शनिवार, अगस्त 31, 2019

बघेली प्रहसन - बुधिया मान गई



बघेली प्रहसन - बुधिया मान गई
(इस प्रहसन में प्रयुक्त घटना एवं नाम पूरी तरह काल्पनिक हैं) 
पात्र-परिचय
1. मटकू -परिवार का मुखिया उम्र-40 वर्ष
2. बुधिया-मटकू की पत्नी उम्र- 35 वर्ष
3. आश्रित-5 बच्चे क्रमशः 12, 10, 8, 6,एवं 4 वर्ष
4. बैजू- परिवार कल्याण कार्यक्रम का प्रचारक उम्र- 40 वर्ष
5. मैकू- परिवार नियोजन करा चुका परिवार का मुखिया
(संध्या का समय. मटकू अपने घर में रस्सी कांत रहा है. बुधिया रसोई की तैयारी कर रही है तभी बैजू का प्रवेश)

बैजूः सुना थ हो मटकू भाई..., 
मटकूः हाॅं बैजू भाई...राम-राम, राम-राम।
बैजूः त जना तोहांर परिवार बहुत बड़ा है, इ घरे मं बहुत लरिका बच्चा भरे हैं
मटकूःहाॅं बैजू भाई, भगवान द्यात है त का करी। इ भगवान केर खेती आय।जे आय गे त आय गे।
एक बच्चाः (अर्धनग्न) दादा रे, भूख लगी है।
दूसरा बच्चाः(अर्धनग्न) दादा काल्ह पाॅंच रुपिया चाही। पेन खरीदैं का है।
तीसरा बच्चाः दादा रे हमहीं सल्ट बनवा दे। ह-ह, ह-ह,
चैथा बच्चाः ये दादा, ये दादा ह-ह, ह-ह,
मटकूः चुप्प रहा रे। दुआरे मं जो कोऊ बड़ा मनई आ जाय त इनके मारे कुछ सुनैं का नहीं मिलै। बताई बैजू भाई अपना आपन हाल चाल बताई....
बैजूः मटकू भाई पहिले अपने लरिकन केर सुन ले फेर त हम बताउबै करब।
पाॅंचवां बच्चाः दादा-दादा, हमका मेला से फीता लेत अइहा, हाॅं!
सभी बच्चे एक साथः भूख लगी है दादा, भूख लगी है।
मटकूः देख रे कुछ होय त खबा-पिया दे इनहीं। ईं त परानन का खाये लेत हैं।
बुधियाः यहंकै आवा रे, (सब बच्चा दाई के पास चले जा थे)
   (मटकू की पत्नी सब लडकों को दरिया बांटती है)
सभी बच्चे एक साथः ह-ह, ह-ह, हमहीं थोर क मिला है, ह-ह थोड़ी अउर, ह-ह थोड़ी अउर।मटकू (गुस्से से बच्चों को घूॅंसा लगाता है)ः  चला ससुरौ, यतना खा लिहा तउऔ तोहार पेट नहीं भरै। लई जा रे इनहीं, सोबाव।
         (मटकू की पत्नी बुधिया बच्चों का सुला देती है) 
मटकूः (बैजू से) अब कह सुनाबा बैजू भाई। ईं लरिका त कोहू से बातौं तक नहीं करैं द्यात आंय।
बैजूः न मटकू भाई, एक बात कही, नागा त न मनिहा
मटकूः कही बैजू भाई, अपना कोऊ दूसर कोऊ थोड़े आहेन कि हम नागा मानब।
बैजूः मटकू भाई अब त खूब एक क लरिका बच्चा होईगे। अब परिवार नियोजन काहे नहीं करा लेते आहा। बहुतै लरिका बच्चा पइदा करबौ ठीक नहीं होय....
मटकूः बैजू भाई, अपनैं का ईं अधिक लागाथोइहैं, हमहीं त अबहूं कमैं लागाथैं।
बैजूः काहे, कम लागाथै भाई...
मटकूः देखी, एकठे तेल के लाइन मं, एकठे पानी के लाइन मं, एकठे बकरी चराई। एकठे पड़वा चराई।एकठे नागर फांदी। अब अपनै बताई बैजू भाई कि य राशन के दुकान मं कोऊ लाइन लागी? ंअउर, फेर जब भगवान देतै हय त हम काहे ओहमां ब्रेक लगाई। कल के कुछ ऊंच-नींच होइगा त को देखी?

