मंगलवार, जनवरी 28, 2020

शिक्षा का व्यवसायीकरण नहीं,राष्ट्रीयकरण हो: सुरेश यादव

       सर्वविदित है कि  शिक्षा, स्वास्थ्य  और सुरक्षा सरकार की नैतिक  जिम्मेदारी हैं और ऐसा  अनुपार्जक कार्य  जिसमें  सरकार को तत्काल तो कोई लाभ नहीं मिलता लेकिन एक स्वस्थ , सभ्य और सुरक्षित समाज  का निर्माण होता है । प्रदेश में स्वास्थ्य विभाग , निजी हाथों में जा रहा है। अलीराजपुर जिला सौंपा जा चूका है, 27 अन्य जिले जल्द ही निजी हाथों में होंगे लेकिन  नैतिक  जिम्मेदारी होने के कारण  शासन  यह तेजी से नहीं  कर  सकता, लेकिन यह सब हुआ कैसे यह सब स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण के कारण हुआ ।
        पिछले  दिनों की  अखबारों की सुर्ख़ियों पर एक नजर डालें , "अलीराजपुर जिला अस्पताल प्रायवेट कंपनी के हवाले" दूसरी है, "60 प्रतिशत कमीशन के फेर में  राजधानी के स्कूल हर साल बदल देते हैं कोर्स की किताबें" तीसरी, " स्कूल फिर वसूलेंगे मोटी फीस, सरकार बैकफुट पर" और अंत में, "निजी स्कूलों में फीस वृद्धि के खिलाफ,अब सड़कों पर उतरेंगे पेरेंट्स" । इन समाचारों  को आपस में जोड़कर विचार अवश्य करें ।  निजी विद्यालयों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं  रह जाता  और ये  पालकों के  शोषण के  केंद्र बन जाते हैं और न ही ये सर्वसुलभ हैं ।
      एक स्वस्थ्य समाज और राष्ट्रनिर्माण के लिए गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं अनिवार्य हैं। परंतु सरकार की नीतियों और उसके नीति  निर्माताओ के निजी स्वार्थ के कारण दोनों ही क्षेत्रों का बंटाधार कर दिया गया है । आप जानते ही हैं कि  निजी विद्यालय और अस्पताल किनके हैं  ?
    इसके  विपरीत हम देखें कि  अमेरिका में 74 प्रतिशत सरकारी विद्यालय हैं और 24 प्रतिशत निजी (कैथोलिक मिशन के) विद्यालय है 2 प्रतिशत छात्र ओपन स्कूल  के माध्यम से अध्ययन करते हैं। वहीं  ब्रिटेन में 91 प्रतिशत सरकारी और 8 प्रतिशत निजी मिशन के विद्यालय हैं, 1 प्रतिशत छात्र ओपन स्कूल   में पढ़ते हैं। जापान में 99 प्रतिशत विद्यालय सरकारी हैं 1 प्रतिशत धार्मिक विद्यालय हैं । चीन एक विकासशील देश है और वहाँ  सरकारी विद्यालय ही होते हैं, और सरकार अपने वार्षिक बजट का 21 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करती है । वहीं  दक्षिणी अफ्रीका में भी विद्यालय सरकारी ही होते हैं  और शिक्षा पर वार्षिक बजट का 27 प्रतिशत खर्च होता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य पर अमेरिकी सरकार प्रति व्यक्ति साढे पाँच लाख और भारत सरकार छब्बीस सौ रूपये खर्च करती है । प्रश्न यह उठता है कि जिन देशों को देख कर हम शिक्षा और स्वास्थ्य की तुलना करते हैं तो इन आंकड़ों पर सरकारों का ध्यान क्यों नहीं जाता ?
