बुधवार, अप्रैल 01, 2020

जिंदादिल गाँव:सुरेन्द्र कुमार पटेल

शहर से ऊबकर, जब भी जाता हूँ गांव।
जन्नत-सी होती है वहाॅं जहाॅं पीपल की छाँव।।
दूर-ही से पहचान लिया जाता हूँ मैं किसका पूत।
शहर के चकाचौंध में काम आता नहीं कोई सुबूत।।
जहाँ बांटी जाती है एक चूल्हे की दूजे से आग।
और जहाँ कीचड़ ही में खेला  जाता  है फाग।।
और जहाँ बच्चों की टोली खाती है मिलजुलकर अमिया।
जहाँ महल होता है राजकुमार तो झोपड़ी भी होती है रनिया।।
जहाँ पंचपरमेश्वर की खुश्बू से सिंचित होता है न्याय।
और जहाँ बड़ा भी स्वीकारे छोटे के सम्मुख अपना अन्याय।।
क्या लौटा सकोगे आज मुझे फिर से मेरा वह गाॅंव?
जहाँ की मीठी बोली ही भर देती है बड़े-बड़ों का घाव।।
गाँव, इस शब्द का इस्तेमाल इसे महिमा मण्डित करने के लिए नहीं किया गया है। इसकी महिमा स्वतः ही अवर्णनीय है। फिर भी कुछेक प्रश्न मस्तिष्क में उभरते हैं। गाँव यदि इतने सुन्दर और दिव्यता से परिपूर्ण हैं तो फिर लोग गाँव से शहर की ओर पलायन क्यों करते हैं। गाँव के दीपक में इतनी रोशनी है तो फिर लोग शहर के बड़े-बड़े ट्यूबलाइट्स के प्रति आकर्षित क्यों होते हैं? गाँव में इतना सम्मोहन है तो लोग इस सम्मोहन से छिटक कैसे जाते हैं? गाँव इतने खूबसूरत हैं तो गांव इतने लचर और असहाय क्यों हैं?

इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए गाँव की बनावट को समझना होगा। गाँव बसे हैं अपनी न्यूनतम जरूरतों के आधार पर। गाँव का अर्थ ही है जितना अधिक से अधिक हो सके अपने परिश्रम से गाँव में उपलब्ध संसाधनों को अपने पक्ष में मोड़कर जीवनयापन करना। आज भी जिन लोगों का गुजारा शहर की चकाचौंध रोशनी में संभव नहीं लगता तो वह गाँव में थोड़ी सी भूमि लेकर उसमें अपना परिश्रम झोंककर अपने बच्चों का पेट पालने लगते हैं। गाँव की मूल विशेषता है कि गाँव के सभी लोगों की मूलभूत आवश्यकताएं गांव में ही पूरी हो जाती हैं। मूलभूत आवश्यकताएं जिसमें रोटी, कपड़ा और मकान शामिल है। गाँव की अपनी अर्थव्यवस्था स्वायत्त और परिपूर्ण होती है। गाँव में जरूरत की सभी चीजें गांव ही में पैदा होती हैं। गाँव का शासनतंत्र अपने आप में पूर्ण होता है। महात्मा गांधी ने इसे ग्राम स्वराज की संज्ञा दी थी। हो सकता है आपको ऐसा कोई गाँव दिखाई नहीं देता हो। उसका कारण है कि जिन गाँव की चर्चा की जा रही है, वैसे गाँव अब अपवादस्वरूप ही बचे हैं। गाँव शेशांष स्वरूप में बचे हैं। यदि गाँव का शेशांश आपको इतना सम्मोहित करता है तो आप सोचिए वह गाँव जो अपने पूरे स्वरूप में विद्यमान रहा होगा, कितना खूबसूरत रहा होगा।

गाँव का मतलब है कि हमारे घर में छेाटा-सा ही सही, एक आंगन होगा। जिसमें हम खुली हवा ले सकेंगे। घर के पीछे कुछ खाली स्थान बचा होगा जिसमें रोजमर्रा की जरूरतों के लिए सब्जी-भाजी उगाते होंगे। गाँव में चौपाल के लिए खुले में या भवन के स्वरूप में कोई एक जगह होगी गाँव के लोग इकट्ठे होकर गाँव की किसी समस्या पर चर्चा कर सकेंगे। गाँव में वह समरसता होगी जिसमें विभिन्न जाति और धर्मावलंबियों के बीच मामा, ताऊ, दादा, बुआ जैसे रिश्ते मौजूद होंगे। गाँव में दया और परोपकार का वह अंश होगा जब किसी की खास जरूरतों को पूरा करने के लिए स्वतः ही कुछ लोग आगे आ जाएंगे और समस्या का समाधान कर देंगे। शादी-ब्याह के अवसरों पर गाँव के लोग एक-दूसरे के घरों में आने वाली बारातों को अपने घर में ठहरा लेंगे और उन बारातियों की सुख-सुविधा का ऐसे ख्याल रखेंगे जैसे वे उनके अपने घर के बाराती हों।

