बुधवार, जून 03, 2020

प्रकृति की एक झलक (कविता): मनोज कुमार

"प्राकृति की एक झलक"

प्रकृति     के      सकल  जड़,  चेतन,
अनुपम,  मनोहरी,  सुहृद   दृश्य   हैं।
मानव  के  कुकृत्य,  विश्वासघात  से
सकल  चराचर   हो  रहे   अदृश्य  हैं ॥

मृदा,   इला,   जल,   शुचि     समीर,
हर   प्राणी   को   करते   आकृष्ट  हैं।
मानव  कानन  को  निर्वरीकरण कर,
महिमामंडित धरा को कर रहा नष्ट है॥

धरती  माँ  का  हृदय  छलनी  हो गई,
मानव  जनित निर्मम गतिविधियों से।
मृदा   अपरदन    चरम   सीमा   पर,
कृषि    नवाचार    के    विधियों  से॥

जैव   प्रजातियां  विस्थापित  हो  गए,
सदाबहार  वन  हो  गए अति  कंटीले।
जैव  पारिस्थितिक   तंत्र    संकटमय,
मनोरम  हरित   पादप  हो   गए पीले॥

विरासत   पशु    विलुप्त  हो   रहें   हैं,
सजीवों    का     जीवन    संकटग्रस्त।
निर्जीवों  का  जीवन  चरम  सीमा पर,
मानव प्रहार से  प्रकृति    अति त्रस्त॥

सरिता, सरोवर   शुचि  जल   शून्यमय,
जलीय जीवों  का   जीवन  अति  कष्ट।
थलचर  जीव   कालकवलित   हो  रहे ,
अनवरत  सकल  जीव  हो रहे   विनष्ट॥

प्राकृतिक   संपदा  के  अति   दोहन से,
सतत   बढ़     रहा     है    ऊष्मीकरण।
पतित पावन सी धरा  बंजर  हो  रही  है,
विनष्ट   हो   रहा   मृदा   का उर्वरीकरण 

शुचि   समीर  हो  गया   अति   जहरीला,
मानव  निज  कर्मों    का  विषपान  करो।
हे!  मानव  धरा  में  जीवित  रहना  है तो,
तरु रोपित कर प्राकृति का गुणगान करो॥

                  स्वरचित
          मनोज कुमार चंद्रवंशी
       जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश

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