आत्मप्रयास
एक दुखद विमर्श जो छा जाता है,
कई विद्रूपताओं को बाहर लाता है।
जीवन के रास्ते छोटे पड़ जाते हैं,
पड़ाव ही मगर बड़ा बन जाता है।
मरने को तो कई भूख से मरे होंगे,
हजारों बार भूखे भूख से लड़े होंगे
उन्हें नहीं पता कुछ शब्दों के अर्थ,
इसीलिए वे मृत्यु से इतना लड़े होंगे।
जरूरत जब रोटी से बड़ी हो जाती है,
वह समस्या बड़ी तगड़ी हो जाती है।
हम बनाते हैं खुद ही इस मूर्ति को,
पूजने से प्रत्यक्ष खड़ी हो जाती है।
हमारी जरूरतों से ही घिरते हैं हम,
जरुरतें मगर कम कहां करते हैं हम।
इच्छा-वृक्ष के शिखर में बैठ फिर
दाल-रोटी पर कहाँ उतरते हैं हम।
भावनाओं का समंदर भी बड़ा है,
पानी किन्तु खारा ही इसमें भरा है।
भावनाओं को मिलता नहीं मृदु नीर,
बेदम भावनाओं का शव तिरा पड़ा है।
चाहिए थी जिस श्वास को रोटी केवल,
चल रही अब शान और शौकत केबल
जीवन को दाव पर लगा चलते हैं चाल,
दुनिया बना देते हैं रसहीन, वे दलदल।
वह मान झूठा, वह सम्मान झूठा है,
जिनकी जड़ों से अवसाद फूटा है।
भव्यताओं का शव ढोने से हो विरत,
भव्य तेरे पूर्वजों का घर, जो टूटा है।
हम सागर में या नभ के पार जायें,
तय करें लौट कब अपने संसार आयें।
एक बारीक रेखा खींचनी तो होगी,
कितना जीतकर लायें, क्या हार आयें।
घटना, सिर्फ एक के साथ घटती नहीं,
उसका बीज हर मन में है कहीं न कहीं।
संवेदनाओं का द्वार खोल कर रखें हम,
हार गया जो इससे वह फिर उबरता नहीं।
आत्म को खोने के भंवर में जाने से बचाएं,
कुशल गोताखोर बन सप्रयास खींच लायें।
दूसरों के जीवन-बेलों को भी दें आयाम,
मुरझायी बगिया किसी की हम सींच जायें।
(मौलिक, स्वरचित)
©® सुरेन्द्र कुमार पटेल
ब्यौहारी, जिला-शहडोल
(मध्यप्रदेश)
एक दुखद विमर्श जो छा जाता है,
कई विद्रूपताओं को बाहर लाता है।
जीवन के रास्ते छोटे पड़ जाते हैं,
पड़ाव ही मगर बड़ा बन जाता है।
मरने को तो कई भूख से मरे होंगे,
हजारों बार भूखे भूख से लड़े होंगे
उन्हें नहीं पता कुछ शब्दों के अर्थ,
इसीलिए वे मृत्यु से इतना लड़े होंगे।
जरूरत जब रोटी से बड़ी हो जाती है,
वह समस्या बड़ी तगड़ी हो जाती है।
हम बनाते हैं खुद ही इस मूर्ति को,
पूजने से प्रत्यक्ष खड़ी हो जाती है।
हमारी जरूरतों से ही घिरते हैं हम,
जरुरतें मगर कम कहां करते हैं हम।
इच्छा-वृक्ष के शिखर में बैठ फिर
दाल-रोटी पर कहाँ उतरते हैं हम।
भावनाओं का समंदर भी बड़ा है,
पानी किन्तु खारा ही इसमें भरा है।
भावनाओं को मिलता नहीं मृदु नीर,
बेदम भावनाओं का शव तिरा पड़ा है।
चाहिए थी जिस श्वास को रोटी केवल,
चल रही अब शान और शौकत केबल
जीवन को दाव पर लगा चलते हैं चाल,
दुनिया बना देते हैं रसहीन, वे दलदल।
वह मान झूठा, वह सम्मान झूठा है,
जिनकी जड़ों से अवसाद फूटा है।
भव्यताओं का शव ढोने से हो विरत,
भव्य तेरे पूर्वजों का घर, जो टूटा है।
हम सागर में या नभ के पार जायें,
तय करें लौट कब अपने संसार आयें।
एक बारीक रेखा खींचनी तो होगी,
कितना जीतकर लायें, क्या हार आयें।
घटना, सिर्फ एक के साथ घटती नहीं,
उसका बीज हर मन में है कहीं न कहीं।
संवेदनाओं का द्वार खोल कर रखें हम,
हार गया जो इससे वह फिर उबरता नहीं।
आत्म को खोने के भंवर में जाने से बचाएं,
कुशल गोताखोर बन सप्रयास खींच लायें।
दूसरों के जीवन-बेलों को भी दें आयाम,
मुरझायी बगिया किसी की हम सींच जायें।
(मौलिक, स्वरचित)
©® सुरेन्द्र कुमार पटेल
ब्यौहारी, जिला-शहडोल
(मध्यप्रदेश)
बहुत सुंदर पंक्तियां
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका.
हटाएंसुरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंआप बहुत अच्छा लिखते हैं । ऐसे ही लोगों की भावनाओं को जगाते रहें।
बहुत-बहुत आभार.ऐसा ही स्नेह देते रहियेगा.
हटाएंवाह! लाजवाब अभिव्यक्ति आदरणीय👌👌👌
जवाब देंहटाएंआपका बहुत-बहुत आभार.
हटाएंशानदार
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