बैजूः देखा, मटकू भाई। य जउन कहत्या ह कि भगवान देत है। त सुना जिनका भगवान नहीं देय उनका डाक्टर दवाई दई के लरिका पइदा करा देथैं। त का डाॅक्टर लरिका देत है? लरिका त तोहरे इच्छै से पइदा होईहैं न?
     (तभी मैकू का प्रवेश, बीच में मैकू हस्तक्षेप करता है)
बैजूः आबा-आबा, मैकू भाई। बहुत सही समय मं आया ह।
मैकूः बहुत लम्बी बहस चलाथी।
बैजू: इनहीं बतावा मैकू भाई। तोहरे मेहरारू के लरिका-बच्चा नहीं होत रहा त का कर्या।
मैकूः कुछ न पूछी बैजू भाई। अपना केर व सलाह न होत त हम त आज हम बिन बच्चा के रहित।
मटकूः कइसन......
मैकूः मटकू भाई, हमरे मेहरारू का लरिका न होय, त हम सोचेन कि हम दूसर बियाह कर लेई। त एक दिन य बात हम बैजू भाई का बतायन। त बैजू भाई कहिन कि तु एक बेर डाॅक्टर का देखा ल्या। हमहीं नाम,पता दिहिन। हम डाॅक्टर से मिलेन। डाॅक्टर हमार दोनौं क्या खून जाॅंच करिन। फेर कुछ दिना केर दवाई चला। दवाई के कुछै महिना मं हमहीं हमरे मेहरारू से खुशखबरी मिल गा। हम आज दुई लरिकन क्या बाप हन।
मटकूः मात्र दुई?(आश्चर्य से पूछा)
मैकूः जब दुई लरिकन केर बाप बन गयन त ईं बैजू भाई फेर हमहीं डाॅक्टर के भेजिन। कहिन डाॅक्टर से कहा- अब अइसन उपाय कर द्या कि दुई से ज्यादा न होंय...
मटकूः फेर.....
मैकू- फेर का? डाॅक्टर, हमार नशबन्दी करैं का सलाह दिहिन। पहिले त डर लागै। पर जब उ समझाइन त हम मान गयन अउर आपन नसबन्दी करा लिहिन।
मटकूः पै हम त मेहरारुन केर सुने रहयन।
मैकूः अब दुनहुन केर होत है...हम अपनै करा लिहेन?
बैजूः त समझ माहीं बात आई मटकू भाई कि लरिका तोंहरे इच्छा से होथैं।भगवान केर इच्छा से नाहीं। अब कऊनौ दिन आपन नशबन्दी करा ल्या।
मटकूः देखा, हम अपने मेहरारू से समझे बगैर त कुछू न कराउब।
बैजूः त अपने मेहरारू से पूछ ल्या। काहे मैकू भाई...
मैकूः हां, हां बैजू भाई।
मटकू (अपनी पत्नी बुधिया से)ः अरे सुनते हये। बैजू भाई अउर मैकू भाई नशबन्दी का कहि रहे हैं।
बुधियाः त तुम करा ल्या। हम त न कराउब। हमहीं जिन्दगी भर का कमजोर नहीं होंय काय। नहीं त हमहीं कोऊ एक लोटिया पानी न देई।
बैजूः सुना हो मटकू भइया औ बुधिया बाई। झगड़ा झै करा। मटकू आपन नशबन्दी करा लें वहै सबसे नीक है।
बुधियाः काहे, उईंन कमजोर होइ जइहैं त खेती-पाती को करी। नहीं दादा, उईं न कराइइैं। हम मर जाॅब भ्ूाखे-पियासे।
मैकूः अरे भाई अइसन नहीं आय।सब काम-काज होत रहत है। न जिव कमजोर होई, न कउनौ काम हरजा होई।तोंहरे गाॅमैं मांही अउर लोग य नशबन्दी करा चुकिन्हीं। उनहीं कउनौ परेशानी नहीं भा। आगे ध्यान रख्या अउर ज्यातना जल्दी होय डाॅक्टर से सलाह लइके नशबन्दी करा ल्या। (मैकू आसमान की तरफ देखता है) बहुत दरबार होइगा, अब चलैंका चाही। काहे बैजू भाई।
बैजूः हाॅं, मैकू भाई। हमहूं चलब अब।
(दोनों उठ खडे होते हैं। मटकू दरवाजे के बाहर तक छोड़कर लौटकर आते ही बुधिया से...)
मटकूः बैजू अउर मैकू भाई ठीक कहत हैं बुधिया। हमरौ जिऊ कबहूं-कबहूं उबिया जाथै। बिचारे हरेन का न प्याट भर खांय का मिलै न पहिनैं का। लागा थै नशबन्दी कराइन लेई।
बुधियाः ठीक है। पै डाॅक्टर से जब मिलैं जइहा त हमहूॅं चलब। हम पूछब कि तोहरे नशबन्दी से कउनौ नुकसान त न होई। 
मटकूः ठीक है त दिन बेरा बद लेई।
बुधियाः हां त दिन बेरा त बदइन का परी। घर केर व्यवथ्था बनइन के न जइहा
मटकूः हौ।


(परदा गिरता है)


(इस रचना के बारे में- यह रचना लेखक की बाल्यकाल की रचना है. किसी स्कूली कार्यक्रम के लिए उन्होने इसे तैयार किया था. आपने इस रचना के लिए अपना बहुमूल्य समय दिया, इसके लिए "आपस की बात सुनें" टीम की और से आपका बहुत-बहुत साधुवाद)


प्रस्तुति एवं रचना: प्रमोद कुमार पटेल, वार्ड क्रमांक 4, भोगिया टोला ब्योहारी जिला शहडोल मध्यप्रदेश
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शुक्रवार, अगस्त 30, 2019