गाँव में शिक्षा आनी चाहिए थी। गाँव में समृद्वि आनी चाहिए थी। गाँव में सड़क, बिजली और सिंचाई के साधनों का विस्तार होना चाहिए था किन्तु गाँव की संस्कृति बची रहनी चाहिए थी। गाँव की अपनी संस्कृति जिसमें सभी एक-दूसरे को जानते और पहचानते हैं। गाँव की संस्कृति जिसमें किसी विपदा के समय गाँव के लोग एक-दूसरे का सहारा बनते थे। गाँव की संस्कृति जिसमें आपसी सहयोग से हरेक का घर बनता था। गाँव की संस्कृति जिसमें दो किसान अपने-अपने एक बैल के आदान-प्रदान से खेती का काम कर लिया करते थे। गाँव की वह संस्कृति जिसमें सहयोग और सहानुभूति, दया और परोपकार का अंश था। गाँव की वह संस्कृति जिसमें सब कुछ लुट जाने के बाद भी जीविका बची रहती थी। भयानक दुर्भिक्ष से उबरने की जिसमें क्षमता थी। ऐसे गाँव बचने चाहिए थे।
गाँव की खूबसूरती बची रहे, इसके लिए गाँव की सबसे मजबूत संस्था ग्राम-पंचायत को संवैधानिक दर्जा दिया गया। गाँव मजबूत हों, गाँव के लोगों को रोजगार के साधन मुहैया हो सकें। गाँव अपने ही स्वरूप को और अधिक निखार सकें, इसके लिए राज्य और केन्द्र सरकारों द्वारा वित्तीय सहायता दी जाने लगी। लेकिन क्या गाँव अपनी मौलिकता बचा सके? और अभी जो मौलिकता बची हुई है, वह क्या सोच-समझकर बचाई गई है या उन गरीब और बेसहारा लोगों के कारण बची है जिनकी मजबूरी है कि वे गाँव के स्वरूप को बचाए बगैर जीवित ही नहीं रह सकते। 

गाँव में रहने वाले लोग अब न्यूनतम आवश्यकताओ की पूर्ति के बजाय सम्पूर्ण सुख-सुविधा की अपेक्षा करते हैं जो स्वाभाविक है। गाँव, न्यूनतम आवश्यकता की तो पूर्ति कर सकते हैं किंतु तमाम भौतिक साधनों की पूर्ति के लिए अधिक धन की आवश्यकता है। यही कारण है कि लोग गाँव से शहर की ओर पलायन करते हैं। एक ही परिवार में जमीन के बंटवारे और सिंचाई के उपयुक्त साधन नहीं होने के कारण भी लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। किंतु जो केवल पलायनवादी सोच के कारण शहर की ओर पलायन कर रहे हैं, उससे गाँव कमजोर हो रहे हैं और गाँव की जीवनदायिनी शक्ति का ह्रास हो रहा है।

दुर्भाग्य से हमारे गाँव अपनी मौलिक विशेषताओं को खोते से जा रहे हैं। जिस एकाकी जीवन की कहानी हम शहरियों की पढ़ते और देखते हैं उसकी चपेट में गाँव भी आ गए हैं। समय और श्रम का मूल्यांकन मुद्राओं में बदलकर देखा जाने लगा है। हंसी-मजाक अब सोच समझकर किया जाता है। किसी के बुरा मान लेने की फिक्र होने लगी है। घरों में आंगन रखने की परम्परा शहरी डिजाइन की नकल ने लील ली है। सब्जियां उगाना झंझट लगने लगा है। गायों को रखना अधिक महंगा हो गया। बैलों से खेती करना झंझट का काम है।

जो पढ़-लिख गए हैं वे अपने बच्चों को ग्रामीण परिवेश से हमेशा के लिए दूर रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि ग्रामीण परिवेश का असर उन पर पड़े। उन्हें डर है कि गांव का परिवेश उन्हें बिगाड़ देगा। गाँव के त्यौहारों में कमियां नजर आने लगी है और शहरी तरीके से त्योहारों को मनाने में एक अलग ही बड़प्पन नजर आता है। गाँव की अर्थव्यवस्था की समझ नहीं है। अब घर का समूचा बजट मुद्रा पर निर्भर है और मुद्रा के ही रूप में संचित है। 

