शुक्रवार, जुलाई 31, 2020

व्यक्तित्व निर्माण में साहित्य की भूमिका:सुरेन्द्र कुमार पटेल



व्यक्तित्व निर्माण में साहित्य की भूमिका

वह एडीजे के पद पर पदस्थ था। न्याय करना उसका पेशा था। जाहिर है उसने संविधान पढ़ा होगा। अपराध की धाराएं पढ़ी होंगी। उसने संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्यों को भी पढ़ा होगा जिसमें वर्णित है कि भारत का प्रत्येक नागरिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद व ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
उसकी और उसके बेटे की संदिग्ध विषाक्तता के कारण मौत हो जाती है। पुलिस संदेह के आधार पर कुछ लोगों को गिरफ्तार करती है। जांच से पता चलता है कि एडीजे को एक महिला ने तंत्र-मंत्र का सहारा लेने का सलाह दिया था ताकि पारिवारिक कलह दूर हो और स्वास्थ्य अच्छा हो। जिसके बाद महिला और एडीजे के बीच आटे का आदान-प्रदान हुआ था। एडीजे ने स्वयं अपने बयान में बताया कि उस रात उसने उसी मिश्रित आटे की बनी चपाती खाई थी, उसके दोनों बेटों ने भी चपाती खाई थी जबकि पत्नी ने चावल खाया था। छोटे बेटे को जल्दी ही उल्टी हो गई जिससे उसकी तबियत गंभीर रूप से उतनी खराब नहीं हो पाई जबकि एडीजे और उसके बड़े बेटे की तबियत बिगड़ी और अंन्ततः उन दोनों की मौत हो गई। आटा देने वाली महिला का पुराना परिचय था। शक है कि एडीजे द्वारा पैसों की मदद भी की जाती थी। हो सकता है पैसे वापस लेने का दबाव भी रहा हो। जाॅंच का विषय है कि वास्तविकता क्या है।
उक्त घटना मानवीय जीवन के पर्दे के पीछे छिपी धुंधली तस्वीर को साफ करती है। पढ़ा-लिखा, सभ्य, ओहदेदार, चमकते कोट और कमीज में लटकती टाई, चमचमाते जूते, जेब से झांकता कलात्मक कलम, करीने से छांटी गई मूॅंछें, क्लीन सेव या बारीकी से सजाई गई दाढ़ी, नक्काशी की गई हेयर कटिंग और उस पर मुख से ओस की मानिंद या फिर कश्मीरी बर्फ की तरह झड़ते शब्द व्यक्ति का एक ऐसा आभासी चित्र प्रस्तुत करते हैं जिसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। बल्कि सच यह होता है कि इन आवरणों के मध्य में एक ऐसा आदमी फंसा-पड़ा होता है जिसका निर्माण समाज की नितान्त गिरी हुई रूढ़ियों से हुआ होता है। उसका किताबें पढ़ना रोजगार प्राप्त करने से अधिक कुछ नहीं होता। वह एडीजे कौन है? कोई भी नाम दे लो, कोई फर्क नहीं पड़ता। अकेला एक एडीजे ही क्यों? आप किसी ओहदे को उठाकर देख लीजिए। मैं, आप या हमारे आसपास न जाने कितने ही ऐसे ओहदेदार हैं जिनकी सेवा लगी ही किसी टोने-टोटके के कारण है। कितनों को बाबाओं और ओझाओं का आशीर्वाद मिला हुआ है। अन्यथा वे इस सेवा में होते ही नहीं। और यदि इस सेवा में नहीं होते तो शायद मर जाते। इसीलिये उन्होंने सेवा को इतनी प्राथमिकता दी और उसके ऊपर तंत्र-मंत्र, बाबाओं और ओझााओं के आशीर्वाद को भी। ऐसे लोगों से आप न्याय और पारदर्शिता की उम्मीद करते हैं? ऐसे लोगों से आशा करते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात करेंगे? असंभव है।

मेरे मित्र का एक मित्र है। वह पटवारी है। उसने सालाना लगने वाले मेले में एक बाबा से अंगूठी ली और साथ में आशीर्वाद भी। अगला मेला लगने के पूर्व उसकी नियुक्ति पटवारी पद पर हो गई। हालांकि वह पढ़ने में पहले से ही होशियार था और उसी क्षेत्र के उसी के जैसे और लड़कों की भी पटवारी में नियुक्ति हुई थी। अब वह उस बाबा का गुलाम है। श्रद्धा से उसके पांव में माथा टेकता है और पटवारी में हुई नियुक्ति का पूरा श्रेय उस बाबा को देता है। वैसी श्रद्धा न तो उसकी अपने माता-पिता के प्रति है और न उसके उन गुरुजनों के प्रति जिन्होंने उसे सतत ज्ञान, समझ और मार्गदर्शन दिया।

अखबारों के माध्यम से आए दिन बाबाओं के भ्रम जाल में अपना सबकुछ लुटते हुये देखा जा सकता है। यह इस बात के लिये चिन्तित करती है कि वास्तव में पढ़ना-लिखना क्या है? क्या यह सूचना का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण मात्र है? क्या हम अपने चारों तरफ घटती घटनाओं से कोई निष्कर्ष निकालने में अक्षम हैं?

