सोमवार, अप्रैल 27, 2020

क्या प्रकृति हमें मारना चाहती है?

क्या प्रकृति हमें मारना चाहती है?
आज  सबसे बड़ी चिंता कोविंड-19 महामारी से मानवजाति को बचाने की है। विश्वभर की सरकारें अपनी प्रजा को बचाने के उपाय करने में जुटी हुयी हैं। इस बीच इस महामारी के प्रभाव से ढेर सारे सवाल  मानव मस्तिष्क में उभरने लगे हैं। कई धारणाएं बन रही हैं। मानव मन विचलित हुआ जा रहा है। आदमी तनाव महसूस कर रहा है, भयभीत है, डरा सहमा है। सबसे बड़ी चिंता है  कि इसका अंत कब और  कैसे होगा?  इसका तांडव दुनिया में कब तक चलेगा? आगामी वैश्विक परिदृश्य कैसा होगा? वह जैसा भी होगा उसे देखने के लिए हम बचे रहेंगे या नहीं?

इतिहास के लिए  यह कोई पहला मामला नहीं है। विश्व इसके पहले भी कई वैश्विक महामारियों का तांडव झेल चुका है। पहले विश्व युद्ध के दौरान 1918 में फैले 'स्पेनिश फ्लू' को इतिहास की सबसे घातक महामारी माना जाता है और इससे 5-10 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। ज्यादातर संक्रमितों के मरने या उनमें बीमारी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा होने के कारण ये 1919 में खत्म हो गया। पहली बार साल 541 में फैले जस्टिनियन प्लेग को इतिहास की दूसरी सबसे घातक महामारी माना जाता है। अगली दो सदी तक ये बीमारी आती-जाती रही और इससे लगभग पांच करोड़ लोगों की मौत हुई जो उस समय की वैश्विक जनसंख्या का 26 प्रतिशत था। 1981 में पहचाने जाने के बाद से लगभग 3।5 करोड़ लोग AIDS का शिकार हो चुके हैं। 14वीं सदी में फैली 'द ब्लैक डेथ' महामारी से केवल यूरोप में दो करोड़ लोगों की मौत हुई थी। एशिया से फैलना शुरू हुई ये बीमारी अक्टूबर 1347 में इटली के मेसीना बंदरगाह पर आए 12 जहाजों के साथ यूरोप में पहुंची। इन जहाजों में ज्यादातर लोग मृत पाए गए और जो जिंदा थे, वे बेहद बीमार थे। जहाजों को तत्काल वापस भेज दिया गया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और बीमारी धीरे-धीरे पूरे यूरोप में फैल गई। 1855 में फैली 'तीसरी प्लेग महामारी' दुनिया के इतिहास की पांचवीं सबसे घातक बीमारी साबित हुई है।(देखें-सन्दर्भ)

इन आंकड़ों में भय और हर्ष दोनों व्याप्त है। भय यह कि अन्य महामारियों की तरह इस महामारी से भी लाखों-करोड़ों लोगों की जान जानें का खतरा है किन्तु इस महामारी से संक्रमित हुए लोगों में मृत्युदर अन्य महामारियों की तुलना में काफी कम है, जो कुछ हद तक राहत देता है  किन्तु अंतिम आंकड़ा  इस महामारी के समूल नष्ट हो जाने के बाद ही सामने आएगा। इस महामारी में बहुत सारे लोग अपनों को खो रहे हैं। परिवार उजड़ रहे हैं। 

इस महामारी के प्रसार में हमारी मान्यताओं और  अज्ञानता  का काफी योगदान रहा है। वायरल हुए समाचार/वीडियो में यह देखने को मिला कि अलग-अलग धर्मावलम्बियों ने अपने ईष्ट के प्रभाव से इस महामारी से बचे रहने का अतिरेक प्रचार किया। दुखद है कि इसमें कई धर्मगुरु और राजनेता भी शामिल रहे। जिनके कन्धों में लोगों को सही मार्ग बताने की जिम्मेदारी थी वही लोगों को अँधेरे कुएं में धकेलते रहे।  अतः बचाव के उपायों की चर्चा वहीं से शुरू करते हैं। 