सफलता का सूत्र:सतत अध्ययन

सफलता का सूत्र:सतत अध्ययन

    किसी प्रेरक कार्यक्रम में चेतन भगत को सुना था. उनके ही कथन से बात को आगे बढाता हूँ. उनका कहना था कि बड़ी सफलता के लिए व्यक्ति को हमेशा प्रेरित रहने की आवश्यकता होती है. उनका कहना था कि आपको किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करना है, आप उसके प्रति आज उत्साहित हैं परन्तु क्या आज का उत्साह पूरे दो सालों तक बना रह सकता है? इस पर वह कहते हैं कि वह धक्का मार प्रेरणा पर ज्यादा भरोसा करते हैं. वह कहते हैं कि पूरे दो सालों के बारे में सोचने से पहले हम यह सोचें कि जो काम आज का है उसे कर लेते हैं. कल का कल देखा जायेगा. वह इसे और छोटे टुकड़ों में तोड़ते हैं. वह कहते हैं यह धक्का मार मोटिवेशन हमसे तब भी काम करा लेता है जब हम डिमोटीवेटड होते हैं. उनका कहना है कि जब आपका मूड ऑफ हो और पढाई का मन न कर रहा हो तब आप बस तुरंत पर फोकस करें. खुद को यह कहकर पढ़ें कि चलो अभी पढ़ लेते हैं या चलो अभी दो घंटे पढ़ लेते हैं फिर आगे देखा जायेगा. उनका कहना है कि ऐसा करके हम खुद से अधिक काम ले सकते हैं. इस प्रकार दो-दो घंटे बढाकर हम खुद को धक्का दे-देकर पूरा एक दिन खपा सकते हैं और ऐसे ही एक-एक दिन करके महीना और महीने-दर-महीने साल भर पढ़ सकते हैं. यह तकनीक उन्होंने  अपने आई.आई.टी. की प्रतियोगी परीक्षा में सफल होने के बतौर बताया था.
     उनकी यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जितनी बड़ी प्रतियोगी परीक्षा होती है, उसकी तैयारी करने का व्यक्ति उतना ही अधिक उत्साह के साथ निर्णय लेता है. लेकिन दिन-प्रतिदिन की घटनाओं और अन्यों के द्वारा बांटे गये अनुभव के कारण हमारा उत्साह स्थिर नहीं रह पाता. यह पूर्णतः सत्य है कि जो कुछ भी व्यक्ति अपना अनुभव बताता है वह केवल उसका होता है, हो सकता है वह अनुभव आपके बारे में बिलकुल लागू न हो, पर आप प्रभावित तो होते ही हैं. जैसे ही आपका यह उत्साह ख़त्म होता है आपकी तैयारी पर पूर्ण विराम लग जाता है. इन सारी घटनाओं के कारण ख़त्म हुए उत्साह की स्थिति में चेतन भगत का धक्का मार मोटिवेशन वाकई जादू कर सकता है.
      ऊपर कही बात सिर्फ एक तकनीक है कि हर रोज कैसे पढ़ा जाए. परन्तु सफलता का मुख्य सूत्र तो यही है कि हर रोज पढ़ा जाए. हो सकता है कि आपकी तकनीक दूसरी हो. परन्तु यदि आपको सफल होना है तो आपको आपके अध्ययन में निरंतरता रखनी होगी. आज हर कोई दशरथ मांझी को जानता है. दशरथ मांझी ने यह नहीं सोचा कि इस पहाड़ काटने में कितना वक़्त लगेगा. दशरथ मांझी ने सिर्फ यह सोचा कि पहाड़ काटना है और वह लग गये पहाड़ काटने में. न जाने कितने लोगों ने उनके काम को पागलपन या सनक कहा होगा परन्तु वह लगे रहे. यह भी सत्य है कि बिना किसी आधुनिक औजार के वे हर रोज बहुत अधिक पहाड़ नहीं काट पाते रहे होंगे. परन्तु वह लगे रहे. निरन्तरता से मिली सफलता का उदाहरण इससे बढ़िया और कुछ नहीं हो सकता.
      आपको आपकी आयु तो पता होगी ही. उसे आप वर्षों में जानते होंगे. उसे आप महीनों में तोड़ डालिए. फिर आप उसे दिन में तोड़ डालिए. एक दिन में भी चौबीस घंटे होते हैं. इन चौबीस घंटों में यदि आप हर रोज पांच छोटे-छोटे कंकड़ जमा कर रहे होते तो शायद  आज  आप उन  कंकडों  को अपने सिर पर उठा नहीं पाते. छोटी-छोटी चींटियाँ मिट्टी का बड़ा ढेर तैयार कर देती हैं तो उसके पीछे का कारण है कि वह निरंतर लगी रहती हैं. ज्यादतर हमारी योजना दीर्घकालिक होती है. हम यह तय कर लेते हैं कि आगे के दो वर्षों में हमें पीएससी की परीक्षा निकालनी हैं. लेकिन हम रोज-रोज पढ़ सकें इसकी योजना नहीं बना पाते. हम बाजार से मोटी-मोटी पुस्तकें खरीदने की योजना तो बना लेते हैं, परन्तु कई बार हम बिना उसे पढ़े ही किसी और को दान कर देते हैं या यूं ही रखी रह जाती है. यही हाल उधार मांगकर पुस्तक पढने वालों का होता है, हम किसी से यह कहकर पुस्तक मांगकर ले आते हैं कि अगले सप्ताह लौटा देंगे. परन्तु जब अगला सप्ताह आ जाता है, हम बिना पढ़े ही उसे रखे रहते हैं. यदि हमें उससे अधिक शर्मिंदगी झेलने का डर नहीं है तो वह अगला सप्ताह अगले वर्ष तक पहुच जाता है.
       विद्यार्थी अक्सर दबाव में ज्यादा समय तक पढ़ते हैं. ध्यान दीजिये कि जब आप दबाव में पढ़ रहे होंगे आपका मस्तिष्क एक अलग अस्थिरता का अनुभव कर रहा होगा. ऐसे में पढी गयी सामग्री पर एकाग्रचित्त हो पाना कम संभव हो पाता है. फिर हम चयनात्मक अध्ययन शुरू कर देते हैं. चयनात्मक अध्ययन हमें परीक्षोपयोगी अध्ययन की तरफ धकेलता है जिसके कारण हम केवल मुख्य बिन्दुओं पर ही फोकस कर पाते हैं. जिससे हमारा अध्ययन समग्र नहीं हो पाता. जबकि यदि हम तब भी उसी सतता से पढ़ रहे होते जिस सतता से हम परीक्षा के निकट के दिनों में पढ़ते हैं तो हमारा अध्ययन समग्र होता और हम अधिक बारीक चीजों की जानकारी रख पाने में समर्थ होते. ध्यान देना चाहिए कि सफल न होने वालों और सफल होने वालों में यही बारीक अंतर होता है.
      आप हर रोज अध्ययन करने के बजाय सोचते हैं कि कुछ चयनित दिनों में अधिक घंटों तक पढ़ लिया जायेगा. यदि आपने इसे अपनी योजना का हिस्सा बना रखा है, तब आपको अपनी योजना में बदलाव करना चाहिए. यदि आप चाहते तो ऐसा ही हैं किन्तु ऐसा हो नहीं पाता तब आपको कुछ ऐसा करना होगा जिससे आपके अध्ययन की निरन्तरता बनी रहे. उनमें से एक उपाय तो यह है कि जिस विषय क्षेत्र का आप अध्ययन कर रहे हैं आप उसमें खुद को सिर्फ सफल होता देखें. हमारा मस्तिष्क जिन चीजों पर विश्वास करता है उस पर वह अचेतन अवस्था में भी काम कर रहा होता है. जबकि जिसमें उसका विश्वास नहीं हो उसे करने से वह बार-बार परहेज करता है. किसी काम के प्रति अरुचि का एक कारण यह भी होता है कि आप जिस कार्य को कर रहे हैं उसकी सफलता में आपको संदेह है. यदि ऐसा है तो आपका मस्तिष्क बार-बार रुकावट पैदा करेगा. आप रेलवे स्टेशन के काफी नजदीक पहुँचने पर जब यह जान लेते हैं कि आपकी ट्रेन चुकी है तब आप न जाने किस असीम थकान से गुजरते हैं कि आपके पाँव एकदम भारी हो जाते हैं और कई बार तो आप चक्कर खाते-खाते बचते हैं जबकि अभी जब तक आपको विश्वास था कि ट्रेन मिल जाएगी, आप बहुत स्फूर्ति के साथ चले जा रहे थे. जब आपके मष्तिष्क को विश्वास हो गया कि आपको ट्रेन नहीं मिलनी है तो आपका मस्तिष्क अपने आप रक्त संचार बाधित कर देता है क्योंकि अब आप ट्रेन नहीं पा सकते. अतः जिस कार्य को हाथ में लें, आप उसे सफल होता हुआ ही देखें. हमें भी पता है और आपको भी पता है कि लाखों विद्यार्थियों के मध्य प्रतियोगिता है और सब एक से बढकर एक हैं, किन्तु आपको यह भी पता होना चाहिए के उनमें से कुछ सफल होंगे ही, और उस सूची में आपका भी नाम होगा. जितने भी बड़े काम हुए हैं इस संसार में वह सतत प्रयास के कारण ही संभव हो पाए हैं और सतत प्रयास हो सका क्योंकि लोगों को उनके प्रयास पर अटूट भरोसा था.
    आपको सतत अध्ययन के लिए अपनी दिनचर्या का कुछ हिस्सा बिलकुल फिक्स करना होगा. यही वह फिक्स समय होगा जिसे आप अपने नियमित अध्ययन को देंगे. अक्सर हम अपने समय को ढुलमूल तरीके से व्यतीत करते हैं. तात्पर्य यह कि जब जैसी जरूरत हुई उस हिसाब से समय का उपयोग कर लेते हैं. ऐसा करके हम स्वयं ही अपने समय का मूल्य खो देते हैं. जब हम ऐसा करते हैं तब हम अपने नियमित अध्ययन को आगे के लिए टाल देते हैं. और अगला समय फिर किसी दूसरे कार्य में उपयोग में आ जाता है. जब एक बार हमें इसकी लत लग जाती है तब हमारा समय इसी प्रकार आगे खिसकता जाता है. हम अपने चौबीस घंटों का कुछ समय ऐसा आरक्षित करें जिसमें हम केवल अध्ययन में ही उपयोग करें, ऐसा फिक्स किया गया समय हमारे किसी-किसी रोज आठ घंटों से पढने से भी ज्यादा बेहतर है कि हर दिन दो घंटे ही पढ़ा जाए.
     अध्ययन में निरन्तरता हमारे मस्तिष्क को अतिरिक्त सोचने का अवसर प्रदान नहीं करता. कल जो लाइन खिची थी वही लाइन और बड़ी हो  जाती है बस. सतत अध्ययन से विषय का ज्ञान हमेशा ताजा बना रहता है. हम निरंतर अध्ययन करके अपने उद्देश्य को भी पकडे रख सकते हैं. जब आप सतत अध्ययन करते हैं, आपका मस्तिष्क उसके साथ-साथ उस अध्ययन का उद्देश्य भी याद रखता है. जबकि यदि हम अध्ययन करना छोड़ दें, हमारा मस्तिष्क हमारे उस उद्देश्य को भी भुला देता है, जिसके लिए हम अध्ययन कर रहे थे. इसके अलावा सतत अध्ययन से अध्ययन करने की हमारे मस्तिष्क की आदत बनती है जो हमे बिना थकाए अध्ययन करने देता है. यदि आप कभी-कभी अध्ययन करें, आप उबाऊ पन महसूस करेंगे जबकि सतत अध्ययन करने वाले व्यक्ति को समय का पता नहीं लगता. सतत अध्ययन करने से अध्ययन की गई सामग्री आपस में एक दूसरे  से बेहतर ढंग से आबद्ध होती है जो जरूरत पड़ने पर अधिक स्पष्टता के साथ मस्तिष्क में उभरता है.
     खरगोश और कछुए की कहानी की याद दिलाते हुए इस आलेख को समाप्त करना प्रासंगिक होगा. खरगोश स्फूर्तवान प्राणी है. जबकि कछुआ अपनी धीमी चाल के लिए जाना जाता है. जब दोनों में प्रतियोगिता होती है तक खरगोश कुछ दूर तक जाकर पेड़ की छांव में सुस्ताने लगता है. उसे लगता है कछुए को आने में तो अभी बहुत अधिक समय लगेगा. कछुआ अपनी  चाल जानता है. वह हार नहीं मानता. उसकी प्रकृति प्रदत्त जो गति है, उसके साथ वह निरंतर चलता रहता है और गंतव्य पर खरगोश से पहले पंहुचता है. बचपन का आपका कोई साथी पढाई में मध्यम दर्जे का होते हुए भी किसी अच्छे पद पर पंहुच जाए और आप ब्रिलियंट होते हुए भी न पहुँच पायें तो आपको इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए तब आप इस कहानी को अवश्य याद कीजियेगा.
प्रस्तुति एवं रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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गुरुवार, अगस्त 29, 2019