      स्वास्थ्य के क्षेत्र में अलीराजपुर जिला निजी हाथों  में सौंप दिया गया है । कर्मचारियों  ने इसके खिलाफ तीव्र  आंदोलन किये लेकिन नतीजा   कुछ नहीं। हमारी लड़ाई समाज के लिए है तो समाज को साथ लेना भी आवश्यक है, यही बात मैंने स्वास्थ्य कर्मचारियों के एक  आंदोलन में कही-“समाज तक अपनी बात पहुँचाएं।  यह विभाग बचाने की लड़ाई है और हम समाज के लिए लड़ रहे हैं।” आखिर  हर ताले की चाबी निजीकरण और व्यवसायीकरण नहीं हो सकती ।
     जब सरकार  शिक्षा  के विषय में शपथपत्र देकर कहती  है कि  एक भी विद्यालय बंद नही करेंगे  तो हम खुश  हो जाते हैं। लेकिन हमें 1 फरवरी  2019  के केंद्रीय अनुपूरक बजट को  भी देखना होगा जिसमें  शिक्षा के बजट में  लगातार  कमी  की जा रही  है  जो 2014  की  तुलना में  4% से घट  कर  3% रह गया  है  । हम  बजट में कमी  की परिणीति  देखते हैं  तो नजर आता है  कि प्रदेश में ही  सरकार विद्यालयों को मर्ज कर रही है या युक्तियुक्तकरण कर रही है । 25 प्रतिशत छात्रों को निजी विद्यालयों  में हमारी आँखों के सामने  भेज कर कुल 4000 शासकीय विद्यालय बंद (मर्ज या युक्तियुक्तकरण ) कर दिए गए हैं और 10 हजार स्कूल  20 से कम दर्ज संख्या वाले हो गए हैं । हर वर्ष शिक्षकों  के युक्तियुक्तकरण हो रहे हैं। अब नवीन  माध्यमिक विद्यालय ही नहीं  खुल पा रहे हैं।  विगत छः  वर्षों से प्रदेश  में शिक्षकों की भर्ती नहीं हुई है और आशंका है कि  आगामी शिक्षक भर्ती प्रदेश की अंतिम  शिक्षक भर्ती होगी ।
         यही  नहीं  शासन एक विद्यालय एक परिसर के माध्यम से 26  हजार  विद्यालयों का अस्तित्व  समाप्त  कर चुकी है। आपको याद होगा 14 मार्च 2016 को शिक्षा के बजट पर चर्चा करते हुए बैतूल के विधायक हेमंत खण्डेलवाल 20-25 किलोमीटर के दायरे में सभी स्कूलों  का युक्तियुक्तकरण करके एक ही जगह करने की पुरजोर वकालत कर चुके हैं और बैतूल जिले का नाम भी प्रस्तावित कर चुके हैं।  कल्पना कीजिये सत्ताधारी कहाँ  तक का विचार कर चुके हैं । कहीं   न कहीं  यह कवायद  पुनः प्रारम्भ  हो सकती  है।   
         किस प्रकार देश की सरकारी शिक्षा को बर्बाद करने की भूमिका तैयार की गयी और शिक्षा जैसे पवित्र क्षेत्र में अमीर और गरीब के बीच  खाईं तैयार की गई और उसे लगातार बढ़ाया गया ।
        सर्वप्रथम 1984-85 में देश में शिक्षा विभाग के मंत्रालय को बंद करके उसका नाम मानव संसाधान विकास मंत्रालय किया गया ।  फिर वैश्वीकरण व नवउदारवाद का दौर आया ,जिसमे 73 वें  और 74 वें  संविधान संशोधन के माध्यम से शिक्षा को सरकार के हाथों से लेकर स्थानीय निकायों के हाथो में सौंप दिया गया। इस संविधान संशोधन ने तो जैसे सरकार को शिक्षकों  के शोषण का अधिकार दे दिया । पूरे  देश में कम वेतन और बिना किसी सुविधा के शिक्षकों की भर्ती की जाने लगी। इस प्रकार नियुक्त शिक्षकों को भविष्य के प्रति भी सुरक्षा का कोई आश्वासन नहीं दिया जाता ।
        इसी दौरान निजी विद्यालय भी बनाये जाने लगे और नियमो में शिथिलता के कारण उनकी संख्या बढ़ने लगी। अब तो व्यक्ति की आय के अनुसार विद्यालय होने लगे हैं।
      फिर आया शिक्षा का अधिकार अधिनियम। अब यह तो ऊपर वाला ही जाने यह शिक्षा का अधिकार अधिनियम था या सरकारी विद्यालयों को बंद करने का अधिनियम! इसकी एक विशेषता रही है कि  इसमें भी शिक्षको की सुविधाओं  या अधिकार का कोई उल्लेख नहीं है । इसके उलट विद्यालय से 25 प्रतिशत छात्र जरूर निजी विद्यालयों  में भेजे जाने लगे। परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक वर्ष शिक्षकों  का युक्तियुक्तकरण होने लगा । यही नहीं युक्तियुक्तकरण के नाम पर विद्यालयों  को भी बन्द किया जाने लगा । अब तक प्रदेश में ही 4000 से ज्यादा विद्यालयों  का युक्तियुक्तकरण ( बंद या मर्ज हो गए ) हो गया है और वर्तमान सत्र में 10000 विद्यालय 20 से कम दर्ज संख्या के हो गए हैं ।