प्रायः सभी धर्मों में प्रकृति पूजा का महत्व रहा है। प्रकृति पूजा को सरल बनाने का सबसे प्रभावी उपाय उसका मानवीकरण है। प्रारंभ में यह मानवीकरण मानव मस्तिष्क में प्रकृति का महत्व स्थापित करने के लिए किया जाता है किन्तु बाद में वह मानवरूप आकृति या प्रतीक ही प्रमुख हो जाती है और प्रकृति गौंड हो जाती है। हम हमारे पूर्वजों की तस्वीर और मूर्तियां स्थापित करते हैं। इसका आशय है कि हम उनका आदर करते हैं और उनके आचरण को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। बाद में वह मूर्ति या प्रतिमा केवल माल्यार्पण के लिए याद की जाती है और कई बार उसको  मुद्दा बनाकर उनके अनुयायी ऐसे-ऐसे कृत्य करते हैं जो उस महापुरुष के जीवन आदर्शों के बिलकुल विरुद्ध होता है। आज हिंसा के नये-नये उदाहरण सामने आ रहे हैं। इस बीच हम कितनी भी कोशिश कर लें, महात्मा गाँधी जी प्रतिमाओं से निकलकर बाहर नहीं आने वाले हैं। हाँ, यदि हम उनके आचरण को लोगों के सामने रखें तो अवश्य हमें कामयाबी मिल सकती है। हम उनके जीवन  संघर्ष से  प्रेरणा लेकर अपने व्यवहार में परिवर्तन करके अपना जीवन सरल और सुगम बना सकते हैं, किन्तु हम यह आशा करने लगें कि धूप अथवा वर्षा के समय वे हमें छतरी से ढँक लेंगे, तो वह  हमारी अंधश्रद्धा का सुबूत होगा, यथार्थ नहीं ऐसा  प्रकृति के विभिन्न स्थापित धर्मप्रतीकों के लिए भी सत्य है। हमें यह बात स्वस्थ दृष्टिकोण से सदा के लिए अपने मस्तिष्क में बैठा लेना चाहिए।

पहले इस बात को समझ लें कि प्रकृति का व्यवहार मानव व अन्य जातियों के प्रति कैसा है। प्रकृति के मानवीकरण की हमारी आदत ने प्रकृति को इस रूप में देखने की दृष्टि पैदा कर दी है जैसे वह हमारी ही तरह सोच और विचार करती है। यदि ऐसा है तो फिर आप सोचिये प्रकृति का सबसे पसंदीदा जीव कौन सा है? वह किसे बचाना चाहती है और किसे मारना चाहती है? वन के वन भूमिगत हुए हैं, ज्वालामुखियों के प्रभाव से न जाने कितने विशाल क्षेत्रफल के जीव काल के गाल में समा गए। उल्कापिंडों के निपात ने धरती में न जाने कितनी नई संरचनाएं पैदा कर दी और इन प्रत्येक घटनाओं में न जाने कितनी प्रजातियाँ सदैव के लिए नष्ट हो गयीं। प्रकृति किसी को न तो बचाना चाहती है और न ही मारना चाहती है। दरअसल वह कुछ चाहती ही नहीं है। क्योंकि चाहना जीव का स्वभाव है। प्रकृति का नहीं। हमारा होना अथवा नहीं होना परिस्थितियों  पर निर्भर है। परिस्थितियों  के स्वभूत संचालन की जो योग्यता है प्रकृति में है, हम उसी के परिणाम हैं। प्रकृति न तो किसी की मित्र है और न ही किसी की शत्रु। जीव के प्रति उसकी अनुकूलताएँ उसे मित्र बनाती हैं और प्रतिकूलताएं शत्रु। अब हम चर्चा कर सकते हैं कि जीव प्रतिकूलताओं की स्थिति से बचने के लिए क्या उपाय करता है। 