उक्त घटना से कुछ बातें निकलकर सामने आती हैं। व्यक्ति का पढ़ना-लिखना अलग बात है और जीवन की वास्तविकताओं के प्रति समझ रखना अलग बात है। किसी परिवार का पढ़ा-लिखा होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि उसके परिवार में सब कुछ ठीक ही होगा। बल्कि उसके परिवार में सब कुछ ठीक होने के लिये उसके परिवार के सभी सदस्यों में प्रेम, सहयोग, समन्वय और एक-दूसरे के प्रति सही समझ होना आवश्यक है। पढ़ने-लिखने के बावजूद व्यक्ति अपने जीवन की समस्याओं को मानवीय व्यवहार में छिपी कठिनाइयों को समझने के स्थान पर बाबाओं, ओझाओं के शरण में जाना ज्यादा पसन्द करता है। यह प्रत्येक परिवार के लिये घातक है। यह इस बात का सूचक है कि हमारे भीतर वैज्ञानिक चिन्तन की बहुत अधिक कमी है। हमारे व्यक्तित्व का निर्माण जिन आधार स्तम्भों के माध्यम से हुआ है उनमें अंधविश्वास भी एक मजबूत आधार स्तम्भ है।
एक और बात है कि व्यक्ति अपने निजी रिश्तों में स्वयं सुधार लाने के बजाय बाहरी रिश्तों में टिक जाता है। फिर उस रिश्ते का खेल न जाने कहाॅं ठहरता है। पारिवारिक तनाव की एक मुख्य वजह यह भी होती है। व्यक्ति अपने परिवार से तृप्त नहीं है। व्यक्ति अपने काम और पेशों से मिली शान से भी तृप्त नहीं है। किन्तु बाहरी रिश्तों में वह तृप्त है। ऐसा इस कारण भी है कि लोगों के मस्तिष्क में उन्मुक्तता और वैयक्तिक स्वतंत्रता के संबंध में, सुख के संबंध में अधकचरी अवधारणा है।
संचार क्रान्ति के युग के आरम्भ में यह विश्वास किया गया होगा कि इससे समाज में फैली भ्रान्तियों, रूढ़ियों को दूर करने में मदद मिलेगी। यह भी आशा की गई होगी कि संचार क्रान्ति के फलस्वरूप साहित्य का प्रचार-प्रसार अधिक होगा और साहित्य अंधविश्वासों और रूढ़ियों को रोकने में मदद करेगा। अफसोस है कि साहित्य, फिल्म और धारावाहिक जगत ने समाज को वापस वही परोसा जो समाज में पूर्व से दीमक की तरह फैला था। लेखक हों या फिल्मकार ऐसी चीजों का सृजन करते हैं जिन्हें जनमानस सराहे। पाठक या दर्शक पैदा करे। वे भी समाज की उसी मुख्यधारा में बहना पसन्द करते हैं जिसमें वे लाश की तरह बहने का आनंद उठा सकें।
यदि एडीजे जैसे पदों पर आसीन व्यक्ति की मौत का कारण उसका टोने-टोटके में अंधश्रद्धा है तो यह सम्पूर्ण समाज के लिये चिन्ता का विषय होना चाहिए और साहित्य के लिये भी कि उसने अब तक अपनी कैसी भूमिका निभाई है और आगे उसे अपनी भूमिका का कैसे निर्वहन करना है। साहित्य का काम मात्र हृदय में स्पन्दन पैदा कर मनोरंजन करना नहीं है बल्कि समाज का सही दिग्दर्शन करना भी है।
आलेख:सुरेन्द्र कुमार पटेल
 [इस ब्लॉग में रचना प्रकाशन हेतु कृपया हमें 📳 akbs980@gmail.com पर इमेल करें अथवा ✆ 8982161035 नंबर पर व्हाट्सप करें, कृपया देखें-नियमावली

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया रचना के संबंध अपनी टिप्पणी यहाँ दर्ज करें.