मैं सडक हूँ:मैं खराब सडक हूँ (व्यंग्य)







मैं सड़क हूँ. मैं खराब सड़क हूँ. मेरी महानता मानिए कि लोगों को उनके घरों तक पहुँचाती हूँ. जरा सोचिए, अगर मैं चलती होती तो क्या होता? आप किसी रोज अपने घर नहीं पहुँचते. मैं उस ओर चली जाती जिधर आपका मकान है ही नहीं. अच्छा यदि मैं चलती होती तो आपको ढूंढना भी मुश्किल हो जाता. आप जब तक सही सड़क पर आते, लोग ढूढने किन्हीं और सड़कों पर पहुँच जाते. 

यदि मेरा स्वास्थ्य अच्छा होता तो मैं कम काम की होती. अगर मैं अच्छी होती, एक अदना-सा कर्मचारी जब विलम्ब से कार्यालय आता तो वह क्या बहाना बनाता? मैं आलसी अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए जन स्वास्थ्य रक्षक दवाओं की तरह उनका बचाव करती हूँ मतलब असर न करे तो न करे मगर बहानों को पूरी तरह बेअसर भी नहीं होने देती. मेरी खराबी से व्यापार भी खूब फलता-फूलता है. यदि मैं चुनाव के पूर्व खराब हो जाऊं तो इसका लाभ विपक्षी पार्टी उठाती है और यदि मैं चुनाव के बाद खराब हो जाऊं तो सत्ताधारी दल को फायदा पहुंचाती हूँ. मेरी खराबी को विपक्ष गला फाड़-फाड़कर बताता है और वोट बटोरता है और यदि मैं चुनाव के बाद ख़राब दिखूं तो सत्ताधारी दल मेरी खराबी दूर कराने के बहाने जनता से वायदा निभा पाता है. अच्छा, आप मुझे अच्छा कर भी दो तो मैं सगी किसी की नहीं होती हूँ, जो सत्ताधारी दल मुझे अच्छा बनाता है उसके चुनाव आने का भी मैं इन्तजार नहीं करती. मैं टूट जाती हूँ. चुनाव विश्लेषक मेरी बात मानें तो किसी चुनाव में हार -जीत का सर्वे कराने से पहले मेरा सर्वे करा लें तो उन्हें पक्का मालूम पड जायेगा कि कौनसी पार्टी हारने वाली हैं. मैं सिर्फ अपने ठेकेदार की वफादार होती हूँ, वह जब एक बार मुझे बनाना प्रारंभ करता है मैं तब तक बनती रहती हूँ जब तक कि मेरे ठेकेदार का मेंटिनेंस पीरियड समाप्त नहीं हो जाता. जैसे ही उसका मेंटिनेंस पीरियड समाप्त होता है मैं खुद ब खुद दूसरे ही दिन ख़तम हो जाती हूँ और ठेकेदार को मेरा पुनर्जन्म कराने का अगला ठेका मिल जाता है. 