ऐसा करने से गाँव शहर की विशेषता में तब्दील हो रहे हैं। घर में कोई चार लोग आ जाएं तो अलग से व्यवस्था करनी पड़ती है। जबकि पहले ऐसा नहीं था। इससे गाँव अपनी आत्मनिर्भरता खो रहे हैं। जब उनके पास उत्पादित चीजें होती हैं, तो वे उसे बड़े दुकानदारों को बेंच देते हैं और फिर जब उन्हें जरूरत पड़ती है तब वह शहर से खरीदते हैं। खाने की चीजें भी। कोई चिन्ता नहीं करता कि एक साल बारिश नहीं होगी तो क्या खाएंगे? शायद अब ऐसी नौबत आती भी नहीं। परन्तु यदि आ जाए तो? सब गाँव की ओर आशा भरी निगाहों से देखेंगे किन्तु गांव अपनी मौलिक विशेषता पहले से ही खो चुके हैं। किसी के घर में बारात आ जाए तो चार रिश्तेदारों के घर से अचार और सब्जियां आ जाती हैं। काम चल जाता है। यदि इसका बाजार मूल्य आंकने लगेंगे तो यह एक बड़ा बजट है। यदि गाँव अपनी इस विशेषता को खो देंगे और खो ही रहे हैं तो यह भार बाजार पर पडेगा जिससे बाजार में सब्जियों के दाम अचानक से बढेंगे, बढ़ते ही हैं।

इस संबंध में क्या किया जा सकता है? गाँव के जो लोग सक्षम हैं और शहर में रहने लगे हैं। वे अपनी पूंजी का एक अंश गाँव में निवेश करें। गाँव में घर बनाएं। इससे गाँव के लोगों को रोजगार मिलेगा। शहर से आकर गाँव की पंचायत में हिस्सेदारी करें। यदि उनकी जमीनें गाँव में हैं तो उसे सिंचाई के साधनों से परिपूर्ण कर खेतीपाती या सब्जीभाजी के लिए आवश्यकता के लोगों को दे दें। जो सक्षम लोग गाँव में निवास करते हैं वे गाँव में उत्पादित वस्तुओं का गांव से ही क्रय करें। हो सके तो उसे द्वितीयक उत्पादन में बदलें। अरहर लें और उसे दाल में बदलें। चना लें और उसे बेसन में बदलें। आम लें और उसे अचार में बदलें। जो लोग सक्षम हैं वे इस तरह थोड़ी-थोड़ी वस्तुओं का क्रय कर उनके गांव में उत्पादित वस्तुओं का बफर स्टाॅक तैयार करेंगे तो आवश्यकता पड़ने पर उन्हीं के गांव के लोगों के काम आएगा।

गाँव को उसके सहारे छोड़कर शहर चले जाएं और फिर शहर से भागकर गांव आएं तो गाँव आने का कोई फायदा नहीं है। उल्टे गाँव में पहले से ही रह रहे लोगों की समस्या को बढ़ाएंगे। गाँव में थोड़ा-सा निवेश लाखों-लाख शहरी परिवारों की न्यूनतम आवश्यकता रोटी की पूर्ति गाँव कर सकेंगे। किसी आपदा या विपत्ति की स्थिति में हर अन्य चीज के बगैर बसर हो जाएगा किन्तु भोजन की आवश्यकता के बगैर जीवन के चंद दिन भी नहीं कटेंगे। और विपत्ति के समय शहरी गाँव की तरफ इसी मूल आवश्यकता के लिए भागता है। गाँव की इस विशेषता को बनाए रखने के लिए हमें परिश्रम करना पडे़गा अन्यथा गाँव अपनी इस जीवनदायिनी विशेषता को खो देंगे।
अपनों से रूठकर मैं चला कहीं और किसी अपनों की चाह में।
न वो मिले, और न लौटकर मिले ये, रह गया मैं राह ही राह में।।
शहर में रहते जिन्दगी कब गुजर गई, न अपने याद आए।
फिर एक दिन अचानक जब लौटा गाँव तो अपने ही न पहचान पाए।।
था गलत मैं या गलती मेरे अपनों की बेरुखी की है।
पत्ते आएं भला कैसे जिनकी शाख  बहुत पहले टूट चुकी है।।
जाओ बेशक सात समन्दर पार परन्तु एक दीप यहां भी जला जाया करो।
शाख से जुड़े रहोगे तो हरे भी होंगे, अपनी जड़ों का हाल जान जाया करो।।
रचना-सुरेन्द्र कुमार पटेल,
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