         कुछ दिन पहले  नईदुनिया में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई   शीर्षक  था ,"हाजिरी नहीं बढ़ी मध्यान्ह भोजन से" कुछ अनियमित भुगतान का भी उल्लेख है । यह समाचार कैग की रिपोर्ट पर है , जिसमें बताया गया है कि  2010-11 में प्रदेश में माध्यमिक स्तर तक 1 करोड़ 11 लाख छात्र अध्ययनरत थे और 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गए  । वहीं  निजी विद्यालयों  में इसी दौरान 38 प्रतिशत नामांकन बढ़ा है  ।
         कैग (नियंत्रक महा लेखा परीक्षक) की यह रिपोर्ट है तो मध्यान्ह भोजन के संदर्भ में लेकिन एक बहुत बड़ी सच्चाई हमारे सामने लाती है । अगर हम देखें तो 2011-12 से 25 प्रतिशत छात्रों  को निजी विद्यालयों  में भर्ती करने का अभियान शुरू हुआ है । हम राज्य सरकार के 2017-18 के  बजट को  देखें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा । इस बजट तक 8 लाख छात्रों  को निजी विद्यालयों  में दर्ज करवाया गया है । साथ ही सरकार स्वयं स्वीकार कर चुकी है कि  प्रत्येक बच्चे की शाला के साथ मेपिंग में भी 12 या 13 लाख बच्चे कम हुए हैं या दोहरी मेपिंग के पाये गए हैं  । साथियों स्मरण रहे सत्र 2017-18  में राज्य सरकार ने 9 लाख 50 हजार बच्चों की फ़ीस का भुगतान करके निजी विद्यालयो में भेजने का लक्ष्य रखा  था । इसके लिए 300 करोड़ रूपये का बजट में प्रावधान किया गया था ।
        यह मेरे नहीं सरकारी आंकड़े हैं । इन्हीं आंकड़ों से सरकार विभाग को और हमें बदनाम कर रही है । किस   प्रकार पूंजीपति ताकतों  के दबाव में शिक्षा का सर्वनाश किया जा रहा है ।
        हम जानते हैं, शिक्षा का सीधा संबंध श्रम से है लेकिन नीतियों के माध्यम  से  यह रिश्ता समाप्त कर दिया गया है । आप अच्छे से जानते हैं कि आज के इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में भृत्य, सफाईकर्मी और रसोइयों  के पद पर भी प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से  नियुक्ति हो रही है। दूसरी तरफ , सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के नाम पर कक्षा 8 तक के विद्यार्थियों को कोई भी अनुत्तीर्ण नहीं कर सकता  और अब तो CBSE ने भी 10 वीं बोर्ड समाप्त  कर दी है या वैकल्पिक कर दिया है । इस प्रकार नीति-निर्माताओं ने नई  पीढ़ी को बौद्धिक जड़ता मुफ्त में प्रदान कर प्रतिस्पर्धा की भावना ही समाप्त  कर दी है। आप सभी विचार कीजिये परीक्षा से दूर हो चुका बच्चा प्रतियोगी परीक्षा का सामना किस प्रकार करेगा ?  राज्य शासन की किताबों में इस प्रकार की त्रुटियाँ आम हैं। तथ्यों से जिनका कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं हम "हार की जीत","पंचपरमेश्वर","ईदगाह "या "सतपुड़ा के घने जंगल" ,"पुष्प की अभिलाषा","आ रही रवि की सवारी "जैसा कुछ अपनी आने वाली नस्लो को नहीं दे पा रहे हैं ।
         असलियत यह है कि  पूरे  देश में कई प्रकार के पाठ्यक्रम चल रहे हैं । सीबीएसई के अलग हैं , तो पब्लिक स्कूल  के अलग। इसमें  भी हिंदी माध्यम और अंग्रेजी माध्यम में अलग-अलग पाठ्यक्रम। इसी प्रकार हर राज्य का अलग पाठ्यक्रम है । देश में सबसे प्रामाणिक किताबें और पाठ्यक्रम NCERT  का माना जाता है  जो राज्य के विद्यालयों में नहीं चलता  है । इस प्रकार पाठ्यक्रम में भी भेदभाव किया जा रहा है ।
           इस प्रकार प्रथम दृष्टया यह नजर आ रहा है कि शिक्षा के व्यवसायीकरण के कारण शिक्षा चंद लोगों  के नियंत्रण में जा रही है । देश भर में  असमान शिक्षा व्यवस्था है । नेतृत्व के गुण को समाप्त  कर दिया गया है। व्यवसायिक शिक्षा बहुत महंगी  हो गयी है । असलियत में शिक्षा  के क्षेत्र मे आई इस  खाईं को समाप्त करना  है  कि  "राष्ट्रपति हो या मजदूर  की सन्तान- सबको शिक्षा एक समान "  के नारे के साथ काम करके  पूरे  देश में समान, स्तरीय  व  गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम लागू किया जाना चाहिए। साथ ही परीक्षा प्रणाली की बहाली  की जानी  चाहिए । पूर्णतः निःशुल्क, गुणवत्तापूर्ण और समान शिक्षा हर भारतीय का अधिकार है । शिक्षा का व्यवसायीकरण न होकर  राष्ट्रीयकरण होना चाहिए ।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के स्वयम के हैं)

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