मेरा मन करता है कि मैं दौडूँ पर मैं दौड़ नहीं सकती. हाँ, रेल की पटरियों को देखकर जरूर मुझे चिढ होती है. वह दौड़ सकती हैं. जरूरी नहीं है कि रेल की पटरियों पर गाड़ियाँ ही दौड़ें. गाड़ियों को खुद पर सवार कर पटरियां भी दौड़ सकती हैं. यदि मैं जमीन से बिलकुल चिपकी न होती तो मैं खुद ही दौड़ती और लोगों के इस कहावत को सही सिद्ध करती जो लोग यह पूछते हैं कि यह सडक कहाँ तक जायेगी? अब जब मैं जाती ही नहीं तो लोग क्या बताएं कि मैं कहाँ तक जाती हूँ. पर रेल की पटरियां जा सकती हैं. वह मेरी तरह जमीन से लिपटी नहीं हैं. और यदि रेल की पटरियों को भरोसा नहीं होता कि पटरियां दौड़ सकती हैं तो उन्हें किसी पुराने राजनीतिज्ञ से मिलना चाहिए. उन्होंने या तो पटरियां दौडाई हैं या दौडाते हुए देखा है. नेता लोग खर्चे की पटरी पर विकास के डिब्बों को दौडाने की बात कहते हैं पर अक्सर होता उल्टा है विकास प्लेटफॉर्म छोड़ता ही नहीं बस खर्चे की पटरियां दौड़ती रहती हैं. 

मैं सड़क हूँ. मेरे खराब होने के और भी फायदे हैं. लोग वैसे तो यातायात के नियमों का पालन नहीं करते परन्तु मेरी खराब स्थिति उन्हें यातायात का पालन करवाने के लिए मजबूर कर देती है. ऐसा करके मैं फिर एक बार सरकार का सहयोग करती हूँ. यदि मैं अच्छी होती हूँ तो ऐसा लगता है लोगों को सिर्फ एक दिन की ही जिन्दगी मिली है सब सरपट दौड़ें जाते हैं लेकिन जब मैं खराब होती हूँ लोग आराम से जाते-आते हैं जैसे उन्हें दो जिंदगियां मिल गई हैं. 

आजकल लोग तालाब भी तो नहीं बनवा रहे हैं. माता-पिता मुझमें बने गड्ढों को दिखाकर अपने बच्चों को तालाब की शक्ल तो बता ही सकते हैं. आजकल लोग एक-दूसरे से मिलना तो क्या निहारना भी पसंद नहीं करते परन्तु मेरी ख़राब स्थिति दुश्मनों को भी मिलवा देती है. आप कल्पना कीजिए आपके किसी दुश्मन की गाड़ी गड्ढे में फँस जाए और आप सामने खड़े हों आप उन्हें मदद करेंगे या नहीं? हमारी संस्कृति दुश्मनों की भी मदद करना सिखाती है. आप चाइना को ही देख लीजिए, भारत-चाइना युद्ध के बाद और जब-तब आँखें तरेरने के बावजूद भारत चाइना के व्यापार को बढाने में मदद कर ही रहा है न! मैं सडक हूँ मेरा गड्ढा तो जब तब भर भी जायेगा लेकिन राजनीति के सडक में जो गड्ढे हैं वो कब भरेंगे, इसकी मुझे चिंता है. 

मेरा खराब रहना सभी की सेहत के लिए अच्छा है. कितने ही पतियों के ऑफिस से देर से लौटने का कारण मैं बन जाती हूँ. टैक्सीवालों के मनमौजी टैक्सी चलाने और ऊपर से मनमाना किराया वसूलने का भी बहाना बनती हूँ. वह कहता है-देखते नहीं, भाई साहब सडक कितनी खराब है. इस पर टैक्सी कैसे दौड़ाऊँ? और जब पैसे वसूलने होते हैं तब- देखते नहीं भाईसाहब! सडक कितनी खराब है. इस सड़क में इतना डीजल बरता है कि पूछो मत. मेरे खराब होने से ही फूटपाथ में सोने वालों की जान बची हुयी है नहीं तो न जाने कितनों के ऊपर रोज गाड़ियाँ चढ़ती रहतीं! फिर सब लोग हिरन की तरह किस्मत वाले थोड़े हैं कि गाड़ी ऊपर चढ़ जाने का न्याय कराते फिरते! 

मैंने खूब देखा और पाया कि मैं जितना अच्छा रहकर लोगों की मदद कर सकती हूँ उससे कहीं अधिक खराब रहकर मदद कर सकती हूँ. और इसीलिये मेरी कोशिश होती है कि मैं ज्यादातर खराब ही रहूँ. अब जब कहीं मैं आपको खराब स्थिति में दिख जाऊं तो प्लीज आप मेरी सरकार को दोष मत दीजिएगा मैं लोक कल्याण के लिए ही खराब बनी पडी हूँ. अधिकाँश जगह मैं इसी स्थिति में आपको दिखूंगी. मैं सडक हूँ. मैं खराब सड़क हूँ. 
प्रस्तुति एवं रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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बुधवार, अगस्त 28, 2019

नेतृत्व क्षमता के उपयोग से सामुदायिक समस्याओं के उन्मूलन की संभावना





यह  आलेख  नहीं लिख रहा होता यदि कक्षा 9 वीं की कुछ छात्राएं कल मुझसे झगड़ नहीं रही होतीं। उसके बाद मेरे जहन में  विद्यालय के कई छात्र-छात्राओं का चेहरा आया। पहले कक्षा 9वीं की  इन छात्राओं की कहानी आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ । हुआ यह था कि हाॅफ के बाद यह बच्चियाॅं काँधे  पर बस्ता टांगे हुए बरामदें में मुझे मिलीं। मैंने पूछा-यह क्या है? आप लोग बस्ता टांगकर जा कहाॅं रहे हैं? उनमें से एक ने बिना झिझके हुए कहा- घर सर, और कहाॅं? मैंने पूछा- लेकिन अभी तो आगे के दो पीरियड शेष हैं। हम नहीं पढेंगे सर-उन्होंने अपना विरोध प्रकट किया। मैंने जब ज्यादा जोर देकर उन्हें बैठाने के लिए कहा कि ऐसे कैसे चलेगा? हमें तुम्हारे खिलाफ नोटिस काटना पड़ेगा तो वह कंधे से बस्ता उतारते हुए कुछ ज्यादा ही गुस्सा दिखाने लगीं और कहने लगीं- सर हम बैंठेगे। पूरा पीरियड बैंठेंगे। लेकिन जब सभी पीरियड लगेंगे.... और वह बैठ गई। हमने जो देखा वह यह कि पूरी कक्षा से इन दो-तीन छा़त्राओं ने ही आवाज उठाया शेष ने नहीं  

