सोमवार, नवंबर 11, 2019

रौनक बगिया का:सुरेन्द्र कुमार पटेल की कविता


●रौनक बगिया का

घर से होकर गुस्सा वह,
मुँह फुलाये बाहर आया।
नीले आसमान के नीचे
एक बगीचे में जा सोया।

तभी चमेली ने देखा उसको
चिढ़कर, कुछ तुनक कर बोली।
और तभी चम्पा उसकी बांहों
में लगी खेलने हमजोली।

देख पथिक तू देख हमें,
एक बाग में हम रहते ऐसे।
अनेक रंगों के फूल हैं खिलते
स्नेहभाव से रहें सब हँस-हँसके।

लेकिन हो तुम पढ़े-लिखे,
भूत-भविष्य का है भान तुम्हें।
हम बेजुबान विटपजन,
लेकिन कहते हैं इंसान तुम्हें।

एक आसमान है, सूरज एक
जड़ एक धरा में लिपटे हैं सबके।
एक धरा से पोषित होते
जीते नहीं पृथक भाव रखके।

हममें भी है विविधता,
कुछ झाड़ी हैं, कुछ बेले हैं।
हम भूलते नहीं कि हम सब,
एक बाग में ही खेले हैं।

नहीं सुगंध एक-सा है,
नहीं हमारी एक-सी आकृति है।
कोई मँहकता रातों को,
दिन में भी जिसकी स्वीकृति है।

हमने रखे नहीं कोई रिश्ते,
रिश्तों का कोई नाम नहीं।
सदय-हृदय है सबके प्रति
यहां रिश्ते हैं बदनाम नहीं।

रख भाईचारा का भाव,
चारा भाई का खा जाते।
कपटभाव का कर व्यापार,
कुटिल भाव से मुस्काते।

बंटे-बंटे से रहते हो
जीते हो बंट-बंटकर।
खुश्बू भी आती है तो
जंग अनेकों लड़कर।

काश! हवाएं आती सुगन्ध घोल,
जहां मानव जन समूह होता।
सब खुले-खुले से होते,
चक्रव्यूह न कोई होता।

देख भाव गर्वीला फूलों का,
फूला मुंह उसका पिचक गया।
उस बगिया की स्मृति में,
मन बगिया-सा मँहक गया।

फिर लौटा अपने आंगन में,
बन फूल एक अपनी बगिया का।
एक सूर्य, एक आसमान तले,
फिर लौटा रौनक उसकी बगिया का।
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