(अशोक त्रिपाठी 'माधव' की बारिश पर बघेली कविता)
(Ashok Tripathi 'Madhav' ki baarish par bagheli kavita)
बरसि जई घनस्याम
जेठ मास मा चहला कीन्हेन,किहेन असाढ़े घाम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
दिहेन खेत मा खादा करसी,
तबहूँ घाम उधेरिसि चरसी।
फेकेन खेते अन्न घरे कय,
सोचे रहेन जो थोरौ बरसी।
लटे लम्मरे कइसौ-मइसौ
जइहीं बिजहा जाम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
अरहर उरदा तिली बोबायन।
सोयाबीन मूँग छिटबायन।।
खादि खितिर चउगिरदा बागेन।
तबहूँ भरे मा निन्चय पायन।।
कोटेदार सेल्समैनन से,
कीन्हेन ताम-झड़ाम।।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
जब ते जनबुध भये रहेन ते।
जेतना जोरे धये रहेन ते।
कुछ लड़िकन के खाता माहीं,
फिक्स-डिपाजिट कये रहेन ते।
सगला खरच दिहेन बिजहा मा,
बचा न एकौ दाम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
अद्रा मा नहिं बूँद गिराया।
पुनरबसू मा खूब तिपाया।
थरहे रहेन धान बंधी मा,
ओहू का खुब नगदि जराया।
त्राहि मची है चारिउ कइती,
रोट लेबाला सबै चढ़ायन,
तबौ किहा नहिं काम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
अब ता चिरई लीलय काँकर।
परा हबय किसमत मा पाथर।
माधव मरै बिपति के मारे,
मरे जात हें गोरुअउ राकर।।
सगले लड़िका खटिआ पकड़े,
दीदिउ हबय बेराम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
बिनती सुनी रहम कइ देई।
धरती का शीतल कइ देई।
बरसि के सबके जान बचाई,
पुनि के चकाचक्क कइ देई।।
जब तक जिअब करब नित पूजा।
हे सीता पति राम।
आय के बरसि जई घनस्याम।।
अशोक त्रिपाठी "माधव"
शहडोल मध्यप्रदेश
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