प्रत्येक जीव कितना ही सूक्ष्म अथवा विशाल क्यों न हो उसके पास जीवन रक्षा के उपाय अवश्य होते हैं। हम देखते हैं कि वर्षा ऋतु के बाद जैसे ही कडाके की ठण्ड पड़ना प्रारंभ होती है, कीड़ों-मकोड़ों, सर्प-बिच्छुओं आदि का दिखना कम  हो जाता है। जब तालाब में पानी कम हो जाता है तो मेढक और मछलियाँ कीचड़ में धंसना प्रारम्भ कर देती हैं। दिन होते ही रात्रिचर जंगली जीव घने-खोह वनों की ओर चले जाते हैं। प्रवासी पक्षियाँ मौसम बदलने के साथ ही अपना प्रवास बदल लेती हैं। इस क्रम में वह हजारों मील दूर का सफर तय करते हैं।  वास्तव में वे सब प्रकृति की प्रतिकूलताओं से स्वयं को बचाने की कोशिश करते हैं। इस कोशिश में जो सफल होते हैं, उनका जीवन आगे की संघर्षयात्रा करता है। 

प्रकृति की प्रतिकूलता से हम तीन प्रकार से बच सकते हैं। पहला हम प्रकृति की प्रतिकूलता को ही बदल दें। दूसरा, हम स्वयं के शरीर में ऐसी संरचना पैदा कर लें जिससे प्रकृति की प्रतिकूलताओं का प्रभाव न पड़े और तीसरा हम प्रतिकूलताओं से दूर चले जाएँ जहां हमें प्रकृति की प्रतिकूलता प्रभावित न कर सके।

कोविड-19 बीमारी से बचाव के सन्दर्भ में कोरोना वायरस इतना सूक्ष्म और व्यापक मात्रा में प्रसारित है कि हम इसे कैद नहीं कर सकते अर्थात हम प्रकृति की प्रतिकूलता को बदल नहीं सकते। दूसरा उपाय हमारे शारीरिक संरचना में बदलाव का है।  हम इसे इच्छित रूप में तब तक नहीं कर सकते जब तक कि हम  इसके विरुद्ध कोई टीका बनाने में सफल नहीं हो जाते। प्राकृतिक रूप से हमारे शरीर में इसके प्रतिरोध की शक्ति अर्थात शारीरिक बदलाव अवश्य होगा किन्तु तब तक न जाने कितनी जानें गंवानी पड़ेगी। तब हमारे पास तीसरा उपाय ही सर्वाधिक कारगर है कि हम प्रतिकूलता से दूर चले जाएँ जहां हमें प्रकृति की यह प्रतिकूलता प्रभावित न कर सके। हम विश्व में इस महामारी से चारों ओर से घिरे हैं। कहीं जा नहीं सकते किन्तु यदि हम अपने घरों में बनें रहें और सुरक्षा उपायों का इस्तेमाल करते रहें तो इस महामारी से अवश्य बच सकते हैं।   महामारियों के इतिहास में यह बात दर्ज है कि संक्रामक बीमारियों ने वहाँ ज्यादा तबाही मचाई है जहाँ जागरूकता देर से आई।

पुनः, प्रकृति न तो किसी की दुश्मन है और न मित्र। जो जीव प्राकृतिक प्रतिकूलताओं से बचने का उपाय कर लेता है, दुनिया में अधिक समय तक जीवित रहता है, वरना प्रजाति की प्रजाति नष्ट हो जाती है। प्रत्येक जीव के पास जीवन रक्षा के कुछ उपाय होते हैं। उन्हीं उपायों के कारण उसका अस्तित्व बना रहता है। विवेकवान मनुष्य के सामने आज अपने जीवन रक्षा उपायों को अपनाने की चुनौती है। यह उस पर निर्भर है कि वह अपनाता है अथवा नहीं, यद्यपि उसके पास पहले से अधिक सुविधाएँ विद्यमान हैं।


आलेख- सुरेन्द्र कुमार पटेल

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