृतक परिवार को क्या एक ही बार सहभोज कराना है? इस मृत्युभोज में सहभोज नहीं कराया तो क्या हो गया?- कुछ भी नहीं। अरे उसे तो आगे कथा-भागवत-अन्नप्रासन भी तो करनी है। उन भूख के बीमारों को इसमे खा लेनी चाहिए। हम टूटे हुए परिवार को और क्यों तोड़ें? कुछ दिन-महीने-साल बाद आँखों की हरियाली आ जाने पर खा-पी लेते। हाँ ये तो तूने सौ प्रतिशत बात सही की। समाज में यही होना चाहिए। समाज पुराने ढर्रों को छोड़े और नई नीतियों जैसे शार्टकट नीति अपनाकर निपट ले। कुछ कामों के लिए शार्टकट ठीक नहीं होता पर इस मृत्युभोज के लिए उचित है। हम सब खा-पीकर अपने-अपने घर को आ जाते हैं और वहाँ वह शक्तिहीन परिवार अपनी व्यथा से व्यथित होकर अपने को जैसे पाता ही नहीं है। घर के अन्दर से रोने की चीत्कार और बाहर खाने वालों की असीमित भीड़- ये कैसा मामला है? मेरे तो कुछ समझ नहीं आता कि किन लोगों ने समाज को पंगु बना दिया और दिखावे का ना छूटने वाला प्लास्टर चढ़ा दिया।
        चीखू भाई हमें लगे कि हम मृत्युभोज में आये हैं। ऐसी वहाँ की व्यस्था होनी चाहिए। न जाने इस मृत्युभोज में ढकोसले और बिना घास-फूस के घोसले क्यों शामिल है। सबों ने अपने-अपने पत्तलों में अपने दो-चार ग्रास छोड़ दिए उन कौवों और चीलों के नाम पर। कभी-कभी उन कौवों-चीलों को भोजन के ये दाने नहीं मिल पाते। उस मृतक के नाम से ये उड़ने वाले जीव फलीभूत तो होते ही हैं साथ ही घर के थानेदार-कुत्ते भी चाव से इस मृत्युभोज का लुत्फ जरूर उठाते हैं।
          अरे, चीखू न जाने कब तक इस प्रथा को लोग अपने गले से चिपकाये रहेंगे। मुझे तो लगता है कि लोगों को यही करने में आनंद मिलता है। जीवित हाल में उस मृतक को हमने कुछ अच्छा पौष्टिक वाला फल-दूध-दही-मक्खन-घी नहीं खिलाये किन्तु आज उसी के नाम पर यह सब भूख के बीमारों को खिलाया जाता है। उस मृतक के मुँह में नहीं पड़ा होगा यह सब। यह तो केवल नाम का खेल है, वास्तविकता का तो ज़माना ही नहीं रहा। इस मृत्युभोज में केवल भोजन का रेलम-रेल ही प्रमुख है।
       आज समाज को यथार्थ का साबुन लगाकर मल-मलकर नहलाने की जरूरत है। तब समाज में कुछ सकारात्मक परिवर्तन के शुभ दर्शन होंगे।
  “धन्य है समाज और धन्य हैं समाज के लोग”।
 हाँ, मित्र बहुत बातें हो गयी, चल अब घर चलें। 
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('आधुनिकता का शिलालेख' से)
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