गुरुवार, मई 07, 2020

समय के दोहे:डॉक्टर बारेलाल जैन


समय के दोहे
जनता को जनतंत्र है, जैसे लाली पाप।
महंगाई का किस कदर, झेल रही अभिशाप॥

रखे दोगली वृत्ति जो, उसका जीवन अल्प।
परमारथ में जी रहे, उनका कायाकल्प॥

जनमत का नेता हुआ, हर सुविधा संपन्न
पेट से पेटी भर रहा, छीन जनों का अन्न॥

साथ तेरा पाकर प्रिय जीवन हुआ निहाल।
पारस मणि से लौह मिल, स्वर्ण हुआ तत्काल॥

आरक्षण उनको मिले, जो हैं अर्थ विहीन।
वर्ण जाति और धर्म से, तौले नहीं प्रवीण॥

सीमा पर प्रहरी कटे, दामिनी सड़कों बीच।
मानवता घर में घुटे सत्ता आंखें मीच॥

संविधान के कौल को, गन्ने जैसा चूसा।
सत्ता रस पीती मिली, जनता आगे भूसा॥

मूल्यों के इस देश में, कितने प्यारे घात।
नित प्रति ही मिलने लगे, नालों में नवजात॥

दलित पतित शोषित हितू, है जिनका ऐलान।
जोंक समा चिपके मिले, वे ही उस दरम्यान॥

आजादी के बाद भी, हुआ नहीं है फेर।
मजदूरों की टोलियां, तरसे नैन बसेर॥

मात-पिता से बोलिए, मधुर मधुर तम बोल।
कारण उनने ही दिया, मनुज जन्म अनमोल॥

विज्ञापन और फिल्मों में, गोरी नंगी देंह।
कर्णधार भी देखता, कैसे होय विदेह॥
मानव गुणों को खो रहा, अवगुण की ही पूंछ।
जिसके जितने पाप हैं, उसकी उतनी मूंछ॥

यत्न भाग्य सत्ता मिली, लिया समझ जागीर।
दर्द मनुज का भूल कर, लगे चलाने तीर॥

नाम आश्रम रख लिया, और साधु का भेष।
अनाचार आगे रखे, पीछे रख्खा देश॥

कनक छरी सी कामिनी, बैठी हो जब पास।
रितु कोई भी सामने ए सी का आभास॥

राजतंत्र के लोग ही, प्रजातंत्र के नूर।
बड़े बड़ों के सामने छोटे चकनाचूर॥

हुई गायब संवेदना,शून्य भाव से खेत।
काम कराते ढेर है, दाम मुट्ठी से देत॥

पढ़ पढ़ कर ली डिग्रियां, इंटरव्यू भी खूब।
राज तंत्र के सामने गई योग्यता डूब॥

झूठ सांच दोउ  चले,अपनी-अपनी गैल।
सिंहासन अरुण एक,एक कोल्हू का बैल॥

अहा! विमर्शी दोर है,खोल खोल सब अंग।
बाहर मिलता मान है, भीतर चुकता रंग॥

पूजती मिट्टी मूर्ति है, लुटती चेतन मूर्ति।
आधी दुनिया नाम पर, केवल खानापूर्ति॥

पेट तुम्हारा है भरा, फिर भी नहीं डकार।
पीने खून गरीब का, फिरते जीभ निकाल॥

घूम घूम कर देखता, गांवों की तस्वीर ।
सूखे सर मैं झूठ का, मीठा-मीठा नीर॥
मेहनत मिल मजदूर को, दाम नहीं अनुकूल।
शोषणकारी लान में, रंग बिरंगे फूल॥

रंग तरसते बूंद को, दाना नहीं नसीब।
कैसे कह दूं है यही, नेता रंग करीब॥
हृदय नहीं अब बुद्धि से, मिला करेंगे लोग।
कोरोना ने भर दिया, अब दूरी के रोग॥

कोरोनावायरस से, लड़नी लंबी जंग।
लाकडाउन में मिल गए, प्यारे जीवन रंग॥

पुद्गल से इस जीव ने, कर दी नींद हराम।
धोते मलते हाथ से, दूर हुए सब काम॥

जो पल पल मिलते रहे, बे अब कितने दूर।
बढ़ा हुआ यह हादसा, खोजें मिले न नूर॥

अपनी रक्षा आप ही, मन में दृढ़ विश्वास।
करें प्रकृति से मित्रता संयम ही सब रास॥

 Ⓒ डॉक्टर बारेलाल जैन
अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा
हिंदी विभाग
मोबाइल  9424337846
-000-
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3 टिप्‍पणियां:

  1. सर आपके दोहे वर्तमान परिदृश्य को प्रदर्शित करते हुए समरसता की भावना का प्रसार करने वाले हैं वर्तमान समय मैं जिस तरह गरीब व्यक्ति को सिर्फ आशाएं दी जाती हैं सुख सुविधाएं नहीं यह सब आपके दोहो में है। आपने आमजन की पीड़ा को
    उजागर किया है।आपको सादर प्रणाम

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  2. सर जी आपके द्वारा रचित दोहे मानव को माननता में रहना होगा तभी सभी विकास होगा आज के समय की पीड़ाओं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है आपको सादर प्रणाम।

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  3. पेट तुम्हारा है भरा, फिर भी नहीं डकार।
    पीने खून गरीब का, फिरते जीभ निकाल॥
    आपके दोहे आमजन की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए समाज के वंचित वर्ग के हितों का गला घोंटने वाले जिम्मेदारों को कोसते हैं। आरक्षण जैसे संवैधानिक प्रावधानों के जरिये वंचित वर्गों का हित साधन इन्हीं की वजह से निर्मूल साबित हुआ। उनके लिए वंचित कल भी सत्ता की सीढ़ियां था और आज भी है। शोषित का कल्याण हुआ नहीं और अब आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग बलवती हो उठी है, जिसका प्रतिनिधत्व आपके दोहों में भी मिलता है। अब वह वंचित और शोषित इस चिंता में है कि रिश्वत के दम पर अघोषित आय कमाने वाले आर्थिक आरक्षण का लाभ उठाएंगे और वह मुंह ताकता रह जायेगा। जिसकी बानगी आपके ही इस दोहे में मिलती है-
    पढ़ पढ़ कर ली डिग्रियां, इंटरव्यू भी खूब।
    राज तंत्र के सामने गई योग्यता डूब॥
    किन्तु यह तो आम जन की चिंता है। उन्हें किसी भी कीमत पर सत्ता चाहिए-
    यत्न भाग्य सत्ता मिली, लिया समझ जागीर।
    दर्द मनुज का भूल कर, लगे चलाने तीर॥

    उक्त दोहे अथाह वेदना की यात्रा से गुजरते हुए ही रचे गए होंगे। बहुत-बहुत बधाई। बहुत हार्दिक शुभकामनाएं।

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