सोमवार, मई 25, 2020

धरा का सौंदर्य (कविता): मनोज कुमार

"धरा का सौंदर्य"

धरती माँ की आंचल,अजब अकथ  निराली है।
अवनि  से  अंबर तक, अपना   आँचल  डाली है॥

धरती माँ  के आंचल में, सुमन  खिले  बहुरंगी।
धरती माँ  के उपवन में, कुसुम  दिखे  सतरंगी॥

धरती मां हरा आँचल ओढ़े,  दिखती है  सुंदर।
धरती मां के पग धुले, अगम,  अथाह  समंदर॥

धरती माँ  की  भाल  सोहे,   हिम  श्रृंगार  करे।
जगत के कानन, विटप,  सुंदर  शंखनाद  करें॥

वक्ष स्थल पर  कल-कल, करती हैं  निर्झरिणी।
अति मनभावन धरा की,करते  महिमा  वर्णित॥

मलय गिरि धरती माँ  की, कानन कुंडल सोहे।
धरा के उत्तर दिशि में, तुंग श्रृंग अति मन मोहे॥

धरती माँ पीली चीर पहने, तुषार हैं सुंदर गहने।
उत्तर दिशा सप्तगिरि श्रृंखला, सहोदर हैं बहने॥

झुरमुट तरू, लता, बेल, धरती माँ  की सखियाँ।
धरा के  अद्भुत सौंदर्य से, तृप्त नहीं हैं अखियाँ॥

                          रचना
             मनोज कुमार चंद्रवंशी
          जिला अनूपपुर मध्य प्रदेश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया रचना के संबंध अपनी टिप्पणी यहाँ दर्ज करें.