वहीं छठवीं कक्षा के एक छात्र का चेहरा जहन में आता है। जब भी उसकी कक्षा के आसपास मैं टहलते हुए मिल जाता हूँ, वह देखते ही मुझे धर लेता है। सर चलिए हमारी कक्षा में, चलिए न। "लेकिन अभी तो किसी और शिक्षक का पीरियड होगा न?" मैं कहता हूँ "जब तक वह नहीं आते तभी तक चलिए न।" उसके आग्रह में इतनी मिठास और जिद होती है कि वह न चाहते हुए भी अपनी कक्षा तक खींच ले जाता है। एक दिन ऐसा हुआ था कि कक्षा-10  में पढ़ाने के बाद जब दूसरी  कक्षा में जाने के लिए निकला तो बाहर तेज बारिश हो रही थी। मैं कक्षा के दरवाजे पर खड़ा होकर यह देख रहा था कि कोई छात्र छतरी लेकर बाहर निकला हो तो उसे पुकारूं। तभी  कक्षा 8 का एक छात्र मेरे कुछ कहे बिना ही छतरी दिखाते हुए बोलता है - सर छाता लाऊंउसके इस कथन पर अनायास मेरे चेहरे पर एक मुस्कुराहट का भाव उभरता है और अगले ही पल वह छात्र छतरी के साथ मेरे सामने खड़ा हो जाता है। कक्षा-11  का एक छात्र है जो अपनी कक्षा  में यह ध्यान रखता है कि उसका कोई कालखण्ड रिक्त न रहे। यदि ऐसा होता है तो वह देखने की कोशिश करता है कि  उसके शिक्षक आए हैं या नहीं, यदि आयें हैं तो वह उन्हें बुलाने का आग्रह करता है और यदि नहीं हैं तो वह कक्षा को संभालने की कोशिश करता है। जबकि दूसरे बच्चे ऐसा नहीं करते  
यह कहानी एक विशेष बात की और इंगित करती है और वह यह कि समस्या के प्रति दो प्रकार का नजरिया रखने वाले लोग होते हैं। एक वे  जो समस्या के संबंध में तब तक कुछ नहीं करते जब तक कि उस समस्या के संबंध में उन्हें कोई व्यक्ति निर्देश न दे। और दूसरे वे  होते हैं जो समस्या के निराकरण के प्रति स्वतः सचेत होते हैं ,वे  समस्या के निराकरण के लिए स्वतः तो काम करते ही हैं दूसरों को निर्देशित करने में भी संकोच नहीं करते

व्यक्तियों का यह वर्गीकरण मानवों के प्रत्येक समूह में पाया जाता है। ऐसा वर्गीकरण मानव में मौजूद नेतृत्वक्षमता की मात्रा के कारण होता है। न्यूनाधिक मात्रा में सभी में नेतृत्व का गुण होता है यदि ऐसा नहीं  होगा तब  जीवन निर्वाह ही कठिन हो जाएगा। इसी गुण के कारण व्यक्ति स्वयं को  दैनिक कार्याें के लिए निर्देशित करता है। अतः नेतृत्व का गुण प्रत्येक व्यक्ति में प्रकृतिजन्य होता है। उसकी मात्रा अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होती है। 

समाज में लोगों का  सहज रूप से जो दो प्रकार का वर्गीकरण होता है उसमें से एक में आज्ञा देने का अधिक गुण होता  है और दूसरे में आज्ञापालक का। नेतृत्व को परिभाषित करते हुए ओसवाल्ड स्पैगलर ने लिखा है कि इस  युग में केवल दो प्रकार की तकनीक ही नहीं है वरन् दो प्रकार के आदमी भी हैं। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति में कार्य करने तथा निर्देशन देने की प्रवृति है उसी प्रकार कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जिनकी प्रकृति आज्ञा मानने की है। यही मनुष्य जीवन का स्वाभाविक रूप है। यह रूप युग परिवर्तन के साथ कितना ही बदलता रहे किन्तु इसका अस्तित्व तब तक रहेगा जब तक यह संसार रहेगा। विकिपीडिया में नेतृत्व को व्याख्यायित करते हुए लिखा गया है नेतृत्व एक प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति सामाजिक प्रभाव के द्वारा अन्य लोगों की सहायता लेते हुए एक काॅमन कार्य सिद्ध करता है।

आज नेतृत्व के गुणों की आवश्यकता हर स्थान पर देखी जा सकती है। हमारी आजादी ने शासन व्यवस्था में प्रजातंत्र की स्थापना की। जिसमें चुनाव एक अहम भूमिका निभाता है। चुनाव से जीता हुआ प्रत्याशी समाज की समस्याओं के निराकरण की जिम्मेदारी लेता है। इस लोकतंत्र ने समाज को संदेश दिया है कि समस्या के निराकरण लिए चुने हुए प्रतिनिधि के पास जाना चाहिए। हमारे भारतीय समाज को इसकी आदत सी हो गई है। इसे लोकतंत्र का नकारात्मक पहलू कह सकते हैं। आम आदमी का यह भाव यह एहसास दिलाने का काम किया है कि केवल नेता के पास ही नेतृत्व का गुण मौजूद है और प्रत्येक समस्या का निराकरण केवल  चुना हुआ नेता ही कर सकता है। ऐसे में  एक ओर लोगों का यह भाव; तो दूसरी ओर जिस चुने हुए नेता में नेतृत्व के गुणों की हम तलाश कर रहे हैं वह केवल अपने नेतृत्व क्षमता के कारण चुनाव नहीं जीतता बल्कि उसकी जीत में पैतृक सहयोग, धनबल और बाहुबल का भी प्रभाव होता है। ऐसे में समाज न तो स्वयं नेतृत्व की कोशिश करता है और न ही उस चुने हुए प्रत्याशी में नेतृत्व करने का गुण, क्षमता और ललक होती है जिसके लिए वह चुना गया है। ऐसी परिस्थितियाॅं समाज में नेतृत्वहीनता की स्थिति निर्मित करता है। 

उपरोक्त विवेचना के साक्ष्य के तौर पर हम छोटी-छोटी चीजों की पड़ताल कर सकते हैं। शहर के भीतर सभी लोग आते-जाते है। सड़कें गड्ढों में तब्दील हो चुकी हैं। घरों के सामने नालियाॅं हैं, नालियाॅं चोक हो जाती हैं। घरों  के सामने से नालियों का पानी सड़कों पर बहता रहता है हम अपने घरों का कचरा घर से निकालकर सड़क पर फेंकते रहते हैं। स्कूलों में बच्चे हैं, बिना दक्षता प्राप्त किए कक्षोन्नत हो रहे हैं। यह सभी चीजें हमारे ही आसपास हो रही हैं, परन्तु किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। समाज में कई प्रकार की रूढ़ियाॅं विद्यमान हैं, उन्हें आँख मूंद कर मान रहे हैं, उनका विरोध करने का साहस  नहीं है। समाज में एक तरफ गरीबी  और बेकारी है तो दूसरी ओर काम करने के लिए इच्छुक पढ़े-लिखे नौजवानों की बाढ़ है। लाखों वनस्पतियाॅं बिना उपयोग किए नष्ट हो रही हैं जिनमें से कई में औषधीय गुण हैं और दूसरी ओर उचित दवाओं के अभाव में  हम बीमार हो रहे हैं। आयुर्वेद के ज्ञान का पराभव हमारी नेतृत्वहीनता के कारण ही हुआ। किसी वैद्य ने जिसके पास उसका समुचित ज्ञान था, वह सम्पूर्ण ज्ञान उसने अपनी पीढ़ी को हस्तांतरित नहीं कर किया। जबकि बाबा रामदेव ने उसी कार्य का नेतृत्व और निर्देशन करते हुए योग और आयुर्वेद को न केवल देश-विदेश में पहुँचाया बल्कि लाखों-करोड़ों का टर्नओवर देने वाली कंपनी भी खड़ा कर लियासड़कों पर, स्कूलों के आसपास और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर असामाजिक तत्व का तमगा प्राप्त नौजवान और युवाओं का बड़ा वर्ग विद्यमान रहता है। वे सब उसी परिवेश के आसपास के घरों के लड़के होते हैं, उन्हें समझाइश देने की हिम्मत किसी में नहीं होती है। घर के लोग तो न जाने कब का हाथ खड़ा कर चुके होते हैं। लोगों ने बोलने की आजादी पाई और लोगों ने उचित बात बोलना बन्द कर दिया। इस आजादी का लाभ कौन उठा रहा है? वे लोग जो नेतृत्वहीनता का फायदा उठाकर समाज को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। यह भी नेतृत्वहीनता का ही उदाहरण है जब एक विधायक गुनाह करता है और उसका मुख्यमंत्री और उसकी समूची पार्टी उसके गुनाहों से लोगों को बचा नहीं पाते। जिन लोगों ने समूचे परिवार के नष्ट हो जाने के बाद विरोधस्वरुप प्रदर्शन किए, यदि वह सब इसके पहले नेतृत्व करते हुए साथ आए होते तो शायद उसका परिवार इस हद तक तबाह नहीं होता 

आम आदमी नेतृत्वहीनता की स्थिति से गुजर रहा है क्योंकि वह इसी में आराम से है। कुछ हो रहा है, कुछ गलत हो रहा है वह नहीं बालेगा। उसका एक ही कथन होगा- हमको क्या मतलब कोई रिश्वत दे रहा है, कोई ले रहा है। हमको क्या मतलब दुष्परिणाम यह होता है कि जब हमारी  बारी आती है तब हम  या तो अधिक रिश्वत नहीं दे सकने  के कारण अपना काम नहीं करा पाते या फिर रिश्वत देकर ही काम करा पाते हैं अन्यथा नहीं। हमने स्वयं के नेतृत्व क्षमता को  मारने का काम किया है। छोटे-छोटे कार्यों में जहां नेतृत्व करने में कोई खतरा नहीं  है वहां भी हमने स्वयं को सिकोड़ कर रख लिया है। आपके घरों के आसपास जो समस्याएं हैं यदि आप उनके निराकरण में रुचि लेते तो उसमें इतना खतरा नहीं  था। परन्तु सभी में हमने एक टैगलाइन  काॅमन बना रखा है -हमें क्या मतलब अधिक विकसित और समुन्न्त राष्ट्रों की एक विशेषता है कि उसके नागरिक समस्याओं के निराकरण की सारी जिममेदारी शासक वर्ग पर नहीं छोड़ते बल्कि अपने हिस्से का काम स्वयं करते हैं। 

नेतृत्वहीनता केवल समुदाय की  समस्याओं को नहीं बढ़ाता बल्कि व्यक्ति को बहुत हद तक गैर जिम्मेदार भी बनाता है जो सामुदायिक समस्याओं को और अधिक बढ़ाता है। एक नेतृत्वहीन व्यक्ति किसी नेतृत्वकर्ता को हतोत्साहित करने का भी काम करता है। वह उसे गुमराह भी करता है। और एक बढ़िया नेतृत्वकर्ता समुदाय का सही निर्देशन करते हुए उसे विकास के पथ पर अग्रसर करता है। किसी संस्था  प्रमुख में रूप में जो व्यवस्थाएं उस संस्था में दिखाई पड़ती हैं वह उस संस्था प्रमुख के नेतृत्वक्षमता का ही प्रतिबिम्ब होता है। किसी संस्था प्रमुख के नेतृत्व की छाप उस संस्था के कर्मचारियों पर प्रत्यक्षतः पड़ता है। यदि वह स्वयं आलसी है, काम को टालने का काम करता है तो उसके कर्मचारी उससे दो कदम आगे ही होंगे। एक अच्छा नेतृत्वकर्ता हर स्थिति में अच्छा निर्णय लेता है। किसी ने कहा है- यदि किसी व्यक्ति के पास सुन्दर बहुमूल्य घड़ी है और वह सही तरह से काम नही करती है तो वह उसे मामूली घड़ीसाज को सही करने के लिए नहीं देगा। घड़ी की जितनी बारीक कारीगरी होगी उसे ठीक करने के लिए भी उतना ही चतुर कारीगर होना चाहिए।

हमारे समुदाय की बहुत सारी समस्याओं की जड़ यह है कि हर व्यक्ति हाथ बांधकर खड़ा है। वह इन्तजार कर रहा है कि कोई उसे निर्देशित करेगा और तब वह समस्या के सम्बन्ध में कुछ करेगा। दफ्तरों में छोटे-छोटे कार्यों के लिए क्लर्क साहब की हामी का इन्तजार करता है। जबकि उसे साहब की हामी भी मालूम है। आगे बढकर कार्य करने में खतरा है। खतरा है कि लोग उसके निर्णय की आलोचना कर सकते हैं यदि उसका निर्णय सही परिणाम नहीं ला पाया। खतरा है कि कोई उसे टोक सकता है कि उसने यह काम क्यों किया जबकि यह उसका काम था ही नहीं। यह भी खतरा है कि यदि वह ऐसे निर्णय लेता रहा तो उसका जो मुख्य पेशा है, उससे उसके मुख्य पेशे का टैग हट सकता है या उसकी छवि कमजोर पड सकती है। 

आप एक वार्ड के लिए एक पञ्च का चुनाव करते हैं। एक ग्राम पंचायत के लिए एक ग्राम प्रधान या सरपंच का चुनाव करते हैं। एक विधानसभा क्षेत्र के लिए एक विधायक का चुनाव करते हैं और एक लोकसभा क्षेत्र के लिए सांसद का। अब आप उस क्षेत्र के भीतर विद्यमान समस्याओं की गिनती कीजिए। फिर आप पता लगाइए कि इन समस्याओं के निराकरण के लिए कितने पञ्च, सरपंच, विधायक और सांसद चुनने पड़ेंगे? समस्याएँ जो दिन-प्रतिदिन पैदा होती हैं, समस्याएं जो हम अपने परिवेश में स्वतः पैदा करते हैं, समस्याएँ जिनके निराकरण में सरकार की भागीदारी नहीं के बराबर होनी चाहिए, क्या उन सभी समस्याओं के लिए हम चुने हुए प्रत्याशियों की तरफ देखेंगे? यदि सच में हमारी यही मांग है तब तो .....कुछ नहीं हो सकता

हमारे भीतर नेतृत्व प्रकृतिजन्य है। कम या अधिक यह मायने नहीं रखता। अन्य छात्राएं यदि हिम्मत करतीं तो वह भी बोल सकती थीं। लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें अधिक साहस करना होता। समुदाय को यदि प्रगति के पथ पर ले जाना है तो सबसे अधिक आवश्यकता है कि हम हमारे आसपास विद्यमान समस्याओं के निराकरण के लिए खुद के नेतृत्व पर भरोसा करना सीखें, सबसे अधिक कि खुद के नेतृत्व का उपयोग करें। यदि ऐसा नहीं करेंगे, व्यवस्था में सुधार के बजाय अव्यवस्था बढ़ेगी। यदि हम नेतृत्व करना शुरू करें, हम मुखर होना शुरू करें, हम अपने कदम पीछे खीचने के बजाय आगे बढ़ाना शुरू करें, समस्या के प्रति सिकुड़ जाने के बजाय खुल जाएँ, उसके निराकरण के बारे में चिन्तन शुरू कर दें- समुदाय की बहुत अधिक समस्याएं मूलतः समाप्त हो जाएंगीप्रश्न है कि क्या हम ऐसा करना चाहेंगे?
(यदि आपने सच में यह आलेख पूरा पढ़ा है, हृदय की गहराई से आपका धन्यवाद। आपसे अनुरोध है इस आलेख के बारे में अपनी राय नीचे कमेंट बॉक्स में अपने नाम के साथ अवश्य लिखें)
प्रस्तुति एवं रचना: सुरेन्द्र कुमार पटेल
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सोमवार, अगस्त 26, 2019

कैसा हमने हिन्दुस्तान बना डाला:दो तुकबन्दियाँ


(1) कैसा हमने हिन्दुस्तान बना डाला

सौंपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे  
उसको हमने भगवान बना डाला
क्या सपना देखा था शहीदों ने
औ कैसा हमने हिन्दुस्तान बना डाला

जिनको सेवक समझा संविधान ने
उन्होंने कैसा-कैसा हाल किया
टूटी पुलिया, सड़कें टूटी
शिक्षा औ स्वास्थ्य को भी बदहाल किया

प्रजातंत्र का बस  नाम रहा
और तिजोरी अपना भर डाला         
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

भारत के भीतर कितने भारत
सत्तर सालों में यह भेद मिटा न पाए
चकाचौंध रोशनियों से छिपा शहर का सड़ांध
गाँव-गाँव रहा, उसकी तस्वीर हटा न पाए

जिसे मिला उत्तरदायित्व निभाने का अवसर
उसने अवसर का खूब लाभ उठा डाला      
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

छिप गयी गरीबी और बेरोजगारी
इनका मुखौटा बहुत बिकाऊ है
राशन सड़ता खुले आसमान में
इनका भाषण नहीं टिकाऊ है

सेवक बन चुनाव जीतते, पर
सेवक पद को ही राजतन्त्र बना डाला          
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

हाथ जोड औ पैर पकड कर
ए मत याचक बन चुनाव जीतें जो
विकास एजेंडा पीछे रखते
पूरे पांच साल निज काम से न रीते वो

स्वयं किया बदनाम तंत्र को औ
समूचे तंत्र का निजीकरण कर डाला           
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

पक्ष और विपक्ष में भेद नहीं
बस अपनी-अपनी बारी है
खुली योजनाएं, खुली लूट
खजाना तो सरकारी है
पथभ्रष्टों को रोकना कहकर
भ्रष्टता की नित नई राह बना डाला              
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे


हम मुद्दों में उलझे इतना कि
गरीब का निवाला मुद्दा नहीं रहा,
अमीर हो गया जो कागजी आंकड़ों में
वो अगले दिन राशन लेने जिन्दा नहीं रहा
मह्त्वहीन मत याचक को दे महत्व
हमने ही फूलों से लादा और डाली माला            
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

कौन ख़ाक करे अब खुद को
कौन भरे जन-जन में चिंगारी
मौन रहो और मौज करो
सबमें ऐसी फ़ैली है बीमारी
हमने सत्ता सौंपी और सुस्त हुए
इस आजादी का हमने क्या कर डाला               
...सौपनी थी व्यवस्था मात्र जिसे

                 (2)ऐसा देश बनाएँ हम

आओ-आओ, आओ-आओ ऐसा देश बनाएँ हम
आओ-आओ, आओ-आओ ऐसा परिवेश बनाएं हम
शिक्षा का अलख जगे औ सम सम्मान पाएं सब
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का हो विकास औ प्रगति पथ पर बढ़ते जाएं हम
आओ-आओ, आओ-आओ...

खेती को अछूत न मानेंनई तकनीक अपनाएं सब 
घर में चाहिए और आय तो बाजार को भी अपनाएं सब
पुरानी रूढ़ियाँ हो विकासकंटक  तो इनको बिसराएँ हम
बेटा-बेटी का भेद न करतेसोचें की पढ़ जाएं सब
आओ-आओआओ-आओ...

रहें प्रफुल्लित सब जन मन ऐसा माहौल बनाएं सब
त्याग कलुष मन कासदविचार का संस्कार अपनाएं सब 
मिले स्नेह छोट्जनों को और बड़ों को सेवाभाव देवें 
रोगी हो या हो वृद्ध सभीजनों को अपनाएँ हम 
आओ-आओआओ-आओ...

नशापान से नहीं भलाईइनको जल्दी ही बिसराएँ सब
गुटखा,जर्दापानसुपाड़ी इनको खाकर न इतरायें हम
मतिभ्रम का कारण बनते इनको शौक बनाएं न हम
स्वच्छ मन औ स्वच्छ तन से स्वच्छ समाज बनाएं हम 
आओ-आओआओ-आओ...

आलस करना नहीं है अच्छा स्फूर्तिभाव को अपनाएँ सब
खाली समय न होता बढ़िया, कुछ कामकाज ही अपनाएँ हम
इस धरा का कर वायु और जलपान बढ़ पाए सब 
रहे आबाद सदा जनजीवन से धरती ऐसा कुछ कर जाएं हम
आओ-आओआओ-आओ...


प्रस्तुति एवं रचना : सुरेन्द्र कुमार